जब कवि ने शौर्य दिखाया

Gyan Darpan
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जोधपुर के महाराजा मानसिंह का कव्यानुराग, विद्याप्रेम, कलाप्रियता, दानशीलता, गुणग्राहकता, गुरुभक्ति, स्वतान्त्र्यप्रेम के साथ शासक के तौर पर कठोर दंड व्यवस्था में निर्दयी दंडात्मक विधियाँ लोकमानस में आज भी जनश्रुतियों के रूप में काफी लोकप्रिय व प्रचलित है| उनके आचरण के दोनों रूप – पहला प्रतिकारी हिसंक रूप और दूसरा प्रशंसा और आभार प्रदर्शन का रूप “रीझ और खीझ” नाम से प्रसिद्ध है| “रीझ” मतलब खुश होना जिस पर प्रसन्न हो गए उनको आकाश में बिठा देना और “खीझ” मतलब नाराजगी, जिससे नाराज हो गए उसका अस्तित्व ही मिटा डालते| उनके इसी रीझ व खीझ वाले स्वभाव को एक चारण कवि मोतिया ने अपने काव्य में इस तरह अभिव्यक्त किया-

घाले अरि घाणे, पालण दालद पातवो |
न जलमें जोधाण में, मान जिसो नृप मोतिया ||


राजा मानसिंह की रीझ और खीझ का एक जन श्रुति में इससे बढ़िया क्या उदाहरण हो सकता है?:---

राजा मानसिंह की चारण कवियों पर बड़ी विशेष कृपा रहती थी, चारण कवियों पर वे दिल खोलकर अपना खजाना लुटाते थे एक बार अपने कृपापात्र कवि जोगीदास को उन्होंने फलोदी का हाकिम नियुक्त कर दिया| जोगीदास भी राजा की तरह दानी व उदार प्रवृति का था सो उसने राजस्व में वसूला सारा धन गरीबों, ब्राह्मणों व साधुओं में बाँट कर दान कर दिया| चूँकि राजा मानसिंह भी आर्थिक दृष्टि से संकट में ही रहते थे सो उन्होंने जोगीदास को राजस्व में वसूला धन भेजने का सन्देश भेजा| पर जोगीदास के पास धन हो तो भेजे !

सो उसने राजा को उत्तर भेजा कि - "आपका सारा धन दान कर मैंने अपनी दानशीलता, उदारता, धार्मिकता व दयालुता का परिचय तो दे दिया अब अपना शौर्य दिखाकर शौर्य का परिचय भी देना चाहता हूँ सो आप अपनी सेना भेज दीजिये|"
जोगीदास का ऐसा अहंकारी जबाब पाकर राजा ने उसे दण्डित करने के लिए अपनी सेना ले उस पर चढ़ाई कर दी| युद्ध भूमि में राजा के साथ दुसरे चारण कवि भी थे उन्हें देख जोगीदास ने उनसे चिल्लाकर जोर से कहा- “हे चारण कवियों ! राजा तो मेरे शत्रु हो गए अब ये मेरी कीर्ति नहीं होने देंगे पर आप अपना कवि धर्म निभाना और युद्ध भूमि में मेरे द्वारा वीरता पूर्वक दिखाये युद्ध कौशल व शौर्य को अपने काव्य द्वारा कीर्ति प्रदान करना|”

और जोगीदास युद्ध करता हुआ मारा गया|

राजा ने सभी चारण कवियों को आदेश दे दिया कि- "इसके युद्ध कौशल पर इसके यशोगान की कोई कवि कविताएँ नहीं बनायेगा| और यदि किसी ने बनाई तो उसे राज्य के खिलाफ द्रोह समझ दंडात्मक कार्यवाही की जायेगी|"

राजा की दंड देने में कठोर व निर्दयी नीति से सभी वाकिफ थे साथ ही ये भी जानते थे कि - राजा चारण कवियों की अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान भी करते है, सो युद्ध से आने के बाद राजा द्वारा बुलाई गयी कवि सभा में सभी चारण कवियों ने अपने कवि धर्म का पालन करते हुए कवि जोगीदास की दानशीलता, उदारता और युद्ध में दिखाए शौर्य के लिए बढ़ चढ़कर रचनाएँ बना प्रस्तुत कर दी और राजा के आदेशानुसार सभा से उठकर चलने लगे तो उनके पीछे पीछे राजा गए और दुर्ग के सूरजपोल द्वार पर जाकर सबको रोक लिया कहा-

“मैं जमीन पर लेट जाता हूँ जिसे जाना है वह मुझे अपने पैरों से कुचलता हुआ चला जाये |”

राजा द्वारा ऐसा सम्मान व स्नेह पाकर चारण कवि गदगद हो गए और रुक गए तब राजा ने इस पर एक दोहा कहा-

जोगो कणहिन जोग (पण), सह जोगो कीनो सकल |
लाठा चारण लोग, तारण कुल क्षत्रियां तणा ||


इस घटना से साफ जाहिर है कि राजपूत राजा भले कितने कठोर हो पर चारण कवियों की अभिव्यक्ति की आजादी का पूरा सम्मान करते थे| इसलिए लोगों का चारण कवियों पर ये आरोप सरासर झूंठ है कि वे राजाओं को खुश करने मात्र ही कविताएँ बनाया करते थे|

राजा द्वारा इस तरह झुक कर कवियों को रोकना कई लोगों को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इन कवियों द्वारा राज्याज्ञा का उलंघन करने उन्हें उचित दंड देने हेतु आग्रह किया तो राजा ने उन्हें इस तरह एक छप्पय सुनाकर जबाब दिया-

गिण पृथ्वी में गंध, पावन में जे सुपर्षण
शीतल रस जल साथ, अगन माहीं ज्यूँ ऊषण
सून माहीं ज्यूँ शबद, शबद में अर्थ हले स्वर
पिंड माहीं ज्यूँ प्राण, प्राण में ज्यूँ परमेश्वर
रग-रग ही रगत छायो रहे, देह विषय ज्यों दारणा
क्षत्रियां साथ नातो छतो, चोली दामन चारणा |

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8टिप्पणियाँ

  1. चारण कवि वस्तुस्थिति को समझ कर बेबाक छंद रचते थे ।कई जगह उन्होंने निरंकुश शासकों का बेखोफ बखान किया है ।

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  2. शासक तो निरंकुश ही होते है अंकुश में रहे तो राजा कैसा ?
    राजाओ की अपनी प्रतिभा होती है अपनी विचारधारा होती हो और शासन करने का तरीका होता है जिसमे भिन्नता जरुर होती है

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  3. चारण कवियों की बेबाकी इतिहास प्रसिद्ध है, बहुत बढिया प्रसंग, शुभकामनाएं.

    रामराम

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  4. लगता है राम और हनुमान सा रिश्ता था दोनों का ।

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  5. भाट-चारण परम्परा को लेकर कई जानकारियों का प्रवाह.

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  6. आपके इस आलेख को हमारे चचा सिब्बल को पढ़ाना चाहिए था कि उस जमाने में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान होता था।

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