स्वाभिमानी कवि का आत्म बलिदान

Gyan Darpan
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बादशाह औरंगजेब मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से बहुत ईर्ष्या रखता था |वह मेवाड़ पर आक्रमण हेतु हमेशा किसी न किसी बहाने की तलाश में रहता था | उन दिनों औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया था उसका एलान था कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या जजिया कर चुकाओ | महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब की इस हिन्दू धर्म विरोधी नीति का पुरजोर विरोध किया और इसके विरोध में औरंगजेब को पत्र भी लिखा |
औरंगजेब को तो मेवाड़ पर आक्रमण का बहाना चाहिए था सो अब इसी बहाने उसने अपनी फ़ौज के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी | युद्ध में शहर को उजड़ने देने के बजाय महाराणा राजसिंह ने राणा प्रताप की तरह पहाड़ों में मोर्चाबंदी कर गुरिल्ला युद्ध नीति का अनुसरण करते हुए उदयपुर शहर को खाली करने का निश्चय किया | जब सभी लोग उदयपुर शहर खाली कर रहे थे तब मेवाड़ के एक सरदार ने वहां उपस्थित कवि नरुजी बारहठ से मजाक किया -
" बारहठ जी आप तो महाराणा के पोळपात हो आप पोळ (दरवाजा)छोड़कर थोड़े ही जावोगे !"
बारहठ नरुजी राणा के महल के पोळपात थे,शादी ब्याह के हर अवसर पर वे पोळपात होने के नाते नेग में सिरोपाव आदि लेकर सम्मानित होते थे |राजपरिवार में जब कोई दूल्हा शादी के लिए आता तो पोळ पर तोरण मारने से पहले नेग में बारहठ जी को घोड़ा देते तत्पश्चात तोरण मार महल में प्रवेश करता |
तभी एक दुसरे ने मजाक में कहा -"बारहठ जी आप तो घोड़ा लेने ही पोळ पर खड़े रहते थे अब सिर कटवाने के समय खड़े रहोगे हो या नहीं ?"
चारण कवि बड़े स्वाभिमानी होते थे सो उस स्वाभिमानी कवि के हृदय में तो लोगों द्वारा मजाक में बोले शब्द तीर की भांति चुभ गए | वे बोले -
" पोळपात तो हूँ ही | पोळ छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा |"
तभी किसी ने हंसकर कहा - " हाँ बारहठ जी ! आप यहाँ से थोड़े ही जायेंगे | आपने इस पोळ पर तोरण के बहुत घोड़े लिए है | अब औरंगजेब के घोड़े आ रहे है देखते है उनमे से कितने लेंगे |"
बारहठ जी के कलेजे में मजाक के बोल शूल की तरह चुभ गए वे बोले- " अब तो सिर कटने पर ही पोळ छूटेगी |"
और बारहठ जी निश्चय कर लिया कि जिस पोळ में आजतक मुझे नेग दिए बिना किसी ने प्रवेश नहीं किया उस पोळ में मेरे रहते शत्रु कैसे आसानी से प्रवेश कर सकता है | अब तो मेरा सिर कटने के बाद ही शत्रु पोळ में प्रवेश कर पायेगा |
जब महाराणा राजसिंह जी को बारहठ जी के निश्चय का पता चला तो उन्होंने उन्हें बुलाकर अपने साथ चलने का आग्रह किया पर कवि ने मना करते हुए कहा- "हे पृथ्वीनाथ ! मैं आपका पोळपात हूँ और आखिरी दम तक आपकी पोळ पर रहूँगा |"
महाराणा ने कहा- " कविराज हम उदयपुर छोड़कर थोड़े ही जा रहे है शहर को बिना उजाड़े युद्ध करने की नीति का अनुसरण ही तो कर रहे है ,युद्धोपरांत वापस आ जायेंगे |"
महाराज ! आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना है ,मैं आपका पोळपात हूँ मुझे यहीं रहने की आज्ञा दीजिये मुझे अपनी पोळ से अलग मत कीजिये | यह मेरी पोळ है जिस पोळ पर हाथ पसारकर सम्मान में सिरोपाव लिए,तोरण के घोड़े लिए उस पोळ में मेरे रहते शत्रु के घोड़े कैसे प्रवेश कर सकते है यह मैं नहीं देख सकता | ये पोळ अब मेरी है मेरे बाप की है मैं तो इसी पोळ के आगे कट मरूँगा पर हटूंगा नहीं |"
सब चले गए पर कवि नरुजी के गांव से उनके पास आया एक गूजर किसान नहीं गया | नरुजी ने उससे भी गांव चले जाने को कहा पर उसने भी जाने से मना कर दिया |
" आप अच्छी बात कर रहे है बारहठ जी ! आप तो मरने के लिए तैयार है और मुझे गांव भेज रहे है | मैंने भी आपका थोड़ा नमक खाया है अत: जो आपके बीतेगी वो मेरे साथ भी बीतेगी |"
उधर बादशाह को खबर मिली कि महाराणा उदयपुर खाली कर पहाड़ों में मोर्चाबंदी कर बैठ गए है | पहाड़ों की लड़ाई के परिणाम बादशाह जानता था,अत: "इस्लाम की फतह" कह फ़ौज को वापस लौटने का हुक्म दे लौट गया |
ताजखां एक सैनिक टुकड़ी ले उदयपुर शहर को लुटने हेतु चांदपोल दरवाजे से शहर में दाखिल हुआ आगे बढ़ा तो देखा त्रिपोलिया पोळ पर कवि नरुजी बारहठ पगड़ी में तुलसी बाँध हाथ में तलवार ले अपने कुछ साथियों सहित घोड़े पर सवार है | दोनों पक्षों में लड़ाई हुई, सरस्वती का आराधक कवि और हल चलाने वाला किसान दोनों तलवार के जौहर दिखलाते हुए अपने साथियों सहित तब तक लड़े तब तक वे कट कर गिर नहीं गए | अपने जीते जी बारहठ जी ने शत्रु सैनिकों को पोळ में नहीं घुसने दिया |
आखिरी दम तक कवि कहता रहा -
अरि घोड़ो फेरण किम आवे
(म्हे) तोरण घोड़ो लियो तठे |

जिस पोळ पर मैंने नेग में तोरण के घोड़े लिए है,उस पोळ पर मेरे जीवित रहते शत्रु अपना घोड़ा कैसे फिर सकता है |

जहाँ बारहठ जी शहीद हुए वहां उनके वंशजों ने उनकी स्मृति में एक चबूतरा बना दिया पर कालांतर में उस चबूतरे की जगह एक कब्र ने ले ली |
काल की गति बहुत बलवान होती है | उनका स्मारक कब्र में तब्दील हो गया, पत्थर चूने से बने स्मारक तो बनते बिगड़ते रहते है पर मातृभूमि के बलिदान होने वाले वीरों की गाथाएँ दोहों,कविताओं,कहानियों व जन श्रुतियों में युगों युगों तक अमर रहती है | कवि नरुजी बारहठ की स्मृति भी आज गीतों व कहानियों में अमर है |

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12टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही ऐतिहासिक जानकारी देने के लिए आभार

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  2. क्या जमाना था. मुगल कूटनीतिज्ञ नहीं थे, होते तो निरपेक्षता का जाल फैलाकर सबको अपने में समेट लेते..

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  3. कितने जल्लाद और राक्षस थे ये मुगल लोग ?
    इन्होने अपने वहशीपने की सारी हदे तोड़ दी थी.

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  4. जानकारी से भरी स्वागत योग्य पोस्ट, ऐसे वलिदानी को नमन.....

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  5. ऎसे बलिदानी योद्धाओ को नमन, हमे भी इन से सीखना चाहिये कि मान ओर शान से जीने को ही जीना कहते हे... धन्यवाद

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  6. काश बारहठ जी जैसा एक मिशन हमें भी मिल जाये जिन्दगी का!

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  7. नमन ऐसे वीर शहीद को। आनन्द आ गया यह प्रसंग पढ़कर।

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