राजर्षि रणसीजी तंवर

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Rajrishi Ransi ji Tanwar History in Hindi, Rajrishi Ransiji Mandir, Naraina


नरेना रेल्वे स्टेशन से कस्बे को जो सड़क आती है उस पर सड़क से करीब एक किमी दूरी पर रणसीजी का मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर पर प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला द्वितीया को एक विशाल मेले का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के गाँवों के हजारों लोग आते हैं। मेला प्रतिवर्ष धूमधाम से लगता है। इस मन्दिर का पुजारी हमेशा से बलाई समाज का कोई व्यक्ति रहता आया है। इस मन्दिर के स्वामी पीर जी कहलाते हैं, जो नरेना गाँव में स्थित पीर जी की हवेली में रहते हैं। राजऋषि रणसीजी जिनके नाम पर यह मंदिर बना है वे नरेना के राजा थे। उन्होंने अपने नाम पर रणसीपुरा बसाया था, इसी में रणसी जी की हवेली है। इसी हवेली में पीर जी रहते हैं। यह रणसीपुरा अब नरेना कस्बे में मिल गया है व मीणों का मोहल्ला कहलाता है| यहाँ के पीर जी अपने आपको अलख नामी बताते हैं जिसका किसी सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये एक चरण के अर्थात् ब्रह्म के उपासक हैं।


तंवर वंशीय राजऋषि रणसीजी नरेना के राजा थे| उनका जन्म संवत 1273 व देहान्त 1307 में हुआ था| उनके देहांत समय दिल्ली पर शमसुद्दीन इल्तुतमिश के पोते नसीरूद्दीन महमूद (संवत 1303-1323) का शासन था जो 16 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा था| इसका मंत्री बलवन ही सारा राजकार्य चलाता था|

नरेना के राजा रणसीजी तंवर अजमेर के राजा अजयपाल चौहान के शिष्य थे| इतिहासकारों ने अजमेर के इस चौहान राजा के अलग-अलग नाम दिए हैं यथा हर्ष के शिलालेख में अजयदेव, पृथ्वीराज महाकाव्य में अजयराज, प्रबन्धकोश आल्हणदेव, हम्मीर महाकाव्य में आल्हणदेव, सुरजन चरित्र में अनलदे राजपूताना गजेटियर में अजयपाल, चौहान-कुल-कल्पद्रुम में अजयपाल, सम्र पृथ्वीराज चौहान-लेखक देवीसिंह मण्डावा ने अजयराज व अजयदेव नाम दि हैं। इतिहासकारों के अनुसार इसने लगभग सन् 1110 ये 1135 (वि.सं. 1167 से 1192) तक राज्य किया। ये बड़े प्रतापी राजा हुए। अजयपाल अपने पुत्र आनाजी (अणोंराज) को राज्य देकर पुष्कर के पहाड़ों में तपस्या करने के लिए चले गए। ये बड़े तपस्वी हुए।

अजयपाल जी भराणा व बिचून के बीच पहाड़ों में किसी स्थान पर तपस्या करते थे। यहीं पर रणसीजी, अजयपाल जी के शिष्य बने। इन्हीं पहाड़ों में एक अन्य सन्त भी तपस्या करते थे, जिनका नाम बलाई समाज के लोग समष ऋषि बताते हैं। इस सन्त का एक बणजारा कृपापात्र था। दूदू निवासी खिंवण बलाई भी इनकी सेवा करता था। इस बणजारे के पशु नरेना क्षेत्र के कृषकों की खेती को नुकसान पहुँचाते थे। रणसीजी उस समय नरेना क्षेत्र के राजा थे अत: कृषकों ने बणजारे की शिकायत की। इस बणजारे की सन्त के पास शिकायत करने रणसीजी पहुँचे। उस समय बिणजारा, अजयपालजी व खिंवणजी भी वहीं मौजूद थे। रणसीजी की शिकायत पर जब सन्त ने कोई ध्यान नहीं दिया तो रणसीजी को क्रोध आ गया| खिंवणजी ने भी रणसीजी की बात का समर्थन किया। रणसीजी ने उन सन्त से कहा कि आपकी इस पर कृपा नहीं होती तो मैं इसे चीर कर फैंक देता। तब सन्त ने कहा कि तुम दोनों (रणसीजी और खिंवण जी) भी एक रोज चीरे जाओगे। अजयपाल जी के अनुरोध पर सन्त ने कहा कि मेरा कहा हुआ सत्य होगा, लेकिन इससे इनका यश बढ़ेगा।

कालान्तर में रणसीजी की ख्याति फैल गई। ईश्वर भक्ति करने से वे एक सन्त के रूप में माने जाने लगे | इसी बीच में नरेना निवासी करमा खाती ने बादशाह के पास उसके लोगों के द्वारा यह शिकायत पहुँचाई कि रणसीजी डकैती करते है व बादशाह की खिलाफत करते है। जबकि रणसीजी एक संत थे न कि डकैत। इस शिकायत पर बादशाह ने अपने सैनिकों को रणसीजी को पकड़ने के लिए भेजा, लेकिन वे सैनिक रणसीजी की हवेली में घुस नहीं सके। उनके हाथ पैर अकड़ गए, अत: वे रणसीजी को गिरफ्तार नहीं कर सके। वे वापस बादशाह के पास पहुँचे। यह सूचना जब बादशाह के पास पहुँची तो उसने रणसीजी के लिए बुलावा भेजा लेकिन वे बादशाह के पास नहीं गए। इस पर बादशाह ने कई सन्तों को कैद कर लिया और कहा कि रणसीजी जी आएँगे तो इन्हें छोड़ दूंगा वरना इन्हें मरवा दूँगा। अपनी जनता के अनुरोध पर रणसीजी खिंवणजी के साथ बादशाह के पास पहुँचे। बादशाह ने संतों को जेल से मुक्त कर दिया और रणसीजी से कहा कि या तो तुम मुझे खुदा के दर्शन कराओ या कोई चमत्कार दिखाओ। इस पर रणसीजी ने चमत्कार दिखाने के लिए अथवा भगवान के दर्शन कराने के लिए मना कर दिया। तब बादशाह ने कहा तुम्हें इस्लाम कबूल करना पड़ेगा। अन्यथा मैं तुम्हें चिरवा दूँगा। तब रणसीजी ने कहा कि तू हमें क्या चिरवाएगा यह कहकर रणसीजी व खिंवणजी (खेमणजी) ने नीम के पेड़ से पते सहित एक सींख तोड़ी व उसको अपने सिर से लेकर धड़ तक ले गए। इसके साथ ही उन दोनों के शरीरों की दो फाड़ हो गई। उनके शरीर में से खून के स्थान पर दूध व फूल निकले।

नगर नारायण सूं रिणसी पधारिया, खिवड़े आगळ आणी।
पानां फूलों रां करोत झेलिया, दूधां री नदी हलाणी।

दोनों के शरीरों की एक-एक फाड़ (हिस्सा) आकाश में उड़ गई और दूसरी फाड़ वहीं रह गई। जो फाड़ें आसमान में उड़ी थी वे नरेना में जहाँ जाकर गिरी वहीं, रणसी जी व खिंवण जी की समाधियाँ बनी हुई हैं। रणसीजी के दिल्ची में बलिदान के सम्बन्ध में यह विख्यात है :-

दिलड़ी कोई मत जावज्यो, दिलड़ी ओघट घट्ट।
दिल्ली गया न बाहुडया, रणसी सिरसा भट्ट।

रणसीजी के बड़े पुत्र अजमाल जी ने रणसी जी के आधे शरीर को समाधि दी और उसके बगल में ही खिवणजी को भी समाधि दी। इसके बाद उन्होंने नरेणा को त्याग देने का निश्चय किया और अपने भाइयों व परिवारजनों के साथ मारवाड़ की ओर चल दिए। क्योंकि नरेणा अब उनके लिए सुरक्षित क्षेत्र नहीं था। यहाँ एक तरफ साँभर व दूसरी तरफ अजमेर मुसलमानों के केन्द्र बन चुके थे। ये लोग हिन्दूओं पर अत्याचार करते रहते थे। अजमालजी के मारवाड़ की तरफ चले जाने के बाद बादशाह की बेगम क्षमा याचना के लिए नरेना आई व खिंवणजी के पुत्र को मन्दिर बनवाने के लिए धन दिया। मन्दिर खिंवणजी के पुत्र ने बनवाया। बाद में दूदू में खिंवण जी का अलग मन्दिर बनवाया। बादशाह ने दोनों मन्दिरों के लिए 192 बीघा जमीन दी। पीर जी के साथ लवाज़मा जाएगा यह भी आदेश दिया गया। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह जी के काल में दोनों मन्दिरों के बीच कोई विवाद हुआ होगा उस सम्बन्ध में फैसले से सम्बन्धित एक पत्र हैं जिससे उपर्युक्त विवरण की पुष्टि होती है।

आश्चर्य की बात यह है कि नरेणा गद्दी के पीर की नियुक्ति किसी परम्परा से नहीं होती है। गद्दी खाली होने के बाद में कुछ ही समय में रणसी जी महाराज ही किसी व्यक्ति को प्रेरित करके भेजते हैं। और गाँव वाले उसे ही पीर मनोनीत कर देते हैं।

पीरजी प्रेमदासजी के अनुसार वे चुरू जिले के लाडनू के पास स्थित झलमल गाँव के निवासी गौड़ राजपूत थे। वे लाडनू के अस्पताल में कर्मचारी थे, उस समय उनकी उम्र 30 वर्ष थी व अविवाहित थे। उनको आवाज सुनाई देने लगी कि तुझे घर छोड़कर चलना है। कुछ रोज बाद एक दिन आवाज आई कि अभी चलना है घर छोड़कर। उसी आवाज के आदेशानुसार वे चलते हुए चार पाँच दिन बाद में नरेना के रणसीजी के मन्दिर में पहुँचे। भूखे-प्यासे रात को सौ गए, सुबह उठे तो वहाँ लोग जमा थे। उन्होंने बताया कि मैं देख रहा था लेकिन मुझे पीछे की कोई बात याद न थी व न ही वहाँ जो कुछ हो रहा था वह समझ रहा था। थोड़ी देर बाद लोगों ने मुझे चादर उढ़ाई व जय बोली तब मुझे होश आया व पीछे की घटनाएँ याद आई।

अभी तक इस गद्दी पर माली, कुम्हार, राजपूत आदि कई जातियों के लोग बैठे हैं और सभी अविवाहित रहे हैं। पीरजी की हवेली में महिलाओं का प्रवेश वर्जित हैं। पुस्तक लिखे जाने तक पीर प्रेमदासजी का स्वर्गवास हुए छ: माह हो चुके हैं किन्तु गद्दी अभी तक खाली है। रणसीजी पर डकैत होने का आरोप लगाया गया वह ठीक नहीं है। वे एक छोटे से क्षेत्र के राजा थे। अजयपाल जी के शिष्य बन जाने के बाद ईश्वर भति में लीन रहने लगे। वे अपने समय के माने हुए सन्त हो गए। वे सनातन धर्म की रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हुए।

छाजूसिंह बड़नगर द्वारा लिखित पुस्तक "महान संत राजऋषि तंवर रणसीजी" साभार

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