हठीलो राजस्थान-42

Gyan Darpan
0

राहू डसियां नह छिपै, छिपै न बादल ओट |
झीणी रज पड़दै छिपै, दिनकर करमां खोट ||२५०||

राहू के ग्रसने पर भी जो पूरी तरह नहीं छिपता और न ही बादलों की ओट में छिपता है | वही सूर्य झिनी गर्द के आवरण में छिप जाता है | इसे सूर्य के कर्मों का दोष ही कहा जा सकता है |

रजकण चढ़ आकास में, सूरज तेज नसाय |
धावो झेलै वीर गण, सामां पैरा जाय ||२५१||

मिटटी के कण जब आकाश में चढ़कर धावा बोलते है तो सूर्य के तेज को भी नष्ट कर देते है , लेकिन शूरवीर अपने शत्रु के आक्रमण को सफलता पूर्वक झेल लेते है |

आंधी चढ़ आकास में, रजकण कित ले जाय |
देवण खात पड़ोस धर, सूर उठै निपजाय ||२५२||

यह आंधी आकाश में चढ़कर धुल कणों को कहाँ ले जा रही है | शायद पडौसी प्रदेशों को, जहाँ की धरती शूरवीरों को उत्पन्न करने में कमजोर है,ताकि ये रजकण यहाँ की खाद का काम करें व वहां की धरती भी शूरवीर उत्पन्न करने में समर्थ हो |

बालै झालै दिवसड़ो, संध्या घणी सुहाय |
आंधी ढोलण बींजणों, बांदी सी झट आय ||२५३||

यहाँ दिन यधपि जलता रहता है और झुलसा देता है किन्तु संध्या बड़ी सुहानी होती है | आंधी ,दासी की भांति पंखा झलने के लिए झट चली आती है |

काली कांठल उमड़तां, उतर दिसा आकास |
करसां उमडै कोड मन, तिरसां नूतन आस ||२५४||

उतर दिशा से काली घटा उमड़ती देख किसानों का मन हर्षित हो रहा है तथा प्यास बुझाने की नई आशा जाग उठी है |

जावै क्यों न बादली, उण धरती, उण राह |
पलक बिछावै पांवडा, घर घर थारी चाह ||२५५||

हे बादली ! उस धरती और उस राह पर तूं क्यों नहीं जाती , जहाँ लोग तुन्हारे लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते है तथा घर घर में तुम्हारी चाह होती है |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)