गद्दार नहीं धर्मपरायण और देशभक्त राजा थे जयचंद

Gyan Darpan
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जयचंद का नाम आते ही हर किसी व्यक्ति के मन में एक गद्दार की छवि उभर आती है| यही नहीं जयचंद नाम को गद्दार के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाने लगा है| जबकि जयचंद जिन पर आरोप है कि उन्होंने पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए गौरी को बुलाया और उसकी सहायता की| लेकिन जब इस सम्बन्ध में प्राचीन इतिहास पढ़ते है तो उसमें ऐसे कोई सबूत नहीं मिलते जिनके आधार पर जयचंद को गद्दार ठहराया जा सके| इतिहासकार तो जयचंद के संयोगिता नाम की किसी पुत्री होने का भी खंडन करते है ऐसे में जब संयोगिता नाम की पुत्री ही नहीं थी तो दोनों के बीच कैसा वैमनस्य ?
लेकिन जब भी कहीं इस बारे में चर्चा की जाती है तो कोई भी व्यक्ति जयचंद के पक्ष में इन दलीलों को मानने के लिए राजी नहीं होता क्योंकि जनमानस में जयचंद के प्रति नफरत इतनी ज्यादा घर कर गई कि कोई उनके पक्ष में सुनकर ही राजी नहीं|

हाल में जयपुर के वरिष्ठ पत्रकार व साहित्य लेखक डा.आनंद शर्मा जो कई पुरस्कारों से नवाजे जा चुके है और उनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है का “अमृत-पुत्र” ऐतिहासिक उपन्यास पढने को मिला| उक्त उपन्यास से जयचंद की कहानी का कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी लेखक ने यह उपन्यास देश के पूर्व उपराष्ट्रपति स्व.भैरोंसिंह जी को समर्पित करने के कारणों पर जिक्र करते हुए पुस्तक की भूमिका में जयचंद पर अपने ऐतिहासिक शोध का जिक्र करते हुए जयचंद को धर्मपरायण व देशभक्त राजा की संज्ञा दी है क्योंकि लेखक को इतिहास में ऐसा कुछ नहीं मिला जिनके आधार पर जयचंद को गद्दार माना जाय|

पुस्तक में “अपनी बात” शीर्षक में लेखक डा.आनन्द शर्मा लिखते है – 1 सितम्बर, 2003 को भैरोंसिंह जी ने दिल्ली में मेरे ऐतिहासिक उपन्यास “नरवद सुप्यारदे” का लोकार्पण किया था| राजस्थान के राठौड़ वंश से सबंधित होने के कारण मैं उपन्यास के आरम्भ में “पूर्व कथा” के रूप में राठौड़ों के कर्णाटक, महाराष्ट्र, कन्नौज होते हुए राजस्थान आने का अज्ञात और सांप-सीढी जैसा रोमांचक इतिहास देने का लोभ संवरण नहीं पाया था| लगभग एक हजार वर्ष के इस इतिहास की प्रमाणिकता पर पूरा ध्यान देने पर भी एक जगह चूक हो ही गई| मैं कन्नौज नरेश जयचंद और दिल्ली-अजमेर नरेश पृथ्वीराज चौहान के शत्रुता प्रकरण में बहुचर्चित संयोगिता-हरण की घटना और उसके कारण प्रतिशोधाग्नि से धधकते जयचंद द्वारा गजनी सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी को पृथ्वीराज पर आक्रमण के लिए आमंत्रित करने की बात लिख गया था| विख्यात प्रकरण होने के कारण मैंने इसकी प्रमाणिकता खोजने का प्रयास नहीं किया था| वैसे भी उपन्यास के मुख्य कथानक से संबंधित न होने के कारण यह मेरी शोध का विषय नहीं था| मेरी कलम ने भी जयचंद को देशद्रोही जैसे रूप में प्रस्तुत कर दिया था|

पुस्तक लोकार्पण से पूर्व राजनेता उसे पढ़ते नहीं है| किन्तु भैरोंसिंह जी इसके अपवाद है| लोकार्पण से पूर्व पुस्तक को पूरी न पढ़ पाने पर भी उसे सरसरी तौर पर अवश्य पढ़ते है|

आगे भैरोंसिंह जी द्वारा पुस्तक पढ़कर उस पर टिप्पणी करने के संबंध में आनंद शर्मा लिखते है – उपन्यास की भरपूर सराहना करते हुए उन्होंने कहा कि उनके विचार में जयचंद और पृथ्वीराज में वैमनस्य का कारण सिर्फ संयोगिता-हरण नहीं हो सकता| इसके अन्य कारण भी होने चाहिए| उन्होंने तो संयोगिता-हरण प्रकरण पर ही संदेह व्यक्त करते हुए मुझसे इस बारे में शोध करके सही तथ्य सामने लाने का सुझाव तक दिया था|

अपनी बात में आनंद शर्मा आगे लिखते है – 3 सितम्बर के पत्र में भी अन्य बातों के साथ इस प्रकरण के उल्लेख ने मुझे सोचने के लिए विवश कर दिया| तीस वर्षों के सम्बन्धों के कारण में उनकी प्रकृति से परिचित था| अकारण और व्यर्थ की बात कहना उनके स्वभाव में नहीं था|

पत्र मिलने के बाद उनकी जबाब-तलबी से बचने के लिए मैंने आधे-अधूरे मन से पृथ्वीराज –जयचंद्र प्रकरण पर शोध आरम्भ किया| मेरी निजी लाइब्रेरी में पर्याप्त संदर्भ ग्रन्थ उपलब्ध होने के कारण मुझे कहीं जाना भी नहीं था| सब कुछ मेरे हाथ के नीचे था| लेकिन किसी भी इतिहास-ग्रन्थ में संयोगिता-पृथ्वीराज का उल्लेख न पाकर मैं हतप्रद रह गया| हैरत की बात यह थी कि जयचंद्र के संयोगिता नाम की कोई पुत्री ही नहीं थी| ऐसे में उसका स्वयंवर आयोजित होने और संयोगिता-हरण के कारण कन्नौज-दिल्ली की सेनाओं में युद्ध होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था| इसी प्रकार जयचंद्र द्वारा राजसूय यज्ञ करने का उल्लेख भी नहीं मिला| जब यज्ञ और स्वयंवर का आयोजन ही नहीं हुआ तो द्वार पर पृथ्वीराज की मूर्ति लगवाने, संयोगिता-हरण के बाद दिल्ली-कन्नौज की सेनाओं में भयंकर युद्ध होने के प्रवाद स्वत; ही समाप्त हो जाते है| इतना ही नहीं, जयचंद्र भी कन्नौज के स्थान पर काशी के तेजस्वी गहरवाल राजा निकले| कन्नौज तो बिहार के गया तक फैले उनके विशाल राज्य का एक भाग था| काशी के यशस्वी गहरवाल शासकों का इतिहास तो सर्वविदित है|

इसके बाद तो मेरे अन्वेषी-मन को चैतन्य होना ही था| खोजने के प्रयास में जयचंद्र का जैसे कायाकल्प ही हो गया था| वे देशद्रोही के स्थान पर धर्मपरायण और देशभक्त राजा सिद्ध हो रहे थे| संयोगिता प्रकरण न होने के कारण उनके द्वारा शहाबुद्दीन को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित करने का कारण भी नहीं रह जाता था| “कन्नौज का इतिहास खंगालने पर भी जयचंद्र – शहाबुद्दीन दुरभिसंधि का एक भी प्रमाण नहीं मिला| बस, जयचंद्र और पृथ्वीराज के बीच मनोमालिन्य की बात ही सामने आई| “भविष्य पुराण” ने वैमनस्य का कारण भी बता दिया| इसके अनुसार दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर की दो पुत्रियाँ थी| इनमें चन्द्रकान्ति बड़ी व किर्तिमालिनी छोटी थी| चन्द्रकान्ति का विवाह कान्यकुब्ज के राजा देवपाल अथवा विजयपाल के साथ हुआ, जिसके गर्भ से जयचंद्र ने जन्म लिया था| किर्तिमालिनी के अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के साथ हुए विवाह से पृथ्वीराज पैदा हुआ था| पुत्रहीन राजा अनंगपाल ने अपनी छोटी पुत्री के पुत्र पृथ्वीराज को गोद लेकर दिल्ली का राज्य सौंप दिया था| जबकि जयचंद्र न केवल अनंगपाल की ज्येष्ठ पुत्री का पुत्र था, अपितु आयु और अपने 5600 वर्गमील राज्य के कारण भी पृथ्वीराज से बड़ा था| पिता सोमेश्वर से पृथ्वीराज को मिला अजमेर राज्य जयचंद्र के कान्यकुब्ज के मुकाबले काफी छोटा था|

यह सच है कि सन 1191 में शहाबुद्दीन और पृथ्वीराज के बीच हुए तराईन के प्रथम युद्ध में जयचंद्र ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया था| किन्तु इसका कारण भिन्न था| जयचंद्र के साथ वैमस्य और अपनी शक्ति के प्रति आश्वस्त होने के कारण पृथ्वीराज ने कन्नौज नरेश को निमंत्रण ही नहीं भेजा था| जबकि जयचंद्र से छोटे राजाओं तक को उन्होंने सैन्य-सहायता के लिए आमंत्रित किया था| ऐसे में कन्नौज नरेश आगे बढ़कर सहायता करने क्यों जाते?

सन 1193 के द्वितीय तराईन के युद्ध में भी यही हुआ| निमंत्रण न मिलने के कारण जयचंद्र इस बार भी युद्ध से तटस्थ रहे| इस युद्ध में 26 वर्षीय पृथ्वीराज को बंदी बना कर मार डालने के बाद शहाबुद्दीन गोरी का दिल्ली से अजमेर तक के विशाल क्षेत्र पर अधिकार हो गया| अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का सूबेदार बनाकर वह गजनी लौट गया| अगले वर्ष फिर लौटा| इस बार उसने जयचंद्र को परास्त करके राठौड़ों का राज्य भी समाप्त कर दिया था| पृथ्वीराज पर आक्रमण में जयचंद्र के सहायक होने की स्थिति में गोरी कन्नौज पर आक्रमण कैसे कर सकता था? वह तो कुतुबुद्दीन के स्थान पर जयचंद्र को अपना करद राजा बनाकर दिल्ली-अजमेर का राज्य सौंप कर निश्चिन्त हो सकता था| फिर तराईन के दोनों युद्धों में जयचंद्र द्वारा शहाबुद्दीन को किसी मामूली सहायता प्रदान करने का उल्लेख किसी भी इतिहास में नहीं मिलता| इसके बाद तो इस आधारहीन प्रवाद का उदगम खोजना मेरे लिए आवश्यक हो गया| मैं यह जानकार हतप्रभ रह गया कि यह सारा वितण्डावाद पृथ्वीराज के आश्रित चारण चन्दबरदाई रचित “पृथ्वीराज रासो” ने फैलाया है| इसी काव्य में चन्दरबरदाई ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में जमीन-आसमान मिला दिए थे| उसने ही काल्पनिक संयोगिता का सृजन करके उसे दोनों नरेशों की शत्रुता का कारण ही नहीं बनाया, तराईन युद्ध में मारे गए पृथ्वीराज के शब्दभेदी बाण के द्वारा गोरी के मारे जाने तक का उल्लेख कर डाला| जबकि गोरी तराईन युद्ध के लगभग 10 वर्ष बाद सन 1205-06 में झेलम जिले (अब पाकिस्तान) के समीप शत्रु कबीले द्वारा सोते समय घात लगाकर किये हमले में मारा गया था| स्मिथ ने भी “अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया” में यही लिखा था|

इतिहास के सभी विद्वानों ने “पृथ्वीराज रासो” को अप्रमाणिक माना है| इस पर भी इतिहास धरा रह गया, रासो की कथा जन-जन में प्रचारित हो गई| एक धर्मपरायण राजा देशद्रोही के रूप में सामान्यजन की घृणा का पात्र बन गया|
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