क्या भारत में निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण न्याय संगत है ?

Gyan Darpan
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कुँवरानी निशा कँवर नरुका

कहने को तो भारत में लोकतंत्र है, किन्तु सही मायने में इसे लोकतंत्र नहीं बल्कि इसमें एक अनोखा "जाति तंत्र "पनपा है, जो न राष्ट्र के हित में है और न ही समाज के हित में| वैसे तो हर प्रकार का आरक्षण किसी भी आधार पर (चाहे जाति आधारित हो या आर्थिक आधार ) अनुचित ही है, किन्तु यहाँ इस आलेख में हमारा विषय निर्वाचन क्षेत्र के आरक्षण तक सिमित है। इसीलिए इस आलेख में हम इसी पर ध्यान देंगे। निर्वाचन क्षेत्रों को जाति अधार पर आरक्षित करना किसी भी स्थिति में प्राकृतिक न्यायसंमत नहीं कहा जा सकता। मै इसका विरोध इसलिए नहीं कर रही हूँ कि मै क्षत्राणी हूँ बल्कि इसलिए कर रही हूँ किसी भी निर्वाचन क्षेत्र को आरक्षित करना एक पूर्णतः गलत और अन्याय पूर्ण तरीका है।
कहने को तो संविधान ने समानता का अधिकार दिया है, किन्तु हमारे संविधान में हर जगह किन्तु,परन्तु और लेकिन की बैशाखी लगा दी गयी जिससे कोई भी अधिकार और कर्तव्य प्रसांगिक नहीं रह गया है| किसी क्षेत्र विशेष को एक जाति विशेष के लिए किन आधारों को मद्देनजर आरक्षित किया गया है यह मुझ जैसी साधारण महिला के आजतक समझ नहीं आ सका। क्योंकि जब आपके पास चुनने के लिए चंद व्यक्ति या एक जाति विशेष के ही लोग हो तो फिर आपके मत का सही उपयोग कहाँ और कैसे हुआ ? क्या आपका मत सिमित नहीं कर दिया गया ? जब किसी क्षेत्र की जनता का सहयोग और विशेष स्नेह आपके साथ हो तब भी कोई केवल संविधानिक रूप से उस क्षेत्र के प्रतिनिधित्त्व से आपको रोक दे तब न्याय कैसे हुआ ? कई नामी गिरामी राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले महानुभावों से मैंने इस जाति आधारित आरक्षित क्षेत्रों की कसौटी जानना चाही तो उनका मुख्यतः तर्क यह था--
"किसी क्षेत्र विशेष में समाज के कमजोर,पिछड़े तबके लोगों की जनसंख्या ज्यादा होने से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए उस क्षेत्र विशेष को अरक्षित किया गया है तकिवः उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्त्व कर सकें |"

आज के नेताओं और संविधान निर्माताओं की सोच कितनी मामूली थी, यह इस तर्क या यों कहिये कुतर्क से ही पता चल जाता है। यदि किसी क्षेत्र विशेष में समाज के कमजोर तबके की जनसंख्या ज्यादा होगी तो उस क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व उस तथाकथित कमजोर तबके द्वारा ही किया जाना चाहिए। जब किसी क्षेत्र विशेष में किसी एक तबके की जनसंख्या ज्यादा होगी तो वह उच्च जाति के उम्मीदवार के मुकाबले अधिकतम मत लेकर वैसे भी तो जीत जायेगा। और दूसरी बात प्रतिनिधित्व् केवल एक जाति विशेष द्वारा ही कराया जाये न कि योग्य व्यक्ति द्वारा! क्या योग्यता के लिए किसी व्यक्ति का किसी खास जाति में जन्म लेना जरुरी है ? या फिर संविधान निर्माताओं ने यह मान लिया था कि "कमजोर तबके की सेवा उच्च वर्णों में जन्म लिए लोगों द्वारा नहीं की जा सकती "चलो इसे थोड़ी देर के लिए सच मन भी लिया जाये तो फिर मुझे इस बात पर बड़ा आश्चर्य है कि संविधान सभा जिसने इस आदेश को पारित किया क्या उसमे बहुमत इस तथाकथित कमजोर तबके का था ? निश्चित रुप से इस के 2 ही उत्तर हो सकते है या तो बहुमत कमजोर तबके का रहा होगा या नहीं रहा होगा| यदि इस संविधान के पारित होने से पहले निर्मित संविधान सभा में जब से ही यदि कमजोर तबके का बहुमत था तो फिर इस प्रावधान की जरुरत ही क्यों पड़ी ? और यदि बहुमत नहीं था तब यदि संविधान सभा में बैठे उच्च वर्णों के लोग इस कमजोर तबके के बारे में इतने हितैषी हो सकते थे तब आज की पीढ़ी के उच्च वर्णों में पैदा हुए लोगो के बारे में उन्होंने यह धारणा कैसे बना ली कि कमजोर तबके का हित नहीं कर सकेगी ?
यह सर्वविदित है की संविधान सभा में बहुमत कमजोर तबके का नहीं था, तो जब संविधान सभा के अन्दर बैठे लोग इस कमजोर तबके के इतने हितैषी हो सकते है तो फिर आज भी उससे कई गुना ज्यादा इनके हितैषी उच्च वर्णों में जन्मे लोग ही है| मुझे नहीं लगता कि संविधान सभा के सदस्य कोई ईश्वर थे जो इतने अधिक भविष्य दृष्टा थे।

यह तो रहा एक पहलू अब दूसरा पहलू जो एक बार सांसद या विधायक बन गया क्या वह फिर भी कमजोर ही रहेगा, तो क्या वह पुनः आरक्षित चुनाव-क्षेत्र से लड़ने से वंचित किया जाता है ? और यदि नहीं तो फिर कमजोर तबके का प्रतिनिधित्व कमजोर से कहाँ हुआ? जो एक बार सांसद या विधायक बन गया क्या वह फिर भी वह शासक वर्ग का नहीं हुआ कमजोर ही माना जायेगा! मुझे कोई समझाए कि पूर्व राष्ट्रपति महामहिम को आप पद पर रहते हुए एक कमजोर नागरिक मानेंगे या भारत का प्रथम और सर्वशक्ति सम्पन्न नागरिक ? उनके पुत्रों और पुत्रियों को राज-पुत्र और राज-पुत्री से किस दृष्टि से कम समझा जा सकता है, जब वे किसी भी अरक्षित चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने के अधिकारी है, तो फिर एक सामान्य क्षत्रिय या अन्य उच्च जाति का व्यक्ति हरेक चुनाव क्षेत्र से क्यों नहीं लड़ सकता ? किसी भी संविधान द्वारा इस तरह की व्यवस्था एक जाति विशेष के लिए तुष्टिकरण का कार्य कर रही है। इसका किसी भी परिस्थिति में समर्थन जड़ता और मूढ़ता को मान्यता देना है।

नौकरी और पदोन्नति में आरक्षण का जिक्र तो हम अगले अंक में करेंगे पहले हमे यह समझाया जाये कि किसी निर्वाचन क्षेत्र को आरक्षित करना , उस निर्वाचन क्षेत्र में निवास करने वाली सम्पूर्ण जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ एवं अन्याय कैसे नहीं है ? यह उनके मताधिकार का मजाक क्यों किया जाता है ? उस क्षेत्र में निवास करने वाली हर जाति एवं वर्ग के लिए यह पूरी तरह अनुचित है ! वह इसलिए की जो उच्च जाति के है वह तो निर्वाचित होने से ही वंचित है, साथ ही जो निम्न या तथाकथित कमजोर तबके के लोग है, उन्हें भी इस बात का हमेशा ही खामियाजा भुगतान पड़ता है कि, जो प्रतिनिधि निर्वाचित होता है किसी भी प्रकार उच्च जाति के मतदाता उससे नाराज न हो। क्योंकि ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में तथाकथित कमजोर के मतों का बिखराव हो जाता है तथा उच्चजाति के मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते है।
केवल मात्र जनसंख्या के आधार पर किसी निर्वाचन क्षेत्र को आरक्षित किया गया है, यह तो और भी गलत है क्योंकि आज की परिस्थिति में एक ओर जब सरकार जनसंख्या को नियंत्रित करने की बात कर रही है और पूरी तरह युद्ध स्तर पर प्रयासरत है, फिर वहीँ दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि को भी बढ़ावा क्यों दिया जाये ? उच्च जाति को जैसे ही इस बात भान हो गया कि यदि हमारी जनसंख्या ज्यादा हो गई, तो यह निर्वाचन क्षेत्र सामान्य हो जायेगा। तो फिर केवल 5-6 वर्षो में ही वह अपनी जनसंख्या इतनी बढा लेगा कि ,सरकार का यह तर्क एक राष्ट्रीय समस्या को जन्म दे देगा। अतः इन कुतर्को में कोई दम नहीं है इसलिए सभी निर्वाचन क्षेत्रो को सामान्य कर देना चाहिए और प्रत्येक भारतीय नागरिक को प्रत्येक क्षेत्र से चुनाव लड़ने और प्रतिनिधित्व के स्वाभाविक अधिकार का शासन को आदर करना चाहिए ।ताकि प्राकृतिक न्याय और अवसर की समानता के अधिकार को सही मायने में क्रियान्वित किया जा सके। अब जब देश को स्वतन्त्र हुए 65 वर्ष और इस संविधान को 62 वर्ष हो चुके है तब भी कोई कमजोर तबका है तो वह जाति की वजह से नहीं बल्कि अशिक्षा,अज्ञान के कारण कमजोर है ।
इसी तरह के जाति पर आधारित आरक्षण के समर्थक एक और भी कुतर्क देते है कि "समाज का उच्च वर्ग कमजोर तबके को चुनाव लड़ने या जीतने का अवसर ही नहीं क्योंकि वह कमजोर वर्ग को वोट ही नहीं डालने देगा |"

यह भी तर्क नहीं कुतर्क है कि समाज का उच्च वर्ग इतना सक्षम है कि वह कमजोर तबके को चुनाव ही नहीं लड़ने देगा । इनकी सोच कितनी गन्दी है समाज के सामान्य वर्ग के प्रति ! आज जब राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक समाज का यह तथाकथित तबका एक से अधिक बार काबिज रह है और यह कुतर्क दे रहे है कि क्षत्रिय,ब्राह्मण और बनिया निम्न वर्ग को चुनाव ही नहीं लड़ने देगा, तो इन्हें यह भी मान लेना चाहिए यह उच्च वर्ग यदि 65 वर्षो तक लगातार पूर्वाग्रहों से आरोपित रहने के बाद भी यदि इतना सक्षम बचा है तब फिर वह आपके इन कमजोर तबके के राजनेताओं को भी भलीभांति अपनी मर्जी से इस्तेमाल कर सकता है । उदहारण के रूप में बयाना(राजस्थान) से 5 बार सांसद रहे श्री गंगाराम कोली ,राजस्थान में मंत्री रहे श्री मंगल राम कोली। इसलिए अब आपके यह कुतर्क कोई मायने नहीं रखते। चुनाव योग द्वारा व्यापक प्रबंध किये जाते है और फिर असामाजिक तत्व सभी जातियों एवं वर्गों में मिलते है यह आपको आपराधिक आंकडे स्वयं बता देंगे।मै तो क्या के इन कुतर्को से कोई भी स्वतन्त्र एवं सामान्य विवेक वाला व्यक्ति सहमत नहीं होसकता !इस लिए यह व्यवस्था घोर निंदनीय है तथा सभी विवेकशील लोगों को इसका ढोर विरोध करना चाहिए । शासन को संविधान के इस अन्यायपूर्ण अंश को तुरंत निकल देना चाहिए। इससे भारतीय नागरिको और विभिन्न जातियों में वैमनष्य फ़ैल रहा है। और भारत एक जातिय युद्ध की ओर अग्रसर हो रहा है । समाज को अगड़े और पिछड़े में बाँट कर उसमे आरक्षण का बिष बो कर नफरत ,और आपसी घृणा का फल "वोटो का ध्रुवीकरण" से राजनेता खाकर मंत्रमुग्ध है । आज सामाजिक भा,प्रेम,और आपसी सौहाद्र न जाने कहाँ खोगाया है ! ऊँची और नीची जातियों में बैर इस क़द्र बढ़ गया है कि लोग एक दुसरे को हे दृष्टि से देखने लगे है । इस तरह के वर्ग संघर्ष से जो नफरत की आग उठी है, उस आग पर राजनेताओं को अपनी रोटियाँ सेंकने का बड़ा अच्छा अवसर मिला है , सामाजिक एकता समाप्त हो गई है । अलग अलग जातियों के लोग सड़क पर रहते है, खूनी संघर्ष आये दिन होते रहते है, फिर भी व्यवस्थापकों की आंखे नहीं खुली ।

इस में अब महिला आरक्षण की भी मुहीम चल निकली है । मै स्वयं महिला हूँ और इसलिए महिला आरक्षण को महिलाओं की प्रतिष्ठा पर कुठाराघात मानती हूँ । आज जब महिला कई पुरुषो के मुकाबले में चुनाव जीत कर आ सकती है, तब महिला आरक्षण की क्या आवश्यकता आन पड़ी है ? ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रो में आज भी महिला प्रत्याशी को अपेक्षाकृत अधिक वोट और स्नेह मिलता है, तो फिर इस महिला आरक्षण की बैशाखी की किसे जरुरत आ पड़ी है ? फिर इस महिला आरक्षण का ढकोसला क्यों किया जरह है ? क्या श्रीमति इंदिरा गांधी, महामहिम प्रतिभा देवीसिंह ,श्रीमती सोनिया,श्रीमति सुषमा स्वराज,अभी तक कुमारी एक नहीं अनेक नाम वाली महिलाओ को क्या किसी महिला आरक्षण की बैशाखी की जरुरत पड़ी और यदि नहीं तो फिर माभी महिला आरक्षण की बात करना सिद्ध करता है कि या तो अब सांसदों के पास कोई सकारात्मक कार्य रह ही नहीं गया है और अपने निठल्लेपन को करने के लिए इस तरह के नए नए फिजूल मुद्दो को हवा देने का सुकर्म कर रहे है। या फिर भ्रष्टाचार,गरीबी,महँगाई ,आतंकवाद ,अलगाववाद, और असमानता जैसे असल मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने का सफल किन्तु कुत्सित प्रयास मात्र है ।

अतः भारत में संसदीय और विधायी या किसी निर्वाचन क्षेत्र का आरक्षण प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है ।
कुँवरानी निशा कँवर नरुका श्री क्षत्रिय वीर ज्योति
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  1. जब सभी को समानता का अधिकार,तो आरक्षण करना उचित नही,,,,,,,,

    MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,

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  2. लोकतन्‍त्र वही है जिसमे आरक्षण ना हो यहा तो नेताओ ने अपनी स्‍वार्थ पूर्ती के लिये लोकतन्‍त्र को आरक्षण का लबादा पहना रखा है ।


    विन्‍डो 8 इंस्‍टाल करे युनिक तकनीकी ब्‍लाग

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  3. sabko samanta ka adhikar keval dikhawa hai or ek majak bn kar rah gaya hai. Netao ne sanvidhan ka apne labh ke liye anuchit pyayog kiya hai.

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  4. मेरा विचार है की उच्च स्तरीय राजनीती में आरक्षण नहीं होना चाहिए‍‌‌‍‌‌, लेकिन ग्रामीण राजनीती में आरक्षण सही है क्योंकि नीची जातियों की गाँवों में स्तिथि वाकई खराब है ऊँची जाती वाले लोग इन गरीबो को चुनावो के वक्त रुपये-पैसे,शराब,इत्यादि का लालच देकर वोट ले लेते हैं, और चुनाव के बाद उन्हें कुछ नहीं मिलता.

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    1. यह भी तर्क नहीं कुतर्क है कि समाज का उच्च वर्ग इतना सक्षम है कि वह कमजोर तबके को चुनाव ही नहीं लड़ने देगा ।इनकी सोच कितनी गन्दी है समाज के सामान्य वर्ग के प्रति !आज जब राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक समाज का यह तथाकथित तबका एक से अधिक बार काबिज रह है और यह कुतर्क देरहे है कि क्षत्रिय,ब्रह्मिन और बनिया निम्न वर्ग को चुनाव ही नहीं लड़ने देगा ,तो इन्हें यह भी मान लेना चाहिए यह उच्च वर्ग यदि 65 वर्षो तक लगातार पूर्वाग्रहों से आरोपित रहने के बाद भी यदि इतना सक्षम बचा है तब फिर वह आपके इन कमजोर तबके के राजनेताओं को भी भलीभांति अपनी मर्जी से इस्तेमाल कर सकता है ।उदाहरन के रूप में बयाना(राजस्थान) से 5 बार सांसद रहे श्री गंगाराम कोली ,राजस्थान में मंत्री रहे ,श्री मंगल राम कोली ।इसलिए अब आपके यह कुतर्क कोई मायने नहीं रखते ।चुनाव योग द्वारा व्यापक प्रबंध किये जाते है और फिर असामाजिक तत्व सभी जातियों एवं वर्गों में मिलते है यह आपको आपराधिक आंकडे स्वयं बता देंगे।मै तो क्या के इन कुतर्को से कोई भी स्वतन्त्र एवं सामान्य विवेक वाला व्यक्ति सहमत नहीं होसकता ! yah isi alekh me likha hua hai hkm ,,,,,,is par apka dhyan nahi gaya shayad,,,,,,,,,,,,

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    2. तर्क वही है जो सत्य पर आधारित है! और मैंने अपने अनुभव से ये बात कही है, मैंने खूब गाँवों की राजनीति देखी है! किसी भी चुनाव को लड़ने के लिए पैसे चाहिए और गाँवों में निम्न जातियों की लोगो के पास कुछ भी नहीं है तो आरक्षण न हो तो ये लोग चयनित नहीं हो सकते! अब बताओ किसी जाट या राजपूत के सामने चमार खड़ा हो, और आरक्षण न हो तो वो कैसे जीत जाएगा? और मैंने आरक्षण का समर्थन सिर्फ ग्रामीण स्तरीय राजनीती में किया है क्यों की वहाँ इसकी जरूरत है! राज्य स्तरीय और राजनीती में उम्मीदवार सक्षम होते है उन्हें इसकी आवशयकता नहीं है!

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  5. बिलकुल सही कहा है आपने. वास्तव में आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं है. मैंने एक बार एक अधिकारी से प्रश्न किया की आप लोग आरक्षण के माध्यम से नौकरिया देते हो यदि आप बीमार हो और आपको मालूम हो की एक डॉ. आपके आरक्षण का लाभ लेकर डॉ. बना है और दूसरा अपनी योग्यता से तो आप किसके पर इलाज के लिए जायेगे???
    उनका मुंह देखने लायक था.
    वास्तव में आरक्षण के खिलाफ एक बड़े आन्दोलन के आवश्यकता है. एक शुरुआत होनी ही चाहिए.

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