एक क्रांतिकारी का ठाकुर जी प्रतिमा के आगे शस्त्र समर्पण

Gyan Darpan
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26 अगस्त 1915 ई. को सलेमाबाद में निम्बार्क पीठ के राधा-कृष्ण के भव्य मंदिर को ए.जी.जी. राजपुताना के सैक्रेटरी और इंस्पेक्टर जनरल पुलिस मिस्टर केई ने नसीराबाद छावनी के 50 सैनिकों, पुलिस दल व किशनगढ़ राज्य के दीवान के नेतृत्व में आये घुड़सवारों के दल के साथ प्रात:काल से ही घेर रखा था. गढ़ीनुमा बने इस मंदिर की एक बुर्ज पर देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांति के अग्रदूत राव गोपालसिंह जी और उनके काका मोड़सिंह जी मरने का प्रण लेकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा जमाये बैठे थे. मन्दिर के महन्त श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य जी क्रांतिकारी राव गोपालसिंह जी से मंदिर के पिछले रास्ते से निकल जाने की विनती कर रहे थे, वे क्रांतिकारियों से कह रहे थे कि- देश में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए आपका जीवित व स्वतंत्र रहना आवश्यक है, अत: आप पीछे के रास्ते से निकल जाईए, उसके बाद जो होगा मैं सह लूँगा, वैसे भी मुझ फक्कड़ का सरकार क्या बिगाड़ लेगी? लेकिन क्षात्र धर्म के अटूट अनुयायी राव साहब अंग्रेजों को पीठ कैसे दिखा सकते थे. अत: उन्होंने महन्त जी बात को अस्वीकार कर आखिरी दम तक संघर्ष करने का फैसला करते हुए मोर्चे पर डटे रहने का निर्णय लिया.

मन्दिर के घेरे का संचालक मि. केई रक्तपात के पक्ष में नहीं था. वह जानता था कि मंदिर में रक्तपात और राजपुताना के प्रभावशाली और लोकप्रिय व्यक्ति राव गोपालसिंह जी की हत्या के बाद राजपुताना के राजनैतिक हालात ख़राब हो सकते है. अत: वह बिना किसी रक्तपात के राव गोपालसिंह जी को बन्दी बनाना चाहता था. अजमेर-मेरवाड़ा के चीफ कमिश्नर मि. केई को उसके उच्चाधिकारियों द्वारा यही राय दी गई थी कि खरवा राव साहब को ससम्मान समर्पण के लिए तैयार किया जाये. अत: मि. केई उन्हें आत्म-समर्पण के लिए तैयार करने के प्रयत्न में लगा.

मि. केई वार्तालाप करने के लिए मन्दिर के अन्दर गया. उसने राव गोपालसिंह जी को आत्म-समर्पण करने का अनुरोध करते हुए बताया कि उनके विरुद्ध काशी-षड्यंत्र केस में शामिल होने का पुख्ता सबूत सरकार को नहीं मिला है. आप पर केवल "भारत रक्षा कानून" के तहत टॉडगढ़ से फरार होने का अभियोग है, जिसके फलस्वरूप आपको अधिक हानि नहीं होगी. मि. केई ने ये सब बातें लिखित में दे दी. राव गोपालसिंह जी ने शर्त रखी कि शस्त्र राजपूतों के लिए पूजनीय धार्मिक चिन्ह माने जाते है. अत: उनसे शस्त्र लेने की चेष्टा न की जाये. इस शर्त को मानने में क़ानूनी बाधाएं पैदा हो सकती थी. अत: तय किया गया कि सरकार राव गोपालसिंह जी से शस्त्र नहीं लेगी, किन्तु वे अपने शस्त्र मन्दिर में ठाकुर जी की प्रतिमा के भेंट चढ़ा देंगे, जो मन्दिर की सम्पत्ति मानी जायेगी. उन्हें वहां से हटाने का किसी को भी अधिकार नहीं होगा.
मन्दिर में हुए वार्तालाप में राव साहब ने इच्छा प्रकट की थी कि मि. केई घेरा उठाकर अजमेर चले जायें तथा वे स्वयं दूसरे दिन सुबह अजमेर पहुँच जायेंगे. मि. केई राव साहब के कथन पर विश्वास करके घेरा उठाकर अजमेर चला गया.
27 अगस्त 1915 को राव गोपालसिंह जी मंदिर में ठाकुर जी की प्रतिमा के आगे शस्त्र समर्पित कर अजमेर पहुँच गये. भारत रक्षा कानून के तहत नजरबन्दी तोड़ने के अपराध में उन पर मुकदमा चलाया गया. अजमेर के जिला कमिश्नर ए.टी.होम ने जिला मजिस्ट्रेट की हैसियत से उन पर मुकदमें की सुनवाई की. उन्हें दो वर्ष के कारावास की सादी सजा सुनाई गई. बनारस षड्यंत्र के अभियोग में उन्हें मुक्त कर दिया गया. उन्हें अजमेर जेल में रखा गया. यह सजा पूरी होने के बाद उन्हें मुक्त कर देना आवश्यक था. परन्तु भारत में चल रही क्रांतिकारी गतिविधियों को मध्यनजर रखते हुए सरकार ने ऐसे प्रभावशाली और लोकप्रिय व्यक्ति का जनता के बीच में रहना खतरनाक समझा. उन्हें भारत रक्षा कानून के तहत पुन: नजरबन्द कर दिया गया. पांच माह पश्चात् उन्हें "तिलहर" नामक स्थान पर स्थान्तरित कर दिया गया. तिलहर उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले में है. तिलहर में दो वर्ष नजरबन्दी जीवन बिताने के पश्चात् मार्च 1920 में उन्हें मुक्त किया गया. जेल से मुक्त होने पर वे अजमेर आये जहाँ नगर की जनता ने अपने प्रिय नेता का अभूतपूर्व स्वागत किया.

राव गोपालसिंह जी द्वारा ठाकुर जी की प्रतिमा के आगे समर्पित किये शस्त्र आज भी मंदिर की सम्पत्ति है. कुछ वर्ष पहले मंदिर के मंदिर के पुजारियों ने शस्त्रों के साथ छेड़छाड़ कर उन्हें बदल दिया और वहां नकली शस्त्र रख दिए लेकिन राजपूत समाज के एक जागरूक बंधू की कोशिशों ने पुजारियों की करतूतें विफल कर दी और वे हथियार आज मंदिर में सुरक्षित है.

(हथियारों के सम्बन्ध में पुजारियों की करतूत की प्रमाणिक रिपोर्ट फिर कभी)


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