कार्ल मार्क्स की ये बात राजपूतों पर सटीक बैठती है

Gyan Darpan
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कार्ल मार्क्स ! जी हाँ वही कार्ल मार्क्स, जिसने वामपंथी विचारधारा प्रतिपादित की| मार्क्स का धर्म को लेकर एक डायलोग दुनिया भर में प्रचलित है कि धर्म अफीम के नशे के समान है| धार्मिक लोग मार्क्स के इस डायलोग की कड़ी निंदा करते हैं, पर आजकल देश में राजनैतिक दलों द्वारा जिस तरह धार्मिक उन्माद फैलाकर सत्ता पाने का रास्ता तैयार किया गया है उसे देखते हुए कार्ल मार्क्स का यह डायलोग सत्य प्रतीत होता लग रहा है| वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो राम मंदिर, समान नागरिक संहिता, कश्मीर में धारा-370 व हिन्दुत्त्व के मुद्दे पर सत्ता में आई भाजपा सरकार ने ये मुद्दे छोड़ दिए| SC/ST Act, प्रमोशन में आरक्षण आदि मुद्दों पर सरकार ने हिन्दुत्त्व को मजबूत करने के बजाय हिन्दुत्त्व को कमजोर करने का कार्य किया है| विदेशों से काला धन लाने के बजाय नोट बंदी व GST के माध्यम से काला धन निकालने के नाम पर सरकार ने आम आदमी को परेशान कर दिया|

पर काला धन, महंगाई, महिला सुरक्षा, राम मंदिर, प्रमोशन में आरक्षण, तुष्टिकरण, बैंकों में कॉर्पोरेट की लूट, भ्रष्टाचार के बढ़ने के बावजूद जनता हिन्दुत्त्व व राष्ट्रवाद के नाम पर इन मुद्दों पर आँखें मूंदे बैठी है| देश के विभिन्न समुदायों पर कार्ल मार्क्स की इस कहावत का असर देखा जाय तो राजपूत समाज पर यह कहावत एकदम सटीक बैठती है| राजपूत जाति धर्म रूपी अफीम के नशे में धर्म को बचाने के लिए सदियों से बलिदान देती आई है| आज भी राजपूत युवा संघ-भाजपा द्वारा हिन्दुत्त्व व राष्ट्रवाद रूपी अफीम के डोज के असर में मदमस्त है| इसी नशे में राजपूतों ने भाजपा को सत्ता के शिखर पर पहुँचाया, पर भाजपा की सत्ता में राजपूतों की सबसे ज्यादा उपेक्षा व उनके स्वाभिमान पर सबसे ज्यादा चोट की गई| बावजूद आज भी राजपूत युवा हिन्दुत्त्व व राष्ट्रवाद रूपी अफीम के नशे में चूर होकर संघ-भाजपा के गुणगान में लगे हैं| उनके लिए हिन्दुत्त्व व राष्ट्रवाद अपने जातीय अस्तित्व से ज्यादा बढ़कर है|

हाल ही में क्षत्रिय स्वाभिमान के प्रतीक शेरसिंह राणा ने डीडवाना में वीर दुर्गादास जयंती पर अपने उदबोधन में कहा कि- “किसी भी जाति के जातीय सम्मेलन या कार्यक्रम में चले जाईये, वहां आपको सिर्फ उस जाति के उत्थान व हित की बातें सुनने को मिलेगी| लेकिन इसके विपरीत राजपूत समाज के हर जातीय कार्यक्रम में समाज हित छोड़ धर्म व राष्ट्र को बचाने की बातें सुनने को मिलेगी|” आपको ऐसा प्रतीत होगा जैसे धर्म व राष्ट्र को बचाने का ठेका सिर्फ राजपूत समाज के पास ही है बाकी को इससे कोई लेना देना नहीं| शेर सिंह राणा ने आगे कहा कि- राजपूत अपना जलता घर छोड़कर जलते गांव को बचाने के लिए दौड़ता है| वह यह नहीं सोचता कि अपना घर बच गया तो वह गांव भी बचा लेगा, पर अपना ही घर जल गया तो बचाया गांव उसके किस काम का|” शेरसिंह राणा का कहने का मतलब था कि जब अपना ही अस्तित्व नहीं रहा तो धर्म व राष्ट्र अपने किस काम का| हाँ हम बचे रहे तो धर्म व राष्ट्र को तो बचा ही लेंगे, अत: सर्वप्रथम अपना अस्तित्व बचाने पर ध्यान केन्द्रित रखें| पर राजपूत को सदियों से यही सिखाया गया कि तुझे अपने घर परिवार की चिंता नहीं करनी, बस तुझे तो अपनी गर्दन कटवाकर दूसरों की रक्षा करनी है|

आज भी यही हो रहा है| जहाँ विरोधियों से लड़ने की बात आती है तो हिन्दुत्त्व व राष्ट्रवाद की रक्षा के नाम पर ये शक्तियां राजपूत युवाओं को आगे कर देती है और काम निकलने के बाद उन्हें पूछती तक नहीं| हाँ सत्ता में मुखौटे के तौर पर धर्म व राष्ट्रवाद रूपी अफीम के नशे में राजपूत से पार्टीपूत बन चुके कुछ राजपूत चेहरे रखे जाते हैं जिन्हें समाज हित से कोई लेना देना नहीं होता, वे सिर्फ राजपूतों को भ्रमित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं| इस तरह से देखा जाय तो “धर्म अफीम के नशे के समान है” कार्ल मार्क्स का यह डायलोग राजपूत समाज खासकर राजपूत युवाओं पर सटीक बैठता है|

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