शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सिर काटकर दुर्ग में फेंक दिया

Gyan Darpan
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बिंधियो जा निज आण बस,
गज माथै बण मोड़ |
सुरग दुरग परवेस सथ,
निज तन फाटक तोड़ ||
अपनी आन की खातिर उस वीर ने दुर्ग का फाटक तोड़ने के लिए फाटक पर लगे शूलों से अपना सीना अड़ाकर हाथी से टक्कर दिलवा अपना शरीर शूलों से बिंधवा लेता है और वीर गति को प्राप्त होता है इस प्रकार वह वीर गति को प्राप्त होने के सथ ही अपने शरीर से फाटक तोड़ने में सफल हो दुर्ग व स्वर्ग में एक साथ प्रवेश करता है |

दलबल धावो बोलियौ,
अब लग फाटक सेस |
सिर फेंक्यो भड़ काट निज ,
पहलां दुर्ग प्रवेस ||
वीरों के दोनों दलों ने दुर्ग पर आक्रमण किया जब एक दल के सरदार को पता चला कि दूसरा दल अब फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश करने ही वाला है तो उसने अपना खुद का सिर काट कर दुर्ग में फेंक दिया ताकि वह उस प्रतिस्पर्धी दल से पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाये |

नजर न पूगी उण जगां,
पड्यो न गोलो आय |
पावां सूं पहली घणो,
सिर पडियो गढ़ जाय ||
जब वीरो के एक दल ने दुर्ग का फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया परन्तु जब उनकी दृष्टि किले में पड़ी तो देखा कि किले में उनके पैर व दृष्टि पड़ने पहले ही चुण्डावत सरदार का सिर वहां पड़ा है जबकि उस वीर के सिर से पहले प्रतिस्पर्धी दल का दागा तो कोई गोला भी दुर्ग में नहीं पहुंचा था |


सन्दर्भ कथा :-

मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना में ,विशेष पराक्रमी होने के कारण "चुण्डावत" खांप के वीरों को ही "हरावल"(युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था व वे उसे अपना अधिकार समझते थे | किन्तु "शक्तावत" खांप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे | उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ कि युद्ध क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए | अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमरसिंह के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि हम चुंडावतों से त्याग,बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है | अत: हरावल में रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए |
मृत्यु से पाणिग्रहण होने वाली इस अदभूत प्रतिस्पर्धा को देखकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए | किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाय ? इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की ,जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (जो कि बादशाह जहाँगीर के अधीन था और फतेहपुर का नबाब समस खां वहां का किलेदार था) पर प्रथक-प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही हरावल में रहने का अधिकार दिया जायेगा |

बस ! फिर क्या था ? प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया | शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुँच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वारों ने समीप ही दुर्ग की दीवार पर कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया | इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए तीक्षण शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया | यह देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत ,अदभूत बलिदान का उदहारण प्रस्तुत करते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे | एक बार तो महावत सहम गया ,किन्तु फिर "वीर बल्लू" के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालना करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके परिणामस्वरूप फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में बिंध गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया | किन्तु उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया |
दूसरी और चूंडावतों के सरदार जैतसिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुँचने की शर्त जितने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि "मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो | " साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया |

फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया ,उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था | इस प्रकार चूंडावतों ने अपना हरावल में रहने का अधिकार अदभूत बलिदान देकर कायम रखा |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील


हठीलो राजस्थान -7 |
बहुत काम की है ये रेगिस्तानी छिपकली -गोह
ताऊ डाट इन: ताऊ पहेली - 91

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14टिप्पणियाँ

  1. इतिहास आन पर मिट जाने वाली वीरगाथाओं से भरा पड़ा है ... वीरों कमी आज भी कम नहीं है ... लेकिन समय और परिस्थितियों ने वीरता को हतोत्साहित किया है ... ओजमयी पोस्ट के लिए आभार

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  2. धन्य है वे वीर जिन्होंने अपनी आन शान के लिए हंसते हंसते अपना बलिदान कर दिया

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

    देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

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  4. शक्‍तावत और चूण्‍डावत तो हमेशा से ही मेवाड़ के शक्तिशाली योद़धा रहे है और उनके बारे में तो किसी को भी लेश मात्र भी संशय नहीं होना चाहिए।

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  5. इन योद्धाओं की वीरता की कहानी गर्व से सीना चौड़ा कर देती है।

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  6. वीरों की यह अद्भुत कहानी बहुत पहले पढ़ी थी आज ताजा हो गयी ।

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  7. इतिहास की अनोखी बलिदानी कथा है | नमन है ऐसे वीरो को |

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  8. ऐसे वीरो को कोटि कोटि प्रणाम !!

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  9. ऐसे वीरो को कोटि कोटि प्रणाम !!

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  10. गीताप्रैस गोरखपुर की एक प्रेरक कहानियों वाली पुस्तक में बचपन में यह प्रसंग पढ़ा था। पुस्तक का नाम याद नहीं आ रहा।

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  11. राजपूतों के लिये यह कहा जाता है कि वह केवल राजकुल में ही पैदा हुआ होगा,इसलिये ही राजपूत नाम चला,लेकिन राजा के कुल मे तो कितने ही लोग और जातियां पैदा हुई है सभी को राजपूत कहा जाता,यह राजपूत शब्द राजकुल मे पैदा होने से नही बल्कि राजा जैसा बाना रखने और राजा जैसा धर्म "सर्व जन हिताय,सर्व जन सुखाय" का रखने से राजपूत शब्द की उत्पत्ति हुयी। राजपूत को तीन शब्दों में प्रयोग किया जाता है,पहला "राजपूत",दूसरा "क्षत्रिय"और तीसरा "ठाकुर",आज इन शब्दों की भ्रान्तियों के कारण यह राजपूत समाज कभी कभी बहुत ही संकट में पड जाता है। राजपूत कहलाने से आज की सरकार और देश के लोग यह समझ बैठते है कि यह जाति बहुत ऊंची है और इसे जितना हो सके नीचा दिखाया जाना चाहिये,नीचा दिखाने के लिये लोग संविधान का सहारा ले बैठे है,संविधान भी उन लोगों के द्वारा लिखा गया है जिन्हे राजपूत जाति से कभी पाला नही पडा,राजपूताने के किसी आदमी से अगर संविधान बनवाया जाता तो शायद यह छीछालेदर नही होती।

    खूंख्वार बनाने के लिये राजनीति और समाज जिम्मेदार है

    राजपूत कभी खूंख्वार नही था,उसे केवल रक्षा करनी आती थी,लेकिन समाज के तानो से और समाज की गिरती व्यवस्था को देखने के बाद राजपूत खूंख्वार होना शुरु हुआ है,राजपूत को अपशब्द पसंद नही है। वह कभी किसी भी प्रकार की दुर्वव्यवस्था को पसंद नही करता है।

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  12. राजपूतों के लिये यह कहा जाता है कि वह केवल राजकुल में ही पैदा हुआ होगा,इसलिये ही राजपूत नाम चला,लेकिन राजा के कुल मे तो कितने ही लोग और जातियां पैदा हुई है सभी को राजपूत कहा जाता,यह राजपूत शब्द राजकुल मे पैदा होने से नही बल्कि राजा जैसा बाना रखने और राजा जैसा धर्म "सर्व जन हिताय,सर्व जन सुखाय" का रखने से राजपूत शब्द की उत्पत्ति हुयी। राजपूत को तीन शब्दों में प्रयोग किया जाता है,पहला "राजपूत",दूसरा "क्षत्रिय"और तीसरा "ठाकुर",आज इन शब्दों की भ्रान्तियों के कारण यह राजपूत समाज कभी कभी बहुत ही संकट में पड जाता है। राजपूत कहलाने से आज की सरकार और देश के लोग यह समझ बैठते है कि यह जाति बहुत ऊंची है और इसे जितना हो सके नीचा दिखाया जाना चाहिये,नीचा दिखाने के लिये लोग संविधान का सहारा ले बैठे है,संविधान भी उन लोगों के द्वारा लिखा गया है जिन्हे राजपूत जाति से कभी पाला नही पडा,राजपूताने के किसी आदमी से अगर संविधान बनवाया जाता तो शायद यह छीछालेदर नही होती।

    खूंख्वार बनाने के लिये राजनीति और समाज जिम्मेदार है

    राजपूत कभी खूंख्वार नही था,उसे केवल रक्षा करनी आती थी,लेकिन समाज के तानो से और समाज की गिरती व्यवस्था को देखने के बाद राजपूत खूंख्वार होना शुरु हुआ है,राजपूत को अपशब्द पसंद नही है। वह कभी किसी भी प्रकार की दुर्वव्यवस्था को पसंद नही करता है।

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