'संस्कृति की डब्बी : कुंवर अमित सिंह

Gyan Darpan
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माता कब की ''ममी'' बना दी,
पिता को बना डाला ''डेड''
छोड़ छाड़ के सादी रोटी,
खुश रहते सब खाकर ''ब्रेड''
.
भाई बन गए कब के ''ब्रो''
बहन हो चुकी अब ''सिस''
संस्कारों की तो पूछो ही मत,
जाने कहाँ हो रहे ''मिस''

ताई ,चाची, बुआ, मामी ,
सभी बन गई ''आंटी''
ताऊ, चाचा, फूफा, मामा, के
गले में पड़ी ''अंकल'' की घंटी.

यार दोस्त भी अब तो बन बैठे हैं सारे ''ड्यूड''
माँ-बाप अगर टोकें, बालक बोलें होकर ''रयुड''
बच्चों को अब नहीं पसंद पुराना ''पैजामा''
वाट्ज- अप बोलें भूल गए ''रामा-रामा''.


अंग्रेज तो चले गए यहाँ से कब के,
छोड़ गए अपनी संस्कृति की ''डब्बी''
बस अब और सहा नहीं जाता ''अमित''
अच्छे भले पति को जब बोलें ''हब्बी''.......

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8टिप्पणियाँ

  1. अंग्रेज चले गए, लेकिन अपनी दुम छोड़ गए। शानदार व्यंग करती कविता।

    मेरी नई पोस्ट "जन्म दिवस : डॉ. जाकिर हुसैन" को भी पढ़े। धन्यवाद।
    ब्लॉग पता :- gyaan-sansaar.blogspot.com

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  2. पिताजी को डैडी, माँ को मम्मी,
    इंग्लिश के आगे हिंदी निक्कमी
    बहन पुकारा तो मुह तोप जैसा,
    मैडम पुकारा चमत्कार है कैसा!

    चेहरा खिलकर कमल देखता हूँ,,



    RECENT POST: रिश्वत लिए वगैर...

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  3. अंग्रेजों के दुम पकड़ कब तक चलते रहेंगे,बहुत ही सार्थक प्रस्तुती।

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