भींडर का इतिहास : हल्दीघाटी युद्ध का स्मरण होते ही स्वाधीनता और स्वाभिमान के लिए संघर्ष करने वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की छवि उभर आती है और युद्ध में उनकी वीरता, चेतक के घायल होने, छोटे भाई शक्तिसिंह जी द्वारा मुसीबत के समय सहयोग हेतु गले मिलने के दृश्य आँखों में तैरने लगते हैं| शक्तिसिंह व महाराणा प्रताप के मिलन पर कवियों द्वारा रचा साहित्य और चित्रकारों द्वारा बनाए चित्र हर किसी को भाव विभोर कर देते हैं| मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के ठिकाने भींडर पर इन्हीं महाराज शक्तिसिंह जी के वंशजों का शासन रहा है| उनके वंशज शक्तावत कहलाते हैं और महाराज इनकी उपाधि है| आपको बता दें कि महाराज शक्तिसिंह जी को लेकर इतिहासकारों ने भ्रान्ति फैला रखी है कि वे अकबर की सेवा में थे और महाराणा के खिलाफ युद्ध लड़ने आये थे, पर आखिरी वक्त वे महाराणा के साथ आ गए| यह सरासर झूठ है| शक्तिसिंह जी अकबर की सेवा में कभी नहीं रहे| हाँ ! वे अपने दामाद राजकुमार पृथ्वीराज बीकानेर के पास दिल्ली अवश्य रहते थे| इसका भी कारण था शक्तिसिंह जी के जन्म के समय पंडितों ने उनके पिता महाराणा उदयसिंह को उन्हें मेवाड़ से दूर रखने की सलाह दी थी, अत: वे बचपन से ही दूर रखे गए पर महाराणा प्रताप अपने छोटे भाई को वापस चितौड़ ले आये पर शिकार के समय दोनों भाइयों के मध्य विवाद होने के बाद शक्तिसिंह जी ने फिर मेवाड़ छोड़ दिया|
शक्तावतों की इसी शाखा में मेवाड़ के इतिहास में एक अनोखा वीर भी पैदा हुआ है| बादशाह जहाँगीर के साथ महाराणा अमर सिंह जी की लड़ाइयों के समय शक्तिसिंह जी का तीसरा पुत्र बल्लू बादशाही अधिकार में गए हुए ऊँटाले के किले के दरवाजे पर, जिसके किंवाडो में तीक्ष्ण भाले लगे हुए थे, जा अड़ा, परन्तु जब उसके हाथी ने दरवाजे पर मोहरा ना किया, मतलब हाथी नुकीले भालों से डरकर टक्कर मारने से पीछे हट गया, उसने भालों पर खड़ा होकर महावत को आज्ञा दी कि हाथी को मेरे शरीर पर हुल दे, यानी उनके शरीर पर टक्कर लगवा ताकि दरवाजा टूट जाए| महावत ने वैसा किया, बल्लू जी वहां शहीद हो गए पर दरवाजा टूट चूका था और मेवाड़ी सेना ने किले में प्रवेश कर कायमखां आदि बहुत से शाही सैनिकों को मार डाला या कैद कर किले पर महाराणा का ध्वज फहरा दिया| अब्दुल्लाखां के साथ राणपुर की लड़ाई में भी शक्तिसिंह जी के पोत्र महाराज पूर्णमल जी ने वीरतापूर्वक लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया था| महाराणा राजसिंह जी के समय मेवाड़ के कई ठिकानों द्वारा अपने आपको स्वतंत्र घोषित करने पर भींडर के तत्कालीन महाराज मोहकमसिंह जी ने अन्य मेवाड़ी सरदारों के साथ उन पर आक्रमण कर उन्हें वापस महाराणा के अधीन किया था| मोहकमसिंह जी ने महाराणा के साथ औरंगजेब का भी युद्ध में मुकाबला किया था|
भींडर रियासत के शासक हमेशा मेवाड़ की सुरक्षा ढाल बनकर रहे और मेवाड़ के हर शत्रु से दो दो हाथ करने के साथ अपने प्राणों का बलिदान करने से कभी पीछे नहीं रहे| वर्तमान में भींडर की राजगद्दी पर महाराज रणधीरसिंह जी आसीन है जो विधानसभा में निर्दलीय विधायक है और मेवाड़ की राजनीति में खास दखल रखते हैं| भींडर के इतिहास पर महाराज रणधीरसिंह जी ने हमें बताया उसका वीडियो आप यहाँ क्लिक कर सुन सकते हैं|