बेबाक अभिव्यक्ति के धनी कवि करणीदान कविया

Gyan Darpan
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नरेश जयसिंह व जोधपुर के महाराजा अभय सिंह तीर्थ यात्रा पर पुष्कर पधारे थे, दोनों राजा पुष्कर मिले और अपना सामूहिक दरबार सजाया, दरबार में पुष्कर में उपस्थित दोनों के राज्यों के अलावा राजस्थान के अन्य राज्यों से तीर्थ यात्रा पर आये सामंतगण शामिल थे, दरबार में कई चारण कवि, ब्राह्मण आदि भी उपस्थित थे, दोनों राजाओं के चारण कवि अपने अपने राजा की प्रशंसा में कविताएँ, दोहे, सौरठे सुना रहे थे, तभी वहां एक कवि पहुंचे जो निर्भीकता से अपनी बात कहने के लिए जाने जाते थे| महाराजा अभयसिंह जी ने कवि का स्वागत करते कहा – बारहठ जी ! पवित्र पुष्कर राज जैसे तीर्थ स्थल पर हम दोनों राजा आपसे एक ऐसी कविता सुनने को उत्सुक है जो अक्षरश: सत्य हो और एक ही छंद में हम दोनों का नाम भी हो|

जोधपुर महाराजा का आशय था कि एक ही छंद में दोनों राजाओं की प्रशंसा हो पर जब निर्भीक कवि ने अपनी ओजस्वी वाणी में दोनों राजवंशों के सत्य कृत्य पर छंद सुनाया तो दोनों नरेशों की मर्यादा तार तार हो गयी-


पत जैपर जोधांण पत, दोनों थाप उथाप|
कुरम मारयो डीकरो, कमधज मारयो बाप ||


(छंद में कुरम शब्द जयपुर राजवंश के कुशवाह वंश व कमधज जोधपुर राजघराने के राठौड़ वंश के लिए प्रयुक्त किया गया है)
इस दोहे को सुनते ही जयपुर नरेश जयसिंह जी ने तो बात को हंसकर टाल दिया पर जोधपुर नरेश कवि की बेबाक अभिव्यक्ति सून बुरा मान गये और उनका हाथ सीधा तलवार की मुठ पर गया| अपने गुस्से पर काबू करते हुए जोधपुर महाराजा ने कवि को तुरंत वहां से चले जाने का कहते हुये कहा- “बारहठ जी आपकी जगह कोई और होता तो उसका सिर काट डालता अत: आप यहाँ से तुरंत खिसक लीजिये और मुझे दुबारा कभी मुंह ना दिखाना|”

कवि ने प्रत्युतर दिया कि- “यदि मुझमे गुण होंगे तो आप खुद मुझे बुलाकर मेरा मुंह देखेंगे|”

इस तरह एक चारण कवि ने जिनके लिए अक्सर कुछ लेखक चापलूस, राजाओं की प्रशंसा मात्र करने वाले कवि होने का आरोप लगाते है ने सिद्ध कर दिया कि चारण कवि कभी भी सत्य बात कहने से नहीं चुकते थे| वे बेबाक होते थे, राजपूत राजा भी चारण कवियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा आदर करते थे|

जोधपुर के महाराजा अभयसिंह का गुजरात के सूबेदार सरबुलंदखां से अहमदाबाद में युद्ध हुआ और जोधपुर की सेना ने अप्रतिम बहादुरी दिखाते हुए सूबेदार को परास्त कर दिया, उपरोक्त बेबाक कवि भी उस युद्ध में योद्धा की तरह शामिल थे उन्होंने देखा सूबेदार कायर की भांति युद्ध से विमुख हो रहा है तो उसे अपनी ओजस्वी वाणी से एक कविता सुना कायर सूबेदार के हृदय में साहस का संचार कर युद्ध भूमि में ला खड़ा किया| इस युद्ध का कवि ने अपनी अनुपम कृति “सूरजप्रकास” में सांगोपांग वर्णन किया है| कवि की यह कृति राजस्थानी भाषा में महाकाव्य की अनुपम कृति है|

कवि की इस कृति के बारे में जब जोधपुर महाराजा अभयसिंह को पता चला तो उन्होंने कवि को बुलाकर युद्ध वर्णन सुनाने के लिए कहा| कवि ने एक कनात लगवाई और उसके एक तरफ राजा बैठे, दूसरी तरफ कवि ने बैठकर युद्ध का वर्णन काव्य में सुनाया| कनात इसलिए लगाई ताकि मुंह ना दिखाने की राजा की आज्ञा का पालन हो सके| कवि के मुंह से युद्ध वर्णन सून राजा उछल पड़े और कनात के दूसरी और आकर कवि को गले लगा लिया और पुरस्कृत किया|

इस तरह कवि ने अपना कहा कि- “मुझमे गुण होंगे तो आप मेरा मुंह जरुर देखेंगे|” सत्य कर दिखाया|

जानते है ये बेबाक व ओजस्वी कवि कौन थे ?

जी हाँ ! मैं बात कर रहा हूँ १६८५ ई. के आस पास आमेर राज्य के एक गांव डोगरी के चारणों की कविया शाखा के विजयराम चारण की पत्नी इतियाबाई के गर्भ से जन्में कवि करणीदान कविया की| कहते है डोगरी गांव के निकट ही पहाड़ी की एक कन्दरा में एक साधू रहते थे एक दिन उनके सेवक की घोड़ी मर गयी जो सेवक को अपने प्राणों से भी प्रिय थी| उसका दुःख दूर करने हेतु साधू उसे ले डोगरी के ठाकुर के घर आया आया और ठाकुर से एक घोड़ी अपने सेवक के लिए मांगी परन्तु ठाकुर ने घोड़ी के लिए मना कर दिया| इस बात से नाराज हो साधू ने ठाकुर को श्राप दिया कि उसके सभी घोड़े घोड़ियाँ मर जायेंगे| करणीदान पास खड़े खड़े ये सब सून रहे थे, वे झट से वहां से जाते हुए साधू के पीछे हो लिए और आगे जाकर हाथ जोड़तेहुए कहा- महात्मा आपके सेवक के लिए मैं अपनी घोड़ी भेंट करता हूँ|

महात्मा ने खुश होते हुए आशीर्वाद दिया और कहा- “जा बच्चा ! आज से तूं खूब फलेगा फूलेगा| इसी समय यह गांव छोड़कर कहीं चला जा तुझे आज ही तेरी ही घोड़ी के रंग वाला घोड़ा भी मिल जायेगा|”

महात्मा की बात सून करणीदान घोड़ी उनके सेवक को दे खुद भेंसे पर बैठकर गांव छोड़ चल पड़े| रास्ते में आने वाले एक गांव के ठाकुर ने उनका भैंसे पर बैठे भैरव रूप देख टोका और अपना घोड़ा भेंट कर दिया जिसका रंग उसी घोड़ी जैसा था जो वे भेंट कर आये थे| भेंट में मिले घोड़े पर बैठ वे चलते चलते खंगारोत राजपूतों के ठिकाने आये जहाँ तत्कालीन ठाकुर सुल्तानसिंह ने उनकी काव्य प्रतिभा परख आवभगत की, रथ घोड़े व नौकर चाकर दे सम्मानित किया| यही से उनके जीवन ने नवदिशा प्राप्त की|यही से राजस्थान में उनकी काव्य प्रतिभा का संचरण हुआ और वे उतरोतर यश व उपहार पाते गए|

१७०० ई. के आस पास करणीदान आमेर आ गए, जहाँ उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, डिंगल-पिंगल, ज्योतिष, संगीत, वेदांत आदि के अध्ययन के साथ योग सीखा| आमेर के बाद करणीदान शाहपुरा गए, वहां से डूंगरपुर नरेश शिवसिंह के पास आये, दोनों जगह इन्हें काव्य रचना पर लाखपसाव तक पुरस्कार मिले| उदयपुर के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय और जगत सिंह की इन पर विशेष कृपा थी| जोधपुर महाराजा अभयसिंह के अनुरोध पर करणीदान जोधपुर आ गए, जहाँ आपने अपनी काव्य प्रतिभा के साथ अपनी तलवार का जौहर दिखाते हुए अपनी शूरवीरता का भी परिचय दिया|

कवि करणीदान कविया का अंतिम समय किशनगढ़ में व्यतीत हुआ और यही इनकी १७८० ई. के आस पास जीवन लीला समाप्त हुई| जहाँ इनकी याद में एक छतरी बनी हुई है|

कवि करणीदान के लिखे चार ग्रंथ उपलब्ध होते है- सूरजप्रकास, विरदसिंणगार, यतीरासा और अभयभूषण| इनका लिखा ७५०० छंदों वाला सूरजप्रकास वृहद् ग्रंथ है जिसके कुछ अंश “बंगाल रायल एशियाटिक सोसायटी” ने छापें है| राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ने भी सीताराम लालस द्वारा सम्पादित इस ग्रंथ को चार भागों में प्रकाशित किया है|

करणीदान के अप्रकाशित ग्रंथ “यतीरासा” के बारे में कहा जाता है कि एक बार किशनगढ़ के राजा बिडदसिंह ने काठियावाड़ में विवाह करने का विचार किया, उस वक्त वहां यतियों का पाखंड चरम पर था| उसी के मध्यनजर उनकी रानियों के आग्रह पर कवि ने यह ग्रंथ लिखा था जिसमें जैन श्रावकों का भंडाफोड़ किया गया था, जातिप्रथा की कठोर भर्त्सना करते हुए कवि ने अपने ग्रंथ में वाह्यचारों की धज्जियां उड़ाई थी| जैन यतियों के कुकर्मों को उजागर करते हुए उनकी निंदा करने वाले इस ग्रंथ को पढने के बाद बिडदसिंह ने विवाह का विचार भी त्याग दिया था| आखिर एक जैन यती ने आकर उनकी निंदा करने वाले इस ग्रंथ का प्रसार न करने का कवि से आग्रह किया| कवि ने भी उन्हें सांत्वना देते हुए इस ग्रंथ को प्रकाश में ना लाने की प्रतिज्ञा की व वचन दिया|


नोट: लेख में सभी ऐतिहासिक तथ्य ड़ा.मोहनलाल जिज्ञासु द्वारा लिखित पुस्तक “चारण साहित्य का इतिहास” नामक पुस्तक से लिए गए है| ड़ा. मोहनलाल जिज्ञासु का इतने सटीक ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध कराने हेतु हार्दिक आभार|

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13टिप्पणियाँ

  1. प्रभावी !!!
    हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल परिवार की ओर से नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    --
    सादर...!
    ललित चाहार

    हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल पर आज की चर्चा : इक नई दुनिया बनानी है अभी -- हिन्दी ब्लागर्स चौपाल चर्चा : अंक 018

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  2. यह लेख दस्तावेज बन रहे हैं भविष्य के, आभार आपका . . .

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  3. उस वक़्त कवि ही अखबार और ईमेल हुआ करते थे।

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  4. कवि लूण न लूण कह,और खांड न खांड ।
    लल्लो -चप्पो नीं करे, दिख सो दे मांड ॥

    कवि की लेखनी हमेशा से ही बेबाक और निर्भीक हुयी है ।वह किसी की प्रशंशा करने के लिए बाध्य नहीं होता |

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  5. बहुत सुंदर संग्रहणीय जानकारी !
    नवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें-

    RECENT POST : पाँच दोहे,

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार - 07/10/2013 को
    अब देश में न आना तुम गाधी
    - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः31
    पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra


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  7. बहुत ख़ूब! नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं

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  8. बेहतरीन आलेख, हार्दिक शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  9. बेहतरीन वर्णन किया है आपने, आपके ऐतिहासिक लेख मुझे हमेशा प्रभावित करते हैं। धन्यवाद।।

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  10. woow nice yr
    sahi mayne me us tym me kavi hi sab kuch hote the.... great

    jai mata di

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  11. शब्दों में तेज और मन में निर्भयता, ऐसा कवि दुर्लभ है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

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  12. कवि की लेखनी हमेशा से ही बेबाक और निर्भीक

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  13. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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