मैं मंच हूँ |
किसी भी आयोजन के आकर्षण का मुख्य केंद्र। जहाँ हर कोई बैठकर अपने आपको गौरान्वित समझता है। आधुनिक भाषा में कहूँ तो अपने आपको वीवीआईपी होने की गुड फिलिंग लेता है। यही कारण है कि जब भी मैं कहीं सजता हूँ वहां बैठने के लिए लोग आयोजकों के पास लोबिंग करते नजर आते हैं।
हालाँकि मेरे आँचल में बैठने वाला, बैठने से पहले आम जनता होता हैं पर मंच पर आते ही "माननीय, सम्मानीय, वीवीआईपी" बन जाता है। मैं एक ऐसा जादुई स्थान हूँ, जहाँ आदमी खुद को बड़ा तीस मारखा समझने लगता है और सामने बैठे श्रोताओं को बेचारा।
कोई समय था, जब देश के, समाज के बड़े नेताओं, विचारकों बुद्धिजीवीओं आदि को मंच पर आमंत्रित किया जाता था, और वे मेरी यानि मंच की शोभा बढाते थे। उस समय पात्र लोग ही मंच पर आते थे, अपात्र लोगों को मुझ से दूर रखा जाता था।
पर आज समय बदल गया, हर कोई मंच पर बैठने को लालायित रहता है। अपात्र लोगों से मंच भरा रहता है और पात्र लोग यानि देश समाज के विचारक, बुद्धिजीवी और कुछ कर गुजरने की क्षमता रखने वाले लोग मंच के सामने बैठे दिखाई देते हैं।
हालाँकि आयोजक मंच के लिए कुछ राजनेताओं, समाज नेताओं और प्रभावशाली लोगों को जरुर बुलाते हैं, पर उन्हें बुलाने मकसद मेरी गरिमा बनाये रखने का नहीं, बल्कि उनके नाम से भीड़ एकत्र करने और अपने कार्यक्रम के स्तर को ऊँचा दिखाना होता है।
मुझे सबसे बड़ी ग्लानी तो तब होती है जब बड़े प्रभावशाली नेताओं, सामाजिक और पात्र लोगों के साथ मंच असामाजिक तत्व, नाम के बनाये सामाजिक संगठनों के स्वघोषित पदाधिकारी और कुछ छुटभैये भी आकर मंच पर बैठ जाते हैं। इनमें से कुछ बिना बुलाये बैठ जाते हैं कुछ को आयोजक ये समझकर बैठा देता है कि ये कोई अड़चन ना पैदा करे।
इस तरह टुच्चे लोग मंच पर और मंच पर बैठने के पात्र लोग सामने भीड़ में बैठे नजर आते है। मंच पर बैठने को लेकर कार्यक्रम में कई तरह के नज़ारे भी देखने को मिलते है - जिनको मंच नहीं मिलता, वे बीच कार्यक्रम में ही नाराज होकर चले जाते हैं, कुछ मन मसोसकर कर बैठे तो रहते हैं पर वे हमेशा के लिए आयोजक के विरोधी और कटु आलोचक बन जाते हैं ।
मैंने कई लोगों को नाराज होकर कहते सुना है - हमें बुला लिया और भीड़ में बैठा दिया, जबकि मुझसे कई जूनियर और अपात्र लोग मंच पर थे, ये मेरी इन्सल्ट है, आगे से मैं इनकी संस्था के साथ नहीं हूँ ।
और हाँ जिन लोगों को मंच मिल जाता है बोलने के लिए माइक मिल जाता है, उनमें एक अजीब-सी चेतना जाग जाती है — चेहरे पर गंभीरता, चाल में आत्मविश्वास और आवाज़ में ऐसा कंपन मानो ब्रह्मा स्वयं वाणी दे रहे हों। आयोजन चाहे कैसा भी हो, हर जगह मंच वीरों की तरह हथियार लहराते वक्ताओं से भरा रहता है।
कई बार किसी मुद्दे पर स्वत: अप्रत्याशित भीड़ एकत्र हो जाती है तब शुरू होता है मंच हथियाने का घिनौना खेल, हर ऐरा गैरा स्वघोषित नेता मंच को हाइजैक करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाता है। कुछ माह पूर्व राज्यसभा सांसद सुमन के एक बयान के खिलाफ भीड़ एकत्र हुई, उसका श्रेय लेने को एक गुट ने मंच हाइजैक कर लिया, अपने चहेतों को बोलने दिया, प्रतिद्वंदियों के बोलते वक्त माइक बंद कर देना, उनके धक्के मुक्का करने जैसी ख़बरें सोशियल मीडिया पर खूब देखने सुनने को मिली।
ऐसे ही कुछ वर्ष पूर्व कुछ लोगों को मंच नहीं मिला तो उन्होंने आयोजक जिसका वे समर्थन करने गए के खिलाफ खूब वीडियो जारी कर जहर उगला, मतलब मंच मिल जाता तो समर्थन, नहीं मिला तो तुरंत विरोधी हो गए।
देश की राजधानी दिल्ली में तो ऐसे नज़ारे कई बार देखने को मिलते हैं जब कार्यक्रम में आया हर व्यक्ति मंच पर होता है और सामने श्रोता एक भी नहीं।
मेरी गिरती हुई गरिमा को कई संगठनों और व्यक्तियों ने समझा और अपने आयोजनों में मंच बनाना ही बंद कर दिया, बस सामने एक माइक रख देते हैं, वक्ता बारी बारी से आते हैं और अपना उद्बोधन देकर सबके साथ रखी अपनी सीट पर वापस बैठ जाते हैं। मंच को लेकर आज जो समस्या आ रही है उसे सदियों पहले शेखावाटी के शासकों ने समझा और मंच बनाना ही बंद कर दिया, वे सब एक जाजम पर बैठते और बिना छोटे बड़े, ताजिमी, गैर ताजिमी का भेद किये अपने स्वत्वाधिकारों की चर्चा करते, जो पहले आता वो आगे बैठता, जो बाद में आता वो पीछे बैठता भले ही कितना ही प्रभावशाली क्यों ना हों| मतलब कोई छोटा बड़ा नहीं, कोई विशेष नहीं।
ऐसे ही एक आयोजन में शेखावतों की इस सामान बन्धुत्त्व की उस अनूठी भावना को देखकर महान स्वतंत्रता सेनानी गोपाल सिंह जी खरवा बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने इस भाई चारे की भावना की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
पर अफ़सोस आजकल शेखावतों के सामाजिक आयोजनों में भी मंच सजने लगा और वहां भी वो सब होने लगा है जो हर मंच के आस पास होता है।