History of Khoor खूड़ का इतिहास

Gyan Darpan
0

History of Khoor : राजस्थान में शेखावाटी आँचल के सीकर जिला मुख्यालय से सत्ताईस किलोमीटर दूर खूड़ (khoor) कस्बे में तीन और मकानों से घिरा यह गढ़ आज वीरान पड़ा है| कभी इस गढ़ के भी सुनहले दिन थे, चांदनी रातें थी, वैभव सम्पत्ति की अठखेलियों की बहारें थी, मंगल संगीत और उत्सवों की ऋतुएँ थी| पर आज इस दुर्ग की वीरानता को देखकर सहज अहसास हो जाता है कि इस दुर्ग की मंगल श्री विदा ले चुकी है और अपने आँचल में गौरवशाली इतिहास समेटे यह दुर्ग अपने उद्धार की राह देख रहा है| अपने आखिरी स्वामी ठाकुर मंगलसिंहजी शेखावत के निधन के बाद इस छोटे से दुर्ग पर विपत्तियों के पहाड़ टूट गए|

ठाकुर मंगलसिंहजी निसंतान थे अत: उनके निधन के बाद यह दुर्ग बेसहारा हो गया और इसी दुःख में यह खण्डहर में तब्दील होने को अग्रसर है| पिछले कुछ वर्षों में इसके कई खरीददार आये और चले गए, कोई यहाँ कालेज खोलना चाहता था तो कोई यहाँ होटल बनाना चाहता था, पर यहाँ कोई नहीं रुक पाया|

वि.सं. 1709 में खंडेला के राजा वरसिंहदेव ने अपने पुत्र श्यामसिंह को आजीविका के लिए सात गांवों सहित सुजास गांव दिया था| तत्कालीन परिस्थितियों का लाभ उठाकर ठाकुर श्यामसिंहजी ने खूड़, बानूड़ा सहित क्षेत्र के 12 गांवों पर अधिकार कर लिया और खूड़ को अपनी राजधानी बनाया| इससे पूर्व खूड़ पर टांक राजपूतों का अधिपत्य था, जिन्हें यहाँ से निकालकर श्यामसिंहजी ने इन गांवों को अपनी जागीर में मिला लिया| इस दुर्ग पर ठाकुर श्यामसिंहजी के बाद उनके 10 अन्य वंशजों ने शासन किया| इस गढ़ के अधीन क्षेत्र के 23 गांव थे, जिनकी शासन व्यवस्था यहीं से संचालित होती थी| ये गांव थे – खूड़, बानूड़ा, भगतपुरा, सांगलिया, गोड़ियावास, नया बॉस, मोहनपुरा, उदयपुरा, तुलीका चारणबास, रुपगढ़, ठेहट, तम्बाखूपुरा, मेड़तीयों की ढाणी, मान्डोता, मांडोली, जीणमाता जी, रलावता, झुनकाबास, राड़ की ढाणी,, खिचडो की ढाणी, सुजास आदि आदि |

इस गढ़ के संस्थापक ठाकुर श्यामसिंहजी ने हरिपुरा गांव में मुग़ल सेना से रक्तरंजित युद्ध कर अपनी तलवार का जौहर दिखलाया था| उनके वंशज ठाकुर रूपसिंहजी ने फतहपुर के नबाब सरदार खां के खिलाफ युद्ध में भगा लेकर शेखावाटी से मुस्लिम राज्य की नींव उखाड़ने में सीकर के राव शिवसिंहजी व झुंझुनू के ठाकुर शार्दूलसिंहजी को सक्रीय सहयोग दिया था| रूपसिंहजी के पुत्र कुंवर अजीतसिंह ने लुटेरे मल्हारराव होलकर की सेना से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था| वि.सं. 1837 में यहाँ के ठाकुर बखत सिंहजी ने खाटूश्यामजी मंदिर की रक्षार्थ मुग़ल सेनापति मुर्तजा अली भडेच के खिलाफ युद्ध में भाग लिया और अपनी तलवार के जौहर दिखलाते हुए सनातन धर्म की रक्षार्थ अपने प्राणों का बलिदान दिया था| इस युद्ध में जहाँ ठाकुर बखतसिंहजी मुगलों से भयंकर युद्ध करते हुए झुझार हुए, वहीं उनके भाई गुलाबसिंह जी व नवलसिंहजी भगतपुरा युद्ध करते हुए घायल हुए थे| इस तरह यहाँ के शासकों ने मराठा व मुग़ल आक्रान्ताओं का समय समय पर मुकाबला किया और युद्धों में वीरता प्रदर्शित कर इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया|

यहाँ के शासकों ने समय समय खूड़, रुपगढ़ में किले, महल बनवाने अपने अधीन अन्य गांवों में कई इमारतों, छतरियों, कुँओं, गौशालाओं, पाठशालाओं आदि का निर्माण करवाया| khoor के आखिरी ११ वें ठाकुर मंगलसिंहजी स्वतंत्रताप्रेमी, समाज सुधारक, राष्ट्रभक्त, गौसेवक, शिक्षा प्रेमी, गाँधी जी के खादी ग्रामोद्योग कार्यक्रम के समर्थक एवं उच्च विचारों के तपस्वी पुरुष थे| आपने मेयो कालेज से शिक्षा ग्रहण की थी और आप जयपुर की सेना सवाईमान गार्ड्स में कप्तान के पद पर रहे| शानदार व्यक्तित्व के धनी ठाकुर मंगलसिंहजी के जीवन में सदा उच्च विचारों के दर्शन होते थे| उन्होंने अपने अधीन गांवों में शिक्षा प्रसार के लिए पाठशालाएँ खोली| आपको घोड़ों व गायों की नस्ल का बहुत ही अच्छा ज्ञान था| यही कारण था कि उदार प्रवृति के ठाकुर साहब खुद घोड़े व गायें पालते थे|

जयपुर सेना की नौकरी छोड़ आपने ग्राम सुधार व क्षत्रियों के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था| आपने राजपूतों को खेती, पशुपालन करने व बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए प्रेरित किया|

ठाकुर मंगलसिंहजी का देशभक्त जमनालाल बजाज, पंडित हीरालाल शास्त्री, महाराव उम्मेदसिंहजी कोटा, महाराजा उम्मेदसिंहजी जोधपुर, योगी राज अरविन्द, स्वामी करपात्रीजी, सदाशिव माधवराव गोलवलकर, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद आदि से अत्यंत ही आत्मीय व स्नेह का सम्बन्ध था| सन 1938 में जयपुर राज्य के आईजी यंग ने सीकर के राव राजा कल्याणसिंहजी को गिरफ्तार करने के लिए सीकर घेर लिया था तब मंगलसिंहजी ने सेठ जमनालाल बजाज के माध्यम से जयपुर से बातचीत कर मामले को सुलझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई| यही नहीं सन 1942 में उदयपुरवाटी के भोमियों व जयपुर राज्य के मध्य हुए विवाद में भी आपने नवलगढ़ ठाकुर मदनसिंहजी व पंचपाना के राजपूत सरदारों के मध्य मध्यस्थता कर समझौता कराकर व्यर्थ के भयंकर संघर्ष को टाला था|

ठाकुर मंगलसिंहजी ने राजपुताना के अनेक राजाओं को भारत संघ में शामिल होने को प्रेरित भी किया था| जागीरदारी उन्मूलन के बाद आपने अपनी कई चल अचल सम्पत्ति, गायें, घोड़े आदि अरविन्द आश्रम, वनस्थली विद्यापीठ निवाई जयपुर, चौपासनी विद्यालय जोधपुर तथा अपने अधीनस्थ ग्रामवासियों में बाँट कर अपनी उदारता का परिचय दिया था|

पहली पत्नी के निधन के बाद आपके शुभचिंतकों ने 12 दिसम्बर 1964 को पुष्कर राज में रतनकंवर जो बीकानेर के साखू गांव की रहने वाली थी के साथ विवाह करवा दिया| पर ठाकुर साहब को रतनकंवर से भी कोई संतान प्राप्त नहीं हुई और 4 फरवरी 1976 को ठाकुर मंगलसिंहजी का निधन हो गया| उनके निधन के बाद कई वर्षों तक ठकुरानी रतनकंवर इस गढ़ में निवास करती थी| उनके रहते इस गढ़ में ग्रामीण बैंक की शाखा भी चलती थी| तब भी इस गढ़ में लोगों का आना-जाना रहता था| लेकिन रतनकंवर के निधन के बाद यह गढ़ सूना पड़ा है हाँ गणगौर उत्सव के दिन यहाँ रियासती काल की याद ताजा हो जाती है क्योंकि खूड़ (khoor) के ग्रामीण आज भी गणगौर की सवारी गढ़ से निकालने की परम्परा निभाते हैं|

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)