जिस तरह से आज देश की सरकारें कट्टरपंथी साम्प्रदायिक तत्वों के निशाने पर रहती है, ठीक उसी तरह रियासतकाल में राजा भी इन कट्टरपंथी साम्प्रदायिक तत्वों के के निशाने पर रहते है| वह बात अलग है कि उस काल में हिन्दू राजा आज की तरह साम्प्रदायिक राजनीति व किसी समुदाय का तुष्टीकरण नहीं करते थे| पर आज की तरह उस काल हिन्दू मुस्लिम धर्मों के आधार पर साम्प्रदायिक तनाव व झगड़े नहीं बल्कि हिन्दुओं के ही विभिन्न मतों को मानने वाले मतावलम्बियों के एक दूसरे को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में झगड़े होते थे| ऐसा ही एक वाकया जयपुर में सन 1866 ई. में हुआ था| उस काल जयपुर में महाराजा सवाई रामसिंह जी का शासन था| इस वर्ष चार सम्प्रदायों में कटु और लम्बा विवाद हुआ| तत्कालीन महाराजा के प्रधानमंत्री रहे ठाकुर फतेहसिंह, नायला ने अपनी पुस्तक “ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर” में इस विवाद पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है|
ठाकुर फतेहसिंह जी के अनुसार हिन्दुओं में चार वैष्णव मत है| शास्त्रों के अनुसार पांच देवता माने गए है| ब्रह्म अथवा सर्व शक्तिमान विष्णु, शिव, शाक्त, गणेश और सूर्य| जिनकी बिना भेदभाव किसी की भी पूजा की जा सकती है| शास्त्रों के अनुसार भेदभाव करने वाला पापी है| पर यह चरों सम्प्रदाय एक दूसरे की आलोचना करते है और कई रीती रिवाज अपना लिए है जो शास्त्र सम्मत नहीं है| उदाहरण स्वरूप सम्प्रदाय का मुखिया विवाह नहीं करता है किन्तु किसी शिष्य को गोद ले लेता है जो उसके बाद सम्प्रदाय के गुरु का पद ग्रहण करता है| अब यदि गोद लिया हुआ शिष्य ब्राह्मण है तो शास्त्र उसे अपने शिष्य बनाने की अनुमति देते है| यह शिष्य ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शुद्र हो सकते है, किन्तु गोद लिया हुआ शिष्य जाट, गुर्जर है तो पवित्र नियमों के अनुसार वह गुरु नहीं हो सकता और फिर भी यदि ऐसा करता है तो पाप का भागीदार माना जाता है| यह स्थिति सभी सम्प्रदायों में है|
महाराजा ने विभिन्न सम्प्रदायों से इस सम्बन्ध में स्थिति स्पष्ट करने को कहा| इस स्थिति का स्पष्टीकरण करने की अपेक्षा उन लोगों ने महाराजा के खिलाफ विद्रोह के स्वर तेज कर दिए जिससे महाराजा लोकप्रिय नहीं रहे| महाराजा उनकी धमकियों से नहीं डरे| कुछ सम्प्रदायों के लोगों ने सदा के लिए जयपुर छोड़ दिया| कुछ जो यहाँ से चले गए थे, वापस आ गए और प्रायश्चित की सजा भुगतनी पड़ी|