सोशियल साइट्स पर अक्सर चर्चा होती है कि चौहान अग्निवंशी है सूर्यवंशी? इतिहासकारों के अनुसार “जब वैदिक धर्म ब्राह्मणों के नियंत्रण में आ गया और पंडावाद बढ़ गया तब बुद्ध ने इसके विरुद्ध बगावत कर नया बौद्ध धर्म चलाया तब लगभग क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म त्यागकर बौद्ध धर्मी बन गया| बौद्ध धर्म के बढ़ने पर बौद्धों और ब्राह्मणों में संघर्ष हुआ, जिसमें बौद्ध भारी पड़ने लगे क्योंकि ब्राह्मणों की रक्षा करने वाले ज्यादातर क्षत्रिय बौद्ध बन चुके थे| अत: ब्राह्मणों के सामने वैदिक धर्म की रक्षा की जटिल समस्या खड़ी हो गई| इस समस्या से निजात पाने व वैदिक धर्म की पुन: स्थापना के लिए ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने अपने अथक प्रयासों से चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धर्म में दीक्षित करने हेतु राजी कर लिया गया और कुमारिल भट्ट द्वारा ई.७०० वि. ७५७ आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया| ये प्राचीन सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी ही थे|
बौद्ध धर्म अपना चुके क्षत्रियों का वापस धर्म परिवर्तन करने व वैदिक धर्म में दीक्षित करने हेतु यज्ञ कर शुद्धिकरण करने को क्षत्रियों को यज्ञ के अग्निकुंड से उत्पन्न माना जाने की मान्यता प्रचलित हो गयी और धीरे धीरे कहानियां बन गई कि – क्षत्रिय आबू पर्वत पर अग्निकुंड से पैदा हुए थे और इन्हीं कहानियों को आधार मानकर पृथ्वीराजरासो में इन चार कुलों को अग्नि से पैदा होना मानकर अग्निवंशी लिख दिया| जबकि रासो की लोकप्रियता के पहले और यज्ञ के बाद भी चौहान अपने आपको सूर्यवंशी ही लिखते थे| लेकिन पृथ्वीराजरासो की लोकप्रियता बढ़ने के बाद चौहानों सहित ये चार कुल अपने आपको अग्निवंशी लिखने लग गए| अब यह देखना आवश्यक है कि वि.सं.की 16 वीं शताब्दी के पूर्व चौहान आदि राजवंशी अपने को अग्निवंशी मानते थे अथवा नहीं-
राजस्थान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा "राजपूताने का प्राचीन इतिहास में लिखते है- "वि.सं. 813 (ई.सं. 756) से लगाकर वि.सं. 1600 (ई.सं. 1543) तक के चौहानों के बहुत से शिलालेख, दानपत्र तथा ऐतिहासिक संस्कृत पुस्तक मिली है, जिनमें से किसी में उनका अग्निवंशी होना नहीं लिखा। ‘पृथ्वीराजविजय' में जगह-जगह उनको सूर्यवंशी बतलाया है-
कलावषि प्राप्य सचाहमानतां प्ररूढतुर्यप्रवरंवभूव ततः ||२ ||७१ |
-भानो प्रतापोन्नति ।
तन्वन्गोत्रगुरोर्निजेन नृपतेर्जज्ञे सुतो जन्मना ॥७॥५० ॥
सुतोप्यपरगाङ्गेयो निन्येस्य रविसूनुना ।
उन्नति रविवंशस्य पृथ्वीराजेन पश्यता ।।८।।५४ |- पृथ्वीराजविजयमहाकाव्य'
तस्मात्समालंव (ब) नदंडयोनिरभूज्जनस्य स्खलतः स्वमाग्र्गे ।
वंशः स दैवोढरसी नृपाणमनुदगतैनोघुणकीटरंध्रः ॥३४ ||
समुत्थितोकांदनरण्योनिरुत्पन्नपुन्नागिकदंव (ब) शाख:
आश्चर्यमंत:प्रसरत्कुशीयं वंशोर्थिनां श्रीफलतां प्रयाति ||३५ ॥
आधिव्याधिकुवृतदुर्गतिपरित्यक्तप्रजास्तत्र ते ।
सप्तद्वीपभुजो नृपाः समभवन्निक्ष्वाकुरामादयः ॥३६ ।।
तस्मिन्नथारिविजयेन विराजमानो राजानुरजितजनोजनि चाहमानः - I३७ ॥
शक सं. 500 (वि.सं. 635 = ई.स. 578) से लगकर वि.सं. की 16 वीं शताब्दी तक सोलंकियों के अनेक दानपत्र, शिलालेख तथा कई ऐतिहासिक संस्कृत ग्रंथ मिले, जिनमें कहीं उनका अग्निवंशी होना नहीं लिखा, किन्तु उसके विरुद्ध उनका चंद्रवंशी और पांडवों की संतान होना जगह-जगह बतलाया है।
वि.सं. 872 (ई.सं. 815) से लगाकर वि.सं. की 14 वीं शताब्दी के पीछे तक प्रतिहारों (पड़िहारों) के जितने शिलालेख, दान-पत्रादि मिले उनमें कहीं भी उनका अग्निवंशी होना नहीं माना। वि.सं.900 (ई.स. 843) के आसपास की ग्वालियर से मिली हुई प्रतिहार राजा भोजदेव की बड़ी प्रशस्ति में प्रतिहारों को सूर्यवंशी बतलाया है। ऐसे ही वि.सं.की दसवीं शताब्दी के मध्य में होने वाले प्रसिद्ध कवि राजशेखर ने अपने नाटकों में अपने शिष्य महेन्द्रपाल (निर्भयनरेन्द्र) को, जो उक्त भोजदेव का पुत्र था, "रघुकुलतिलक' कहा है।
ऊपर उद्धृत किये हुए प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि चौहान, सोलंकी और प्रतिहार पहले अपने को अग्निवंशी नहीं मानते थे, केवल 'पृथ्वीराजरासा' बनने के पीछे उसी के आधार पर वे अपने को अग्निवंशी कहने लग गये हैं।
अब रहे परमार। मालवे के परमार राजा भुज (वाक्पतिराज, अमोघवर्ष) के समय अर्थात् वि.सं. १०२८ से १०५४ (ई.सं. ९७१ से ९९७) के आसपास होने वाले उसके दरबार के पंडित इलायुध ने 'पिंगलसूत्रवृत्ति' में मुंज को 'ब्रह्मक्षत्र" कुल का कहा है। ब्रह्मक्षत्र शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में उन राजवंशों के लिए होता रहा,जिनमें ब्रह्मत्व और क्षत्रत्व दोनों गुण विद्यमान हों|
सकलसुकृतैकपुञ्जः श्रीमान्मुञ्जश्चिरं जयति । ‘पिंगलसूत्रवृत्ति' ।"