राजपूतों की वीरता, शौर्य और इतिहास को लेकर आजादी के बाद सरकारी नीतियों की बैसाखी के दम पर आगे बढ़ी जातियों के कुछ युवा आजकल सोशियल मीडिया में प्रश्न उठाते है कि राजपूत इतने वीर थे तो हारे क्यों ? राजपूतों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित, कुंठित इन तत्वों को यह पता नहीं कि राजपूतों ने कितने वर्षों तक बाहरी आक्रमणकारियों से संघर्ष किया, कितने बलिदान दिए| बस उन्होंने तो राजपूतों की वर्तमान पीढ़ी को नीचा दिखाने व अपनी जलन प्रदर्शित करने से मतलब है| ऐसे सवाल करके देश की गुलामी का आरोप राजपूतों पर लगाने वालों से अक्सर मैं पूछता हूँ कि- मान लिया राजपूत इतने बलिदानों के बाद भी अपना दायित्त्व नहीं निभा सके, पर आपके पूर्वज उस समय अपनी ऐसी-तैसी कहाँ करवा रहे थे? वे दुश्मन से क्यों नहीं लड़े ?
इसका उनके पास तो कोई उत्तर नहीं होता पर “दिल्ली सल्तनत” नामक इतिहास पुस्तक में इतिहासकार डा. गणेशप्रसाद बरनवाल ने इसका शानदार व कटु सत्य उत्तर लिखा है| वे उस समय के भारतीयों की मन:स्थिति “कोउ नृप होइ हमैं का हानि” होना लिखते हैं| मतलब उस समय आम जनता की मानसिक सोच थी कि राजा कोई भी हो, हमें क्या ? हमें तो अपना काम करना है और कर चुकाना है| भारतीयों की इसी मन:स्थिति व शून्य राजनैतिक चेतना के भाव ने इस देश में विदेशी सत्ता को स्थापित होने में योगदान दिया| अंग्रेजों ने प्लासी का पहला युद्ध जीता, जब उसके सैनिक जीतकर शहर में घुसे तो यहाँ की जनता ने उनका स्वागत किया| बस उसी दिन अंग्रेज समझ गए कि यहाँ की जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन राजा हो और जनता के इसी स्वागत ने देश में अंग्रेजी सत्ता की नींव डाली में अहम् भूमिका अदा की|
बलवन, अलाउद्दीन खिलजी जैसे शक्तिशाली बादशाहों के काल में विद्रोहियों, बागियों, बाहरी आक्रमणकारियों का दिल्ली के पास तक पहुँचने का जिक्र करते हुए डा. गणेशप्रसाद लिखते हैं- “अपने कथित दोषों के बावजूद राजपूतों ने कितने दिनों तक रणथम्भोर, चितौड़ आदि को तुर्कों के अधीन रहने दिया ? देश का सैनिक सेवाओं के प्रति राजपूतों पर निर्भरता पर लिखते हुए विद्वान लेखक ने लिखा है कि- “ब्राह्मण-क्षत्रिय के अतिरिक्त पिछड़े वर्ग को भी राजनीति में भाग लेने का अथवा अपनी भूमिका निभाने का अवसर था| सैनिक सेवा किसी वर्ण, उप वर्ण के लिए प्रतिबंधित थी, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता|” लेखक की बात को देश में अहीर, जाट, मीणा, गोंड व अन्य जातियों के राज्य होना साबित करता है कि सैनिक सेवा का भार सिर्फ क्षत्रियों पर नहीं था, जब अन्य जातियों का भी शासन था, वे राजा थे, तो फिर हार का ठीकरा राजपूतों के सिर पर ही क्यों ?
डा. गणेशप्रसाद लिखते है कि- “राष्ट्रीय संकट की घड़ी में रूढ़ वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भारत के बुद्धिजीवी ब्राह्मण, वैश्य और कथित शुद्र समुदाय अपनी अधिक सक्रीय भूमिका से संघर्षरत राजपूतों का मनोबल बढ़ा सकते थे, जिसकी बहुत बड़ी आवश्यकता ऐसे समय में बनी रहती है| ऐसा करके वे राजनीतिक चेतनाशीलता का परिचय देते|” पर उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसने मन में एक भी भाव था- “कोउ नृप होइ हमैं का हानि”| पर अपने पूर्वजों के इस भाव पर मंथन करने के बजाय राजपूत इतिहास पर प्रश्न ही उठाते है| जो सिर्फ उनके मन में राजपूत इतिहास के प्रति जलन ही प्रदर्शित करते हैं|