History of Bhonsla Rajvansh in Hindi भौंसला वंश

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वीरों की तीर्थस्थली रहे चितौड़ के सिसोदिया वंश से उत्पन्न भौंसला वंश में देश के प्रसिद्ध वीर छत्रपति महाराज शिवाजी ने जन्म लिया, जिन्होंने स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए कठिनतम संघर्ष कर भौंसला वंश की कीर्ति को उज्जवल किया।
भौंसला वंश की उत्पत्ति चित्तौड़ के सिसोदिया कुल से हैं। इनका गोत्र वैजपायण तथा कहीं-कहीं कौशिक है। शाखा वाजसनेयी तथा सूत्र पारस्कर गृह्य सूत्र है। वेद यजुर्वेद हैं। इस प्रकार ये सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं।
चित्तौड़ का जब अलाउद्दीन के समय में पहला जौहर हुआ उससे पूर्व राणा लक्ष्मणसिंह ने अपने दूसरे पुत्र अजयसिंह को चित्तौड़ से बाहर भेज दिया था ताकि पीछे वंश तो बचे। इसके बड़े भाई अरिसिंह की स्री भी जौहर के समय अपने पीहर थी और वह गर्भवती थी। कुछ समय बाद उसके पुत्र हम्मीर का जन्म हुआ। अजयसिंह के दो पुत्र थे सज्जनसिंह और क्षेमसिंह थे। अजयसिंह को गोड़वाड़ का मुन्जा बालेचा बड़ा तंग करता था। अजयसिंह ने अपने पुत्रों को उसे मारने की आज्ञा दी, परन्तु वे यह कार्य नहीं कर सके। तब उसने अपने भतीजे को यह कार्य सौंपा, हम्मीर ने मुन्जा बालेचा को परास्त करके उसका सर काट कर अपने काका को पेश किया। इस पर प्रसन्न होकर अजयसिंह ने मुन्जा के खून से ही हम्मीर का राजतिलक कर दिया। इस पर अजयसिंह के दोनों पुत्र नाराज होकर मेवाड़ छोड़कर दक्षिण में चले गये।

सज्जनसिंह दक्षिण में जाकर बहमनी राज्य के संस्थापक जफरखां (हसन गंगू) की सेवा में रह गया। सज्जनसिंह ने उसकी सेवा में रहकर बड़ी वीरता दिखलाई। उसके पुत्र दुलेहसिंह (दलीपसिंह) ने भी हसन गंगू की सेवा में रहकर वीरता तथा अच्छी सेवा की। इसके उपलक्ष में हसनगंगू ने दलीपसिंह को देवगिरी की तरफ मीरत प्रान्त में दस गांवों की जागीर दी। हसन गंगूके हिजरी 753 (ई.1352) के फरमान में दलीपसिंह को सज्जनसिंह का पुत्र राणा अजयसिंह का पौत्र लिखा है (गौरीशंकर ओझा) हसनगंगू की मृत्यु के बाद बहमनी राज्य में बहुत बखेड़े हुए। कई सुल्तान गद्दी पर बैठे। दलीपसिंह का पुत्र सिंहा सागर का थानेदार नियत हुआ। फिरोजशाह बहमनी के गद्दी पर बैठने के पहिले के झगड़ों में जब कि बहुत से सरदार उसके विरोधी हो गए थे उस समय सिंहा और उसका पुत्र भैरवसिंह (भौंसला) उसके पक्ष में रहे। सिंहा शत्रुओं से लड़ता हुआ मारा गया।

फिरोजशाह ने गद्दी पर बैठने पर सिंहा और भैरवसिंह की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए भैरवसिंह को 84 गांवों से मुधोल की जागीर दी। इसका हिजरी 800 तिथि 25 रवि उल आखिर (15 जनवरी ई. 1898) का फरमान है। (गौरीशंकर हीराचन्द ओझा) भैरोसिंह उर्फ भौसले के उपनाम से उसके वंशज भौंसले कहलाने लगे। भौंसले का पुत्र राणा देवराज था, उसके दो पुत्र उग्रसेन (इन्द्रसेन) और प्रतापसिंह थे। उग्रसेन की फिरोजशाह के उत्तराधिकारी अहमदशाह ने अपने फरमान में वीरता तथा स्वामिभक्ति की बड़ी प्रशंसा की है। वह अपने स्वामी के लिए कोंकण के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। इसके दो पुत्र थे कर्ण और शुभकर्ण। मुहम्मदशाह दूसरे के समय में कोंकण में लड़ाई चल रही थी। उस समय एक सीधी दीवार वाले किले को फतह करने की आवश्यकता हुई। राणा कर्णसिंह और उसके पुत्र भीमसिंह ने सैंकड़ों गोहों (मराठी में घोरपड़) के कमर में रस्सियां बांध कर उन्हें दीवार पर फेंका और उनके द्वारा उन्होंने किले में प्रवेश कर उसे फतह किया। उस युद्ध में राणा कर्णसिंह मारा गया। इस सेवा के उपलक्ष में सुल्तान ने उसके लड़के भीमसिंह को राणा के बदले राजा घोरपड़े बहादुर की उपाधि दी और रायबाग तथा वेन के परगनों के दो किले तथा ‘‘घोरपड़’’ (गोह) के चिन्ह वाला झंडा दिया। इस समय से मुधोल वाले राजा धोरपड़े कहलाये। बाद में बहमनी राज्य के स्थान पर पाँच राज्य दक्षिण में हो गये। जब अहमद नगर के निजाम शाह ने अन्य से मिलकर बीजापुर के इस्माइल आदिलशाह पर चढ़ाई की तब भीम के पुत्र खेलोजी ने बीजापुर के पक्ष में युद्ध में भाग लिया और वह लड़ता हुआ मारा गया । इस समय से घोरपड़े खानदान का सम्बन्ध बीजापुर के साथ हुआ।
ऊपर वर्णन किया गया है कि भैरूसिंह उर्फ भौसले के वंशज इन्द्रसेन (उग्रसेन) के बड़े पुत्र कर्ण के वंशज घोरपड़े कहलाने लगे। परन्तु छोटे पुत्र शुभकर्ण और उसके वंशज पूर्व उपटंग भौंसले ही कहलाये। शुभकर्ण के बाद क्रमशः रूपसिंह, भूमन्द्रि, राणा, वरहट (बरड़ बाबा) खेला, कर्णसिंह, शंभा, बाबा और मालूजी हुए। मालूजी ने वि.सं. 1657 (ई.1800) में अहमदनगर के सुल्तान की सेवा की।

मालूजी का पुत्र शाहजी हुआ, जो प्रसिद्ध वीर शिवाजी का पिता था। शाहजी का विवाह यादव सरदार की पुत्री जीजाबाई से ई. 1604 में हुआ। जब खांनजहां लोदी बगावत करके दक्षिण में गया और उसका पीछा करता हुआ बादशाह शाहजहां भी उधर गया। वहां के युद्धों में शाहजी भौंसले ने खांनजहाँ का साथ दिया और मुगलों से लड़ा। बाद में शाहजी ने मुगल सेवा स्वीकार कर ली, उसे पूना की तथा अन्य जागीर भी मिली। बाद में वह मुगलों की सेवा छोड़कर बीजापुर की सेवा में हो गया, ई. 1633 में जब शाहजहां ने बीजापुर पर चढ़ाई की तब शाहजी नौ हजार सेना लेकर बीजापुर की तरफ से मुगलों से लड़ा। बादशाही सूबेदार ने जब निजामुलमुल्क को कैद कर लिया तब शाहजी ने दूसरे निजाम को गद्दी पर बैठाकर युद्ध जारी रखा। उसके पकड़े जाने पर तीसरे को बैठाया। शाहजहां की बीजापुर से संधि होने पर दोनों ने शाहजी का पीछा किया तब अंत में वे बीजापुर की सेवा में चले गये।

लेखक : देवीसिंह मंडावा


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