महाराणा अमरसिंह और अब्दुर्र रहीम खानखाना

Gyan Darpan
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Maharaja Amar Singh and Nabab Abdur Rahim Khankhana Story in Hindi
भारतीय इतिहास युद्धों से भरा पड़ा है| जब जब केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई तब तब हर तत्कालीन महत्वाकांक्षी शासक ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर उसका प्रसार करने का यत्न किया| इन्हीं प्रयासों में यहाँ के शासक सदैव युद्धों में जूझते रहे| कभी विदेशी आक्रमणकारियों से, कभी पड़ौसी राजा से तो कभी अपने ही स्वजनों से अपना राज्य बचाने को जूझना पड़ा| इन युद्धों में कई ऐसे चरित्र मिल जायेंगे जिनके रोचक किस्सों से इतिहास भरा पड़ा है| दिन में शत्रु समझकर युद्ध करना और रात में परिजन समझ साथ में खाना खाना, युद्ध में घायल करने के बाद घायल करने वाले द्वारा ही उसकी पीड़ा कम करने के लिए युद्धभूमि में उपाय करने वाले किस्से इस देश में ही मिल सकते है|

अपने ही दरबार में शत्रु के प्रशंसकों को बर्दास्त करने के साथ शत्रु की वीरता की कद्र करने वाले शासकों के नामों की इस देश में लम्बी श्रृंखला रही है| राजस्थानी साहित्य में पीथळ के नाम से मशहूर, उत्कृष्ट श्रेणी के कवि बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज अकबर के दरबार में उसके ख़ास लोगों में से एक थे और वे अकबर व महाराणा प्रताप के मध्य दुश्मनी के बावजूद अकबर के आगे महाराणा प्रताप की वीरता का महिमामंडन करने से नहीं चूकते थे| उनके ऐसा करने पर अकबर को भी उनसे कोई शिकायत नहीं होती थी| नबाब अब्दुर्ररहीम खानखाना अकबर के दरबार एक ख़ास दरबारी थे| वे अकबर के सेनापति होने के साथ ही कवि और उदारता के मामले में प्रसिद्ध थे| खानखाना भी मेवाड़ वालों की वीरता, स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा किये जाने वाले संघर्ष का बहुत आदर करते थे और मेवाड़ के महाराणाओं के प्रति उनके मन में सम्मान था| विरोधी खेमें व धार्मिक भिन्नता होने के बावजूद महाराणा अमरसिंह के मध्य तो उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था, उनकी मित्रता में राजनैतिक विरोध व साम्प्रदायिकता कभी आड़े नहीं आई|

मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे लम्बी लड़ाई के बाद मेवाड़ के उजड़ने, जनता पर मुग़ल सेना के अत्याचारों की वजह से एक बार विचलित हो गए थे, तब उन्होंने अपने मन के उद्गार एक दोहे माध्यम से शत्रु दरबार के ख़ास दरबारी नबाब रहीम खानखाना के पास यूँ लिखकर भेजे-
गौड़, कछाह, राठवड़, गोखाँ जोख करंत|
कह्ज्यो खानखान नै, वनचर हुआ फिरंत||
भावार्थ- गौड़, कछवाहे और राठौड़ (संधियाँ करके) महलों के झरोखों में आनन्द कर रहे है| खानखाना से कहना कि हम (महाराणा) जंगलों में भटक रहे है|
तंवरां सूं दिल्ली गई, राठौड़ा कनवज्ज|
अमर पयपै खानने, सो दिन दीसै अज्ज||

भावार्थ- जिस दिन तंवरों के हाथ से दिल्ली गई, राठौड़ों के हाथ से कन्नोज गई, वही दिन, महाराणा अमरसिंह खानखाना से कहते है, आज हमें दिखाई दे रहा है| अर्थात् आज हमें मेवाड़ अपने हाथों से छूटता दिखाई दे रहा है|

उपरोक्त दोहे पढ़कर खानखाना समझ गये कि अब महाराणा लड़ाई से तंग आ चूके है, थक चूके है और इस तरह पत्र भेजने का आशय यही है कि वे मध्यस्तता कर अकबर से उनकी संधि करवा दे| लेकिन रहीम खानखाना अकबर के मन सेनापति होने के बावजूद महाराणा अमरसिंह के स्वातंत्र्य संग्राम के प्रति भक्ति उमड़ पड़ी और उन्होंने अकबर के हित की परवाह किये बिना महाराणा का उत्साह बनाये रखने के लिए निम्न दोहा लिखकर अपना धर्म निभाया-

ध्रम रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसाण|
अमर विसंभर ऊपरै, राख नहंचो राण||


भावार्थ- धर्म रहेगा, धरती भी तुम्हारी ही रहेगी और खुरसान वाले (मुग़ल) नष्ट हो जायेंगे| हे राणा अमरसिंह ! कभी नाश न होने वाले और संसार का पालन करने वाले परमात्मा पर दृढ विश्वास रखो|

मित्र खानखाना का उपरोक्त जबाब सुन महाराणा अमरसिंह का हौसला बढ़ गया और उन्होंने संधि का विचार छोड़ स्वतंत्रता के लड़ाई जारी रखने का निर्णय लिया|


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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-04-2016) को "नूतन सम्वत्सर आया है" (चर्चा अंक-2307) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    चैत्र नवरात्रों की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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