पर एक समय था जब चुनाव प्रचार के लिए न तो गाडियां होती थी और न ही उम्मीदवारों के पास धन| फिर भी वे अपने सीमित साधनों के बल पर ही अपना चुनाव भली भाँती संपन्न कर लिया करते थे जबकि उस वक्त कई चुनाव क्षेत्रों का क्षेत्रफल आज से कहीं ज्यादा था फिर भी उम्मीदवार अपने सीमित साधनों से ज्यादा से ज्यादा जन-संपर्क कर लिया करते थे|
भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्व.श्री भैरोंसिंह जी ने १९५२ के चुनाव में दांतारामगढ़ विधानसभा क्षेत्र से सीमित साधनों व धन की कमी के बावजूद चुनाव जीतकर अपनी राजनैतिक यात्रा की शुरुआत की थी| इस चुनाव में उन्होंने गाड़ियों की जगह ऊंट पर सवारी कर अपने चुनाव प्रचार को अंजाम दिया था| पेश है स्व.पूर्व राष्ट्रपति के पहले चुनाव प्रचार की झलक उनके अभिन्न मित्र और राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार श्री सौभाग्यसिंह जी के शब्दों में -
चरा ऊंट नै चार,
झारौ कर दही रोटियाँ
चलै चुनाव प्रचार |
अपने चुनाव प्रचार के दौरान पूर्व राष्ट्रपति गांव भगतपुरा में रात्री विश्राम कर, सुबह दही के साथ बाजरे की रोटियां का नाश्ता कर चुनाव प्रचार को रवाना हुए|
ब्रह्म ज्ञान बिहार,
मिलै अचानक आय पथ
हुयौ ऊंट सवार |
भगतपुरा गांव से निकलने के बाद स्व.भैरोंसिंह जी को रास्ते में अचानक सिद्ध संत परमहंस आशानन्द जी मिले तो भैरोंसिंह जी ऊंट से उतर गए और संत को ऊंट पर बिठा दिया|
मन पुलकित हुसियार,
लार सोभागसीं,
चाल्यो देत टिचकार|
संत के ऊंट पर सवार होने बाद के बड़े ही पुलकित व हर्षित मन से पूर्व राष्ट्रपति ऊंट की मुहरी (रस्सी) पकड़ चलने लगे और उनके मित्र सौभाग्य सिंह पीछे से टीच टीच की आवाज कर ऊंट को हांकते चले|
सुण्यो सेठ बाजार,
आपै इज दौड़न लगै
चुनाव काम प्रचार|
इस तरह चलते हुए आगे शहर के बाजार में पहुँच संत ऊंट से उतरे और भरे बाजार में उन्होंने स्व.भैरोंसिंह जी को विजय होने का आशीर्वाद देते हुए उनकी विजय की भविष्यवाणी की, जिसे बाजार में सभी सेठों व लोगों सुना और सुनकर सभी अपने आप स्व.भैरोंसिंह जी को चुनाव में जिताने के लिए चुनाव प्रचार के कार्यों में जुट गए|
श्री सौभाग्य सिंह जी ने अपने मित्र पूर्व राष्ट्रपति स्व.भैरोंसिंह जी के पुरे जीवन को काव्य में संजोया है जो अभी अप्रकाशित है उपरोक्त कुछ दोहे उसी अप्रकाशित काव्य ग्रन्थ से लिए गए है|
बड़े ही रोचक ढंग से व्यक्त संस्मरण..
जवाब देंहटाएंइस तरह के पारंपरिक ढंग बहुत आकर्षित करते हैं।
जवाब देंहटाएंरोचक सस्मरण,बहुत सुंदर प्रस्तुति,....बहुत सुंदर प्रस्तुति,बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंwelcome to new post --काव्यान्जलि--यह कदंम का पेड़--
मैंने स्वयम १९७१-७२ में साइकल और पैदल १०-१५ km चलकर प्रचार किया है,...किन्तु आज का चुनाव में करोडो से ऊपर खर्च होता है,....
बहुत रोचक ढंग से व्यक्त संस्मरण,बड़ा अंतर आ गया.आज का चुनाव....?
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक ढंग से व्यक्त संस्मरण,बड़ा अंतर आ गया.आज का चुनाव....?
जवाब देंहटाएंमौजूदा दौर में चुनाव धन बल का हो गया है........
जवाब देंहटाएंरोचक झांकी.
जवाब देंहटाएंसंत महात्मा व् मंदिरों में गहरी आस्था थी बाबोसा की !प्रेरनादायी
जवाब देंहटाएंबहुत ही धुंधली स्म़ति है मुझे 1957 के चुनाव की। तब नेता और कार्यकर्ता बैलगाडियॉं उपयोग में लेते थे चुनाव प्रचार के लिए।
जवाब देंहटाएंजी हाँ!
जवाब देंहटाएंसही है!
बहुत अच्छी और सार्थक प्रस्तुति!
हाँ........................सही बात बताई
जवाब देंहटाएंऔर जो चुनाव में खड़े होते थे वो ईमानदार भी होते थे...........
बीमारी से शोहरत
सादगी,नेह,आदर भाव अब कहाँ परिलक्षित होते हैं,सुंदर संस्मरण .
जवाब देंहटाएंpadhkar bahut achchi lagi ye prastuti....aabhar
जवाब देंहटाएंमिश्री की डली ज़िंदगी हो चली
भैरू सिंह जी के बारे में रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकितनी सादगी होती थी उस जमाने में ... बहुत सुन्दर दोहों से संजोया है इस अनोखी चुनाव् यात्रा को ...
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