स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में अजमेर मेरवाड़ा संभाग के भिनाय ठिकाने के राजा बलवंत सिंह राठौड़ का प्रमुख नाम है। राजा बलवंत सिंह का शासन काल वह काल था जब भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में ब्रिटिश सत्ता अपना सामराज्य फैला रही थी। भारत में अंग्रेजों का विरोध करने वाली शक्तियां समाप्त हो चुकी थी। लेकिन विदेशी दासता के प्रति विरोध और संघर्ष की चिंगारी भीतर ही भीतर सुलग रही थी और वह चिंगारी अंग्रेजों की आज्ञाओं की अवहेलना और स्वतंत्रता चेताओं को सहयोग आदि के रूप में धधक रही थी। राजा बलवंत सिंह अजमेर मेरवाड़ा की स्वाधीनता के लिए अनवरत संघर्षशील थे।
स्वतंत्रता की भावना और दासता के प्रति विद्रोह उनकी कुल परम्परा से उन्हें प्राप्त थी। भिनाय ठिकाने के आदि पुरुष राव चंद्रसेन को मारवाड़ जैसा विशाल राज्य इसलिये खोना पड़ा कि उन्होंने दिल्ली के प्रतापी बादशाह अकबर की दासता स्वीकार नहीं की थी। तत्कालीन राजस्थानी राजाओं में मेवाड़ के राणा प्रताप, सिरोही के राव सुरताण देवड़ा और मारवाड़ (जोधपुर) के राव चंद्रसेन ने स्वतंत्रता के लिए अकबर से संघर्ष किया. इन तीनों ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी. राव चंद्रसेन ने नवकोटि मारवाड़ राज्य के बदले छप्पन के गिरि भागों में शयन करना स्वीकार किया, किन्तु बादशाह की अधीनता स्वीकार नहीं की. चंद्रसेन पर कथित एक वीर गीत में राजस्थानी कवि ने उनकी सराहना करते हुए कहा है-
अण दगिया तुरी ऊजळ, असमर चाकर रहण न डिगियौ चीत. सारा हींदूकार तणे सिर, पातळ नै चन्द्रसेण प्रवीत..
जिन्होंने अपने अश्वों पर कभी आधीनता का दान नहीं लगाया, युद्ध में अपनी तलवार को सदैव उज्जवल रखा और बादशाही सेवा स्वीकार करने का जिसके मन में कभी क्षणिक भी विचार उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसे राव चंद्रसेन और राणा प्रताप भारतीय नरेशों के शिरोभूषण है| राजा बलवंत सिंह स्वतंत्रता प्रेम की उस समृद्ध परम्परा का प्रतिनिधि था. वह अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभुत्त्व का जागरूक विरोधी था। राजा बलवंत सिंह के प्रजाजन ब्रजवल्लभ ब्राह्मण की पत्नी के सती हो गई. अंग्रेजों ने सती निषेध कानून लागू कर दिया. अत: इस बहाने अंग्रेज सरकार ने बलवंत सिंह को राज्य सत्ता से दूर करने का एक बहाना पाकर उनका दमन करना चाहा. तब बलवंतसिंह ने निडर भाव से अपनी सेना को सज्जित कर अजमेर की प्रस्थान किया। बलवंत सिंह के युद्धाभियान से अजमेर स्थित अंग्रेज अधिकारी लार्ड सदरलैण्ड हतप्रभ हो गया। बलवंतसिंह के मंत्रियों, हितैषियों और स्वजनों ने अंग्रेजों से विरोध न करने के लिये बहुत समझाया, लेकिन वह वीर अंग्रेजों के प्रताप से भयभीत नहीं हुआ।
बलवंत सिंह के साहस और युद्धार्थ कटिबद्धता की सूचना पाकर अंग्रेजों की उनका मुकाबला करने की हिम्मत नहीं हुई और अंग्रेज रेजिडेंट सदरलैण्ड ने अपने एक अधिकारी को भेजकर परिस्थिति की भयानकता को संभाला और राजा की सराहना कर अजमेर से भिनाय लौट जाने के लिये आग्रह किया। राजा बलवंतसिंह के हृदय में देश की पराधीनता के लिए तीव्र पीड़ा थी। यद्धपि स्वतंत्रता संग्राम में सीधे ब्रिटिश विरोध में वे अकेले नहीं आना चाहते थे बल्कि स्वतंत्रता प्रयाशी नरेशों तथा क्रांतिकारियों से उनका पूरा सहयोग और सम्पर्क था। राजा बलवन्तसिंह भारतीय संस्कृति, आदर्श, मान-मर्यादा और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले व्यक्ति थे. अंग्रेज सत्ता का विरोध करते रहने के साथ साथ उन्होंने अपनी प्रजा के कल्याण और हित के लिए प्रयासरत रहे और कई जन-कल्याण के कार्य करवाए।
भारतीय स्वतंत्रता के सेनानी राजा बलवंत सिंह का संवत 1916 बैसाख कृष्णा 8 के दिन भिनाय में देहांत हुआ और इनकी मृत्यु पर इनकी रानी अमर कुंवर खंगारोत सती हुई थी। आज भी भिनाय में सती की छतरी श्रद्धा के साथ पूजी जाती है। विवाह पर वर वधू नमन कर अपने सुखद दाम्पत्य जीवन की कामना करते है और आशीर्वाद प्राप्त करते है।