समाज में पुरुष सत्ता : हकीकत कुछ और !

Gyan Darpan
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भारतीय समाज में पुरुष प्रधानता शुरू से नारीवादियों के निशाने पर रही है| इस कड़ी में आजकल सोशियल साईटस पर कुछ प्रगतिशील नारीवाद समर्थक पुरुष और कुछ अपने आपको पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, नौकरी करने, अकेले रहने, आजाद ख्यालों वाली, बिंदास पाश्चात्य जिंदगी जीने वाली नारी होने का दावा करने वाली नारियां जो रानी लक्ष्मीबाई, इंदिरागाँधी आदि नारियों को अपना आदर्श न मान फूलन देवी को अपना असली आदर्श मानती है, दिन भर पुरुषों को कोसती, गरियाती रहती है| यदि उनके नजरिये से देखा जाय तो पुरुषों ने नारियों का जीवन नारकीय बना रखा है, किसी भी परिवार में सिर्फ और सिर्फ पुरुष की सत्ता चलती है, नारी तो बेचारी अपने पति के घर में बिना वेतन की नौकरानी मात्र है|

ये आधुनिकाएँ और इनके दिल में जगह बनाने की चाहत लिए कुछ आधुनिक युवक भी इनका समर्थन करते हुए पुरुष सत्ता या उनके शब्दों में पितृसत्ता को उखाड़ने का नारा बुलंद करते देखे जा सकते है| अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करने की आजादी के साथ आजकल सोशियल साईटस रूपी औजार आसानी से उपलब्ध है जिस पर पुरुष सत्ता को गरियाने का फैशन व होड़ सी चल रही है|

पर यदि हम अपने आस-पास के परिवारों में पुरुष सत्ता पर नजर डालें तो ऐसे घर बहुत कम मिलेंगे जहाँ पुरुष नारियों को अपने पाँव की जूती समझते है मतलब किसी भी निर्णय में वे न तो परिवार की स्त्रियों को पूछना जरुरी समझते है ना उनकी बताई सलाह मानते है साथ ही वे अपनी पत्नियों को छोटी छोटी बातों पर प्रताड़ित भी करते है |

लेकिन इसके साथ ही ऐसे परिवारों के उलट इतने ही कुछ परिवार आपको अपने पडौस में ऐसे भी मिलेंगे जहाँ बेशक परिवार की स्त्री घरेलु कामकाजी महिला हो पर उसके आगे उसके पति, ससुर आदि किसी पुरुष की नहीं चलती बेशक वह नारी आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर भी ना हो| पर परिवार में उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत घर के किसी पुरुष में नहीं होती| वह भी अपने परिवार के पुरुषो का उत्पीड़न करने में कहीं पीछे नहीं रहती|
अपने ४७ वर्ष के जीवन में ऐसे मैंने कई उदाहरण देखे है और देखने को सतत मिल भी रहे है| ऐसे ही एक बार एक पत्नी पीड़ित मित्र ने पत्नी द्वारा उत्पीड़न की बात पर चर्चा करते हुए कहा- “ये पत्नी वाली लाटरी जीवन में एक ही बार खुलती है सही खुल गयी तो जीवन सफल नहीं तो जीवनभर ऐसा दर्द मिलता है जिसे किसी के आगे अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते|”
कारण भी साफ़ है विचारों की भिन्नता वाले जीवन साथी को समाज छोड़ने की कतई अनुमति नहीं देता और कानून की शरण लो तो पुरुष को इतना भारी पड़ने की गुंजाइश दिखती है कि उसके बारे में सोचकर ही पुरुष कांप उठता है और परिस्थियों से समझौता करने में ही अपनी भलाई समझते हुई उस रिश्ते को ढोता रहता है|

इन दोनों श्रेणियों के परिवारों जिनकी संख्या कम ही होती है इनके विपरीत ज्यादातर परिवार ऐसे मिलेंगे जहाँ नर- नारी आपसी समझ, सलाह मशविरा कर अपने घर के निर्णय लेते है और सुखी रहते है| इनमें भी कुछ ऐसे स्पष्टवादी व्यक्ति भी होते है जो घर के बाहर स्पष्ट रूप से स्वीकारते है कि उनके निर्णय बिना गृह स्वामिनी के सहमती के नहीं होते| पर ज्यादातर व्यक्ति बाहर अपनी थोथी धोंस ज़माने के लिए झूंठे अपनी मूंछों पर ताव देते देखे जा सकते कि- “उनके निर्णय सिर्फ उनके होते है|” पर हकीकत कुछ और होती है, वे पहले ही चुपचाप किसी भी मामले में गृह स्वामिनी से सलाह मशविरा कर उसकी सहमती प्राप्त कर लेते है| ऐसे लोगों की ये आदत उनके घर की महिलाएं भी जानती है पर वे भी बाहर पुरुष सत्ता दिखाने में अपने घर के पुरुष का साथ दे देती है| और इसी स्थिति ने समाज को पुरुष प्रधान का चौगा पहना पुरुष प्रधान समाज घोषित कर रखा है और बाहर लोगों को लगता है कि पुरुष प्रधान समाज में पुरुष की ही निरंकुश सत्ता चलती है|

शहरों में गांवों की तरह सामूहिक मामले में निर्णय लेने के अवसर कम ही होते है पर गांवों में अक्सर पंचायत या गांव के किसी सार्वजनिक कार्य के लिए किसी सामूहिक निर्णय पर पुरुषों को निर्णय करना पड़ता है ऐसे मामलों में अक्सर बड़े बुजुर्गों को आपस में मजाक करते देखा जा सकता है कि- "पंचायत में मूंछों पर ताव देकर हामी भरदी पर घर से सहमती ली या नहीं?
कई बार रिश्ते आदि तय करते हुए भी बाहर मर्द आपस में सहमत होने के बाद कहते सुने जाते है - घर में जाकर विचार-विमर्श कर आईये फिर आगे बात बढाते है|"
ऐसे उदाहरण साफ़ करते है कि- समाज बेशक पुरुष प्रधान दिखता हो पर हकीकत कुछ और ही है|

पुरुष प्रधान समाज में पितृसत्ता के खिलाफ अभियान चलाने वाले समाज के अन्य परिवारों की बजाय यदि अपने परिवारों में झाँक कर देखे तो उन्हें पुरुष सत्ता की असलियत पता चल जायेगी| हाँ ! सब कुछ जानते बुझते यदि कोई अपनी नेतागिरी चमकाने, प्रसिद्धि पाने या चर्चा में रहने के लिए पितृसत्ता को गरियाते रहे तो बात अलग है|

आज पितृसत्ता (पुरुष सत्ता) को गरियाने की बजाय जो लोग पत्नियों को पैर की जूती समझते है या परिवार की नारी की अहमियत नहीं समझते उन्हें शिक्षित, जागरूक कर नारी के महत्व के बारे में समझाने की जरुरत है| क्योंकि दोनों एक दुसरे के पूरक है, एक दुसरे के बिना अधूरे है, नारी का अपमान पुरुष का अपमान है फिर चाहे अपमान कोई बाहरी व्यक्ति करे या घर का कोई व्यक्ति करें| जरुरत नर और नारी को एक दुसरे से नीचा दिखाने की नहीं, दोनों के बीच आपसी समझदारी वाले तालमेल की जरुरत है, इसी तालमेल से वैवाहिक जीवन सफल होता, परिवार सफल होते है और परिवार सफल व सुखी होंगे तो पूरा समाज और देश सुखी होगा|

ऐसा कौन बेटा होगा जो परिवार में अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अपनी माँ का अनादर करेगा ? ऐसा कौनसा पोत्र होगा जो अपनी दादी का आदर नहीं करता हो ? ऐसा कौन पति होगा जो अपनी धर्मपत्नी का अनादर करना चाहेगा ? ऐसा कौन भाई होगा जिसके मन में अपनी बहन के लिए आदर नहीं होगा ?
हाँ ! जो जाहिल व संस्कारहीन होंगे वे तो वैसे भी किसी का आदर नहीं करेंगे!!
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13टिप्पणियाँ

  1. सामाजिक सरोकारों के फैसले महिलाओं की सहमती से ही निर्णित होते है ।

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  2. यदि स्त्री के विषय में लिखें तो कृपया स्त्री के विषय में ही लिखें,
    परस्पर संबध मध्यांकित होने पर विचारों में विरोधाभास उत्पन्न होता है.....

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  3. सामाजिक एवं पारिवारिक अधिकतर फैसले महिलाओं के सहमति से ही होते है !!!

    RECENT POST: जुल्म

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  4. बहुत ही खूब आर्टिकल लिखा है। पुरुष सत्ता का नाम ही है ,हकीकत कुछ और ही कहती है। मै आपके विचार से सहमत हूँ।

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  5. वर्तमान में तो नाम की ही पुरुषसत्ता है, असली सत्ता तो स्त्री के हाथ में ही है।

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  6. Aapke lekh ese hote hai jo hamari soch se mel khate hai.. blog chalte rahe

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  7. कभी कभी जब हम अपनी बच्चों की माता मोहतरमा के साथ सफ़र करते हैं तो हम उन्हें बस ट्रेन और टेम्पो में आदमियों की तरह लदे हुए मर्द दिखाते हैं.
    जी हाँ, बिलकुल आदमियों की तरह एक पर एक चढ़े हुए भी, खड़े हुए भी और पड़े हुए भी.
    जानवरों को ऐसे कोई ट्रांसपोर्ट करे तो पशु क्रूरता अधिनियम में जेल जाए.
    जानवरों से बदतर हालात में काम करके मर्द हँसता हुआ अपने घर में दाख़िल होता है. इस तरह वह अपनी ज़िल्लत पर पर्दा डालता है और अपनी कमाई अपने बच्चों की माँ को देता है.
    औरत समझती है कि 'वाह ! मर्द बाहर से मौज मारकर लौट रहा है. क्यों न इस मौज का मज़ा मैं भी लूं ?'
    मर्द उसे रोकता है कि मैं तो धक्के खा कर ज़लील हो ही रहा हूँ कम से कम यह तो घर में इज्ज़त से रहे.
    मर्द रोकता है तो औरत का शौक़ और बढ़ जाता है कि नहीं अब तो हम भी बाहर के मज़े लेकर ही रहेंगे.
    मर्द समझाए तो 'पुरुषवादी मानसिकता' का ताना खाए और चुप रहे तो अपनी बीवी, बहू और बेटियों को भी मर्दों के बीच दबा हुआ देखता रहे.
    हम अपने बच्चों की माता मोहतरमा को यह सब दिखाते रहते हैं ताकि उन्हें पता रहे कि घर किसी सल्तनत से कम नहीं और नारी किसी रानी कम नहीं है.
    इस सल्तनत का असल खज़ाना बच्चे हैं. माँ घर पर न रहे तो ये सलामत कैसे रहें ?
    हरेक का अपना दायरा है . हरेक की अपनी ख़ूबियाँ है. जिसका काम उसी को साजै.
    ...अलबत्ता ज़ुल्म का खात्मा ज़रूर होना चाहिए.

    आपने अच्छा लिखा है.
    आपका लिंक यहाँ भी है-
    http://blogkikhabren.blogspot.in/2013/04/blog-post_8.html

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  8. शेखावत जी का लेख बड़ा उत्तेजक और सोचने पर विवश करने वाला है । नर नारी की आपसी समझदारी की सलाह प़शंसनीय है । पर मेरा अनुभव है कि नारी का जितना उत्पीड़न हमारे देश भारत में होता है , उस से अधिक इस्लामी देशों या तालिबानी मनोवृत्ति के समाजों में होता है । नारी की नियति बड़ी दयनीय है । इस से इन्कार नहीं किया जा सकता ।

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  9. पुरुष और नारी दोनों का ग्र्हस्थ जीवन मे अपना अपना कार्यक्षेत्र होता है ,लेकिन जहां अंह आड़े आते है तो दोनों के रिश्तों मे कड़वाहट बढ्ने लगती है और उसके बाद जहां से पुरुष और नारी के अधिकारों मे टकराव होने लगता है ।

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