तन पर धोती कुरता और सिर पर साफा (पगड़ी) राजस्थान का मुख्य व पारम्परिक पहनावा होता था , एक जमाना था जब बुजुर्ग बिना साफे (पगड़ी) के नंगे सिर किसी व्यक्ति को अपने घर में घुसने की इजाजत तक नहीं देते थे आज भी जोधपुर के पूर्व महाराजा गज सिंह जी के जन्मदिन समारोह में बिना पगड़ी बांधे लोगों को समारोह में शामिल होने की इजाजत नहीं दी जाती | लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस पहनावे को पिछड़ेपन की निशानी मान नई पीढ़ी इस पारम्परिक पहनावे से धीरे धीरे दूर होती चली गई और इस पारम्परिक पहनावे की जगह पेंट शर्ट व पायजामे आदि ने ले ली | नतीजा गांवों में कुछ ही बुजुर्ग इस पहनावे में नजर आने लगे और नई पीढ़ी धोती व साफा (पगड़ी) बांधना भी भूल गई ( मैं भी उनमे से एक हूँ ) | शादी विवाहों के अवसर भी लोग शूट पहनने लगे हाँ शूट पहने कुछ लोगों के सिर पर साफा जरुर नजर आ जाता था लेकिन वो भी पूरी बारात में महज २०% लोगों के सिर पर ही |
लेकिन आज स्थितियां बदल रही है पिछले तीन चार वर्षों से शादी विवाहों जैसे समारोहों में इस पारम्परिक पहनावे के प्रति युवा पीढ़ी का झुकाव फिर दिखाई देने लगा है बेशक वे इसे फैशन के तौर पर ही ले रहें हों पर उनका इस पारम्परिक पहनावे के प्रति झुकाव शुभ संकेत है कम से कम इसी बहाने वे अपनी संस्कृति से रूबरू तो हो ही रहे है | लेकिन इस पारम्परिक पहनावे को अपनाने में नई पीढ़ी को एक ही समस्या आ रही थी कि वो धोती व साफा बांधना नहीं जानते इसलिए चाहकर भी बहुत से लोग इसे अपना नहीं पा रहे थे | नई पीढ़ी की इस रूचि को जोधपुर के कुछ वस्त्र विक्रताओं ने समझा और उन्होंने अपनी दुकानों पर बंधेज, लहरिया ,पचरंगा , गजशाही आदि विभिन्न डिजाइनों के बांधे बंधाये इस्तेमाल के लिए तैयार साफे उपलब्ध कराने लगे इन साफों में जोधपुर के ही शेर सिंह द्वारा बाँधा जाने वाला गोल साफा सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ आज शेर सिंह और उसके पारिवारिक सदस्यों की जोधपुर में बहुत सी दुकाने है जहाँ वे बांधे हुए साफे बेचते है | सूती कपडे में कल्प लगाकर बांधे इन साफों को यदि संभालकर रखा जाये तो चार पांच सालों तक आसानी से इन्हें खास समारोहों में इस्तेमाल किया जा सकता है |
लेकिन आज स्थितियां बदल रही है पिछले तीन चार वर्षों से शादी विवाहों जैसे समारोहों में इस पारम्परिक पहनावे के प्रति युवा पीढ़ी का झुकाव फिर दिखाई देने लगा है बेशक वे इसे फैशन के तौर पर ही ले रहें हों पर उनका इस पारम्परिक पहनावे के प्रति झुकाव शुभ संकेत है कम से कम इसी बहाने वे अपनी संस्कृति से रूबरू तो हो ही रहे है | लेकिन इस पारम्परिक पहनावे को अपनाने में नई पीढ़ी को एक ही समस्या आ रही थी कि वो धोती व साफा बांधना नहीं जानते इसलिए चाहकर भी बहुत से लोग इसे अपना नहीं पा रहे थे | नई पीढ़ी की इस रूचि को जोधपुर के कुछ वस्त्र विक्रताओं ने समझा और उन्होंने अपनी दुकानों पर बंधेज, लहरिया ,पचरंगा , गजशाही आदि विभिन्न डिजाइनों के बांधे बंधाये इस्तेमाल के लिए तैयार साफे उपलब्ध कराने लगे इन साफों में जोधपुर के ही शेर सिंह द्वारा बाँधा जाने वाला गोल साफा सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ आज शेर सिंह और उसके पारिवारिक सदस्यों की जोधपुर में बहुत सी दुकाने है जहाँ वे बांधे हुए साफे बेचते है | सूती कपडे में कल्प लगाकर बांधे इन साफों को यदि संभालकर रखा जाये तो चार पांच सालों तक आसानी से इन्हें खास समारोहों में इस्तेमाल किया जा सकता है |
बाजार में बँधे हुए साफों की उपलब्धता ने नई पीढ़ी की साफों की मांग तो पूरी कर दी लेकिन उन्हें धोती अपनाने में अभी भी दिक्कत महसूस हो रही थी क्योंकि धोती बाँधने की अपनी एक अलग कला होती है जो उन्हें नहीं आती इस बात को शेर सिंह व अन्य विक्रेताओं ने भांप कर साफे के साथ ही रेडीमेड धोती और कुरता बाजार में उतार दिया , उनके द्वारा बनाई गई यह रेडीमेड धोती पायजामे की तरह पहनकर आसानी अपनाई जा सकती है इस रेडीमेड धोती की उपलब्धता को भी नई पीढ़ी ने हाथो हाथ लिया जिसके परिणाम स्वरुप अब जोधपुर के अलावा राजस्थान के अन्य शहरों में भी ये रेडीमेड धोती कुरता और साफा कई दुकानों पर विक्रय के लिए उपलब्ध है |
शादी समारोहों में पहले बारातों में जहाँ साफे पहने बाराती मुश्किल से २०% नजर आते थे वहीं अब ८०% तक नजर आने लगे है | कुल मिलाकर राजस्थान का यह पारम्परिक पहनावा वापस फैशन में अपनी जगह बना रहा है |
शादी समारोहों में पहले बारातों में जहाँ साफे पहने बाराती मुश्किल से २०% नजर आते थे वहीं अब ८०% तक नजर आने लगे है | कुल मिलाकर राजस्थान का यह पारम्परिक पहनावा वापस फैशन में अपनी जगह बना रहा है |
धोती-जब्बा-पगड़ी
जवाब देंहटाएंमाथे पर तिलक और चोटी
गले में माला
राम-नाम का दुषाला
गायों को चराने के लिए
लूटेरों को डराने के लिए
हाथ में लठ
http://kavyakalash.blogspot.com/2010/03/blog-post_10.html
amrit 'wani'
ये बढिया जानकारी दी आपने. अभी तक हमारे यहां तो सिर्फ़ बच्चों के लिये ही ये उपलब्ध थे अब बडों के लिये भी उपलब्ध हैं तो निश्चित ही इस पहनावे को अपना लिया जायेगा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
रामराम...बढिया जानकारी...
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट अभी तक अधूरी है जब तक आप यहाँ पर धोती साफा बांधने वाले टुटोरियल विडियो यूं ट्यूब से लेकर नहीं लगा देते | जानकारी अच्छी लगी |एक बार एक दोस्त के पास रेडीमेड साफा देखा था उसको जब खोला गया तो वह अंदर से कटा फटा पुराना कपडा ही निकला यहाँ लोकल में तो इस प्रकार की धाँधली चलती है जोधपुर वालों के यहाँ क्या होता पता नहीं है |
जवाब देंहटाएंयही तो हमारा मूल भारतीय परिधान है -कभी कभी मेरा बहुत मन होता है पहनने का!
जवाब देंहटाएंपरम्परागत उत्सवों में पारम्परिक परिधानों का पहनना तो बनता है ।
जवाब देंहटाएंबेहद तरतीब और तरक़ीब से अपनी बात रखी है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बात कही,धन्यवाद
जवाब देंहटाएंये बढिया बात बताई दी जी आपने
जवाब देंहटाएंअब हम भी पहन कर देखेंगें
प्रणाम
मैं तो खुद भी पहनता हूं........
जवाब देंहटाएंनरेश जी
जवाब देंहटाएंजोधपुर जयपुर में मिलने वाले ये रेडीमेड साफे बिलकुल सही होते है मैं खुद पिछले सालों में बीसियों साफे खरीदकर ला चूका हूँ कभी कोई दिक्कत नहीं आई |
अच्छा तो है!
जवाब देंहटाएंखुशखबरी है!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसे 13.03.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
अच्छा लगा जान कर.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़कर. इस नई पीढ़ी को ethnicity के नाम पर ही बस, अपनी उन्नत परंपराओं से जोड़ा जा सकता है.
जवाब देंहटाएंउदयपुर में मेरा चपरासी था जो हमेशा चुस्त दुरुस्त और साफा पहने रहता था। मैने कभी उसे बिना साफा नहीं देखा। मेरे सामने वह रिटायर हुआ। उसका डिग्नीफाइड आचरण और उसकी गरिमा मैं भूल नहीं सकता।
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