भारतीय राजाओं को हर बार महंगी पड़ी उदारता

Gyan Darpan
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भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही सहिष्णुता, उदारता, परमार्थ आदि गुणों के लिए प्रसिद्ध रही है| विदेशी आक्रान्ताओं के साथ भी हमारे यहाँ के शासकों ने संस्कृति अनुरूप उचित व्यवहार किया| शत्रु आक्रान्ता भले वह विदेशी हो या देशी, के पकड़े जाने पर कभी भी उसके साथ किसी राजा ने क्रूर व्यवहार नहीं किया| शायद उनके यह सुकृत्य भारतीय संस्कृति के सहिष्णुता, उदारता, परमार्थ आदि श्रेष्ठ गुणों की यहाँ के शासकों द्वारा कठोरता से पालन करने की नीति के फलस्वरूप ही थे| भारतीय इतिहास में देखा जाय तो ऐसे कई उदाहरण मिलते है जब भारतीय राजाओं ने मुस्लिम आक्रान्ताओं को पकड़े जाने के बाद ससम्मान छोड़ा, उनके साथ उचित व्यवहार किया, बुरे समय में उन्हें शरण भी दी|
अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने विदेशी आक्रान्ता गौरी को गिरफ्तार कर लिया था और उसे उसके माफ़ी मांगने व दुबारा भारत पर हमले की हिमाकत नहीं करने के वचन पर छोड़ दिया था| जबकि पृथ्वीराज चाहता या मुस्लिम आक्रमणकारियों की तरह व्यवहार करता तो उसे पहली बार पकड़े जाते समय ही उसका वध कर देता और आज भारत का इतिहास कुछ और होता| लेकिन पृथ्वीराज ने भारतीय संस्कृति के उन गुणों का कठोरता से पालन किया, जिन गुणों के लिए भारतीय संस्कृति ख़ास कर राजपूत संस्कृति पहचानी जाती है|

1437 ई. मालवा (मांडू) के सुल्तान Mahamudshah ने चितौड़ पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया| इस आक्रमण का मेवाड़ के यशस्वी महाराणा कुंभा Maharana Kumbha ने न केवल करारा जबाब दिया, बल्कि महमूदशाह को हरा कर गिरफ्तार भी कर लिया| महमूदशाह पर जीत के उपलक्ष में महाराणा ने चितौड़ दुर्ग में कीर्तिस्तम्भ का निर्माण कराया, इस निर्माण को देख साफ़ पता चलता है कि महाराणा की नजर में यह कोई छोटी-मोटी विजय नहीं थी| इस विजय के बाद महाराणा ने लगभग छ: माह महमूद को कैद में रखा और आगे से मेवाड़ के साथ अच्छा व्यवहार रखने व अपने किये की माफ़ी मांगने के बाद उसे छोड़ दिया और उसका राज्य भी लौटा दिया| लेकिन जैसा कि ये विदेशी हरामखोर अपनी हरामखोरी व अहसानफरामोशी के लिए जाने जाते है, वैसा इसने किया| सैन्य शक्ति का संचय कर छ: वर्ष बाद महमूदशाह ने अपनी हार का बदला लेने के लिए 1443 ई. में कुम्भलगढ़ पर चढ़ाई कर दी, जिसमें वह सफल नहीं हो सका| किन्तु कुम्भलगढ़ के पास बाण माता के मंदिर पर आक्रमण कर, वहां तैनात कुछ राजपूतों को मारने के बाद बाण माता की मूर्ति को तोड़ा डाला| मूर्ति तोड़ने के बाद उसके टुकड़े किये और कसाईयों को मांस तोलने के लिए दिये| मंदिर में स्थित नंदी को तोड़कर उसका चूना पकवाया और पान में लोगों को खिलाया| महमूद के मन में दूसरे धर्म के प्रति नफरत उसके इस कुकृत्य से समझी जा सकती| इस कुकृत्य के बाद महमूद ने चितौड़ पर हमला किया पर वहां भी सफल न हो सका| इन आक्रमणों के बाद भी महमूद ने मेवाड़ पर कई आक्रमण किये|

1519 में मांडू के सुल्तान महमूद द्वितीय ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, तब राणा सांगा ने उसे हरा दिया और हारकर भागते हुए घायल सुल्तान को पकड़ लिया| राणा सांगा ने इस सुल्तान के साथ भी उदात राजपूत संस्कृति की कठोर आचार संहिता का परिचय देते हुए व्यवहार किया| घायल सुल्तान का इलाज कराया और माफ़ी मांगने व भविष्य में मेवाड़ के साथ अच्छे व्यवहार के वचन के बाद उसका जीता हुआ आधा राज्य वापस लौटाते हुए ससम्मान मुक्त कर दिया| लेकिन इसी सुल्तान ने 1520 ई. में गुजरात के सुल्तान के साथ मिलकर फिर मेवाड़ पर आक्रमण किया और राणा सांगा से मुंह की खाई| गुजरात के एक शहजादे बहादुरशाह ने भी मुसीबत के समय राणा सांगा के पास शरण ली, जबकि यह शहजादा भी गुजरात से चितौड़ को नष्ट करने का इरादा मन में लिए निकला था और राणा इस बात को जानते थे, किन्तु राणा ने राजपूत संस्कृति में शरण में आये दुश्मन की भी रक्षा करने की कठोर नीति का पालन किया|

राजपूत राजाओं की इस उदारता के चलते उन्हें व देश को भविष्य में बहुत कुछ खोना पड़ा और ये खुद राजाओं के लिए आत्मघाती ही साबित हुई| पृथ्वीराज चौहान को जीवन व राज्य दोनों खोने पड़े, महाराणा कुंभा और राणा सांगा Rana Sangaको भी उदारता की कीमत कई युद्ध कर चुकानी पड़ी| प्रसिद्ध देशी विदेशी इतिहासकारों ने उनकी इस उदारता वाली नीति को राजनैतिक व कुटनीतिक परिदृश्य में गलत बताया और निंदा भी की| कर्नल टॉड, हरविलास सारदा और ओझा ने इस तरह की उदारता को भारतवर्ष के राजाओं द्वारा की जाने वाली भूलों को अदूरदर्शी बताया है| किन्तु कई प्रसिद्ध इतिहासकारों ने इन राजाओं को इस बात के लिए प्रशंसा भी की कि इन राजाओं ने उदात राजपूत आचार संहिता के कठोर नियमों में आस्था रखते हुए उसका कठोरता से पालन किया| कई इतिहासकारों ने भारतीय संस्कृति में इस व्यवहार को श्रेष्ठ माना और इन राजाओं द्वारा दर्शायी उदारता की तारीफ़ की| डा. गोपीनाथ महाराणा कुंभा द्वारा महमूद को छोड़ देने पर अपनी एक पुस्तक में लिखते है- "ऐसी स्थिति में महाराणा की यह नीति उसकी उदारता और स्वाभिमान तथा दूरदर्शिता की परिचायक है| ऐसी समयोचित नीति को आत्मघाती नीति न कहकर आत्माभिमान की संवर्धक नीति ही कहा जायेगा|



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1टिप्पणियाँ

  1. ये सब आत्माभिमानी थे. अगर गीता जी को समझा होता तो इनको पता होता कि शत्रु को पहला मौक़ा मिलते ही समाप्त कर देना चाहिए

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