यदि राजपूत मुस्लिम युद्ध साम्प्रदायिक होते तो क्या ये संभव था ?

Gyan Darpan
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इस देश में मुस्लिम आक्रान्ताओं के साथ जितने युद्ध राजपूतों ने लड़े उतने शायद दुनिया की किसी जाति ने नहीं लड़े| मुस्लिम बादशाहों के आक्रमणों का सबसे ज्यादा सामना लम्बे समय तक राजपूतों को करना पड़ा| इन युद्धों में राजपूतों ने एक से बढ़कर एक बलिदान दिए| जौहर और साकों के बाद कई राजपरिवारों के वंशज तक नहीं बचे| आज इन युद्धों के इतिहास का वर्तमान राजनैतिक व साम्प्रदायिक सोच के आधार पर विश्लेषण और व्याख्याएँ की जा रही है| मुस्लिम शासकों के साथ संधियाँ करने वाले राजाओं को निशाना बनाया जा रहा है| हर युद्ध का वर्णन साम्प्रदायिक उन्माद बढाने के लिए किया जा रहा है| वर्तमान इतिहास लेखन को पढ़कर मन में प्रश्न उठता है कि क्या वे युद्ध वाकई धार्मिक आधार पर लड़े गए थे ? क्या उनकी पृष्ठभूमि साम्प्रदायिक थी| इतिहास पढ़ते हैं तो जबाब मिलता है नहीं!

हाँ ! इतिहास में राजपूतों ने जितने भी युद्ध लड़े उनके पीछे साम्प्रदायिकता कतई नहीं थे| ये सभी युद्ध स्वतंत्रता व स्वाभिमान के लिए लड़े गए थे| इतिहास के जानकर लोग इस विषय पर कहते हैं – “इस देश के राजाओं की सोच कभी साम्प्रदायिक नहीं रही| यदि मेवाड़ की भी बात करें तो किसी भी महाराणा की सोच साम्प्रदायिक नहीं थी| मेवाड़ की प्रजा को किसी भी धर्म को अपनाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी| मेवाड़ के सभी महाराणाओं ने अपने जीवन काल में जितने युद्ध लड़े वे स्वाभिमान, स्वतंत्रता और राजनैतिक कारणों से लड़े, उनपर साम्प्रदायिकता की छाया किसी भी रूप में नहीं थी| आज भी मेवाड़ का पूर्व राजपरिवार सर्वधर्म समभाव के प्रति प्रतिबद्ध नजर आता है| “

यदि इस तथ्य को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखें तब भी यह सच है| महाराणा कुम्भा ने मांडू के सत्ताच्युत बादशाह उमरखान को ना केवल शरण दी, बल्कि उसकी सहायता के लिए मांडू पर आक्रमण भी किया था| पितामह भीष्म के समान राज्य का त्याग करने वाले रावत चुंडा के मन में साम्प्रदायिकता होती तो प्रतिज्ञा के बाद चितौड़ छोड़ने के बाद वे मांडू के सुल्तान होशंग शाह के पास नहीं किसी हिन्दू राजा के पास जाते| यदि हल्दीघाटी युद्ध साम्प्रदायिक होता तो अकबर की सेना का सेनापति मानसिंह नहीं होता और मेवाड़ की ओर से अग्रिम दस्ते में हकीम खां सूर नहीं होता| आपको बता दें मेवाड़ में आज भी मेवाड़ की स्वतंत्रता व स्वाभिमान के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाले हकीम खां सूर का उतना ही सम्मान है जितना अन्य योद्धाओं का| यदि उस समय के सभी शासकों की सोच साम्प्रदायिक होती तो मेवाड़ की महारानी कर्मवती हुमायूँ को राखी भेजकर उसे भाई का सम्मान नहीं देती| अकबर का जन्म अमरकोट के राजपूत राजा के महलों में हुआ, जहाँ हुमायूँ अपने बुरे दिनों में शरण लिए हुए था, क्या साम्प्रदायिकता के माहौल में ऐसा संभव था?

यह उस वक्त के साम्प्रदायिक सौहार्द का ही कमाल था कि रणथम्भोर दुर्ग का इतिहास प्रसिद्ध जौहर और साका हम्मीरदेव चौहान द्वारा अल्लाउद्दीन खिलजी के विद्रोही मुसलमानों को शरण देने के कारण हुआ| हम्मीरदेव ने खिलजी के विद्रोही मुहमदशाह मंगोल को शरण थी, उसी के कारण खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया और मुस्लिम शरणार्थी को बचाने के चक्कर में रणथम्भौर से चौहान राज्य की नींव उखड़ गई| यदि आज जैसी धार्मिक सोच होती तो क्या यह संभव हो सकता था? चितौड़ पर अकबर ने हमला किया और जयमल मेड़तिया के नेतृत्व में हजारों हिन्दू महिलाओं ने जौहर की ज्वाला में अग्नि स्नान किया और हजारों राजपूत योद्धाओं ने साका कर अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, क्यों ? सिर्फ अकबर के एक बागी मुस्लिम सेनापति सर्फुद्दीन को जयमल द्वारा शरण देने और जयमल को महाराणा उदयसिंहजी द्वारा चितौड़ में रखने के कारण|

इस तरह के उदाहरणों की इतिहास में लम्बी श्रृंखला है जो साम्प्रदायिक सोच का खंडन करती है और साबित करती है कि भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द लम्बे समय तक था| पर अफ़सोस आज हर ऐतिहासिक घटना व हर बात को साम्प्रदायिक आधार पर सोचा जाता है, जो देश के सामाजिक ढांचे, एकता, सुरक्षा और संस्कृति के लिए घातक है|

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