क्षमा दान : पृथ्वीराज द्वारा गौरी को माफ़ी का वर्णन

Gyan Darpan
2
कीर्ति-स्तम्भ (कुतुबमीनार) के ठीक सामने जहाँ आजकल दर्शकों के विश्राम के लिये हरी दूब की क्यारियाँ बनी हुई हैं, वहाँ आज से लगभग पौन आठ सौ वर्ष पहले तक सुन्दर संगमरमर का छोटा सा मन्दिर बना हुआ था। उस मन्दिर के निर्माण का इतिहास भी बड़ा मनोरंजक और विचित्र है।
दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के कुछ ही समय पश्चात् सम्राट पृथ्वीराज बसन्त के एक सुनहले प्रभात में कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे थे। वे घोड़े पर चढ़ने ही वाले थे कि उन्होंनें एक तान्त्रिक को अपनी ओर तेजी से आते देखा। विचित्र आकृति, विचित्र वेश-भूषा, विचित्र स्वभाव और विचित्र उपहार सहित वह सम्राट के सामने उपस्थित हुआ बगल में लटकती हुई लम्बी झोली में से उसने एक कांस्य-प्रतिमा निकाली और उसे सम्राट के हाथ में देते हुए कहने लगा -

“यह तन्त्रोक्त मन्त्रों द्वारा प्राण-प्रतिष्ठित तुम्हारी कुल-देवी की प्रतिमा है। यह तुम्हारे भावी मंगल और अमंगल की सूचना देती रहेगी; तुम्हारा पथ निर्देशन करती रहेगी प्रत्येक बड़े कार्य के पहले और पश्चात् इसके दर्शन कर लिया करो।’’

इतना कह कर वह लौट पड़ा। न अभिवादन स्वीकार किया, न इधर-उधर कुछ देखा और न किसी से कुछ बोला ही। सब लोग मंत्रमुग्ध से खड़े-खड़े देखते रहे। न किसी का कुछ पूछने का साहस हुआ और न किसी से उसे रोकने का ही प्रयत्न किया। सम्राट स्वयं ने जब तक अपने व्यवहार को निश्चित किया तब तक वह दुर्ग की सीमा से बाहर निकल कर यमुना के वन में अंतरध्यान हो चुका था। उसे देखा सभी ने पर खोजने पर वह मिला किसी को भी नहीं। सम्राट पृथ्वीराज ने संगमरमर का एक छोटा सा मन्दिर बनवाया और उसमें उस प्रतिमा की स्थापना कर दी| वही मन्दिर आज से लगभग पौने आठ सौ वर्ष पहले कुतुबमीनार के सामने वाले दूब के मैदान पर बन चुका था। सम्राट पृथ्वीराज प्रत्येक महान् कार्य के पहले उसी कांस्य-प्रतिमा से मौन आदेश प्राप्त करते थे। प्रत्येक युद्धाभियान के पहले और बाद में उस मूर्ति की भावभंगी से शकुन देख कर आगे का कार्य निश्चित करते थे। आबू, अन्हिलवाड़ा, महोबा, कन्नौज, तराइन आदि के युद्धों के लिये प्रयाण करते समय जब वे प्रतिमा-दर्शन को उपस्थित हुए तब उन्होंने प्रतिमा के मुख पर लालिमामिश्रित मुस्कान का भाव परिलक्षित किया। विजयोपरान्त वही भावभंगी शान्त, स्नेहमयी सौम्याकृति के रूप में दिखाई पड़ती।

तराई के दूसरे युद्ध के उपरान्त विजयलाभ करके वे जब लौटे तब न मालूम क्यों उन्हें मूर्ति की भावभंगी कुछ खिन्न और उदास सी जान पड़ी इसलिए उस दिन जब वे मन्त्रणा-कक्ष में आए तो कुछ चिन्तित और उदास से बैठे थे। उनके मन्त्रणा कक्ष में प्रवेश करते ही आचार्य, अमात्य, मन्त्री, सेनापति, सामन्त आदि सभी उठ खड़े हुए। उन सब ने झुक कर अभिवादन किया और सम्राट के आसन ग्रहण करने के उपरान्त वे अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए। दुर्ग का यह कक्ष राज्य व्यवस्था, नीति, युद्ध, सन्धि, विग्रह आदि पर मन्त्रणा करने के लिये सुरक्षित था। प्रत्येक बड़े कार्य और महती घोषणा के पहले सम्राट इसी कक्ष में राज्य के मुख्य अधिकारियों से मन्त्रणा करते थे। उसी परम्परा के अनुसार उस दिन भी मन्त्रणा होने वाली थी- विचारणीय विषय था, “बन्दी सुलतान के साथ क्या व्यवहार किया जाए। “ जो कुछ यहाँ निर्णय होने वाला था उसी की आम दरबार में घोषणा होने वाली थी।

“बन्दी सुलतान के साथ कैसा बर्ताव किया जाय ?’
सम्राट ने गम्भीरतापूर्वक अधिकारपूर्ण दृष्टि से सब की ओर देखते हुए पूछा।
आचार्य- राजन्! नीति-शास्त्र का आदेश है कि यदि शत्रु, अग्नि और विष निर्बल और अल्प मात्रा में भी हो तो भी सदैव उनसे सतर्क रह कर निरन्तर उनके नाश का उपाय करते रहना चाहिए। यह सुल्तान आज अनाथ और निर्बल अवश्य है पर इसने अनेकों बार पवित्र आर्य-भूमि पर आक्रमण किया है, -इसका उद्देश्य पवित्र आर्य-भूमि पर इस्लामी राज्य स्थापित करना है। अतएव आततायी होने के कारण भी हमारा शत्रु है और हमारे राज्य का विसर्जन करने का मन्तव्य रखने के कारण भी यह राज्य का शत्रु है। इस प्रकार के शत्रु को प्राण-दण्ड देना शास्त्र-विहित कर्म है।

“हूँ।' कह कर सम्राट ने अमात्य की ओर प्रश्नभरी मुद्रा में देखा।

अमात्य- महाराज ! पराजित और शरणागत शत्रु के प्रति क्षात्र-परम्परा अत्यन्त ही उदार और दयालु है। महाराज ने अपने प्रबल पराक्रम से चालुक्य राजा भीमदेव के अभिमान को धूलि में मिला दिया, अनेक बार चन्देल नरेश परमर्दिदेव को परास्त किया और कन्नौजपति की चक्रवतीं सम्राट बनने की आशा पर पानी फेर दिया। परास्त होने पर इन सब शत्रुओं के साथ महाराज ने उदारता का क्षत्रियोचित व्यवहार किया। इन सब के साथ महाराज का यह सद्भावपूर्ण व्यवहार समयोचित और आर्य-संस्कृति के अनुकूल ही था क्योंकि ये सभी नरेश आर्य-परम्परा के ही प्रतिनिधि हैं :- पर सुल्तान इनसे सर्वथा विपरीत और विजातीय परम्परा के प्रतिनिधि हैं ; - वे एक ऐसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें शत्रुओं और विशेषतः विजातीय शत्रुओं के प्रति क्षमा और उदारता पापपूर्ण दुर्गुण समझे जाते हैं। अतएव मेरी तुच्छ सम्मति में सुल्तान के प्रति बरती गई उदारता कुचले हुए साँप को दूध पिला कर छोड़ देने के समान अनिष्ट-फलदायी ही सिद्ध होगी।

‘‘आज से क्षात्र-परम्परा जाति और विजाति का भेदभाव करना ही सीख गई है ? हा-हा-हा | ''

सम्राट के इस व्यंग्यपूर्ण अट्टहास से सब लोग स्तब्द होकर एक दूसरे का मुंह देखने लगे|

“चन्द, तुम्हारी क्या सम्मति है ?” सम्राट ने मंत्री और राजकवि चन्द की ओर देखते हुए कहा था|

चन्द- “महाराज! यह सुल्तान भी सुल्तान महमूद गजनवी की परम्परा से ही है, जिसने भारत के सैंकड़ों देव-मंदिरों को तोड़कर देव-प्रतिमाओं को भ्रष्ट, खंडित और अपमानित किया था। हमने सुना है, इस सुल्तान ने भी मुल्तान को तुड़वा दिया है। इसके राज्य में आर्य प्रजा पर दिन-रात अत्याचार की चक्की चलती रहती है। यह चौहान राज्य को जीत कर यहाँ पर भी उन्हीं कार्यों की पुनरावृत्ति करना चाहता है इस सुल्तान से आर्यावर्त की स्वतंत्रता को पूर्ण भय है और स्वतंत्रता के साथ -साथ धर्म, संस्कृति, मर्यादा और प्रजा को भी पूर्ण भय है। अतएव इस तुच्छ सेवक का तो मत है कि इसका सिरोच्छेदन करके इसके राज्य पर तुरन्त आक्रमण कर देना चाहिए और आर्यावर्त पर किए जाने वाले आक्रमणों की मूल शक्ति को ही नष्ट कर देना चाहिए|'' सम्राट ने अपनी दृष्टि चन्द पर से हटाई और उसे सेनापति के मुँह पर गाड़ दी। सेनापति की तेजस्वी आँखों की पलके झुक गई।

“अन्नदाता ! गुप्तचरों की सूचना है कि वह महादेवी संयोगि----॥“

“हाँ, यह सब मुझे मालूम है, पर राजा न केवल राज्य का ही रक्षक होता है- वह धर्म, संस्कृति, परम्परा आदि का भी रक्षक होता है। क्या आर्य-परम्परा में पराजित शत्रु पर हाथ उठाना वर्जित नहीं है ? क्या निर्बल, शरणागत और पराजित को भी अभयदान देना महान् दैवी गुण नहीं है ? क्या आर्य-परम्परा में सदैव से ही ऐसा होता नहीं आया है ? राज्य-रक्षा से भी अमूल्य परम्परा की रक्षा है और फिर पृथ्वीराज के राज्य की ओर कुदृष्टि डालने वालों की आँखें निकालने की शक्ति अमी मेरे योद्धाओं की भुजाओं से निःशेष नहीं हुई है।

आचार्य - राजन् ! मैं आपकी उदारता का सदैव से ही प्रशंसक रहा हूँ पर धर्म, मर्यादा, संस्कृति, परम्परा आदि की रक्षा का आधार-स्तम्भ राज्य ही होता है। राज्यविसर्जन के साथ ही साथ इन सब का विसर्जन भी अवश्यम्भावी होता है। अतएव राज्य के शत्रु को धर्म, मर्यादा, संस्कृति और परम्परा का भी शत्रु समझना चाहिए। यही कारण है कि क्षत्रिय के लिए राज्य-रक्षा का विधान सर्वोपरि माना गया है क्योंकि क्षात्र-धर्म के पालन का मूर्त और व्यावहारिक साधन केवल मात्र राज्य ही होता है और यदि गहराई के विचार करें तो - ।

‘‘तो कया ?’’
“राज्य-विसर्जन के साथ स्वतंत्रता भी समाप्त होती है और स्वतंत्रता की समाप्ति के साथ ही साथ धर्म, मर्यादा, संस्कृति, परम्परा आदि की समाप्ति भी अवश्यम्भावी होती है । फिर यह सुल्तान तो निश्चित रूप से आर्य-धर्म और संस्कृति का भी शत्रु है। एक बार आर्यावर्त में इस्लामी राज्य स्थापित होने पर आर्य-धर्म और संस्कृति की क्या दशा होगी ? राजन् पराजित शत्रु को क्षमा करके आप क्षात्र परम्परा का पालन अवश्य करेंगे, पर इस एक बार की क्षमा और उदारता से हो सकता है कि सदैव के लिए आर्य-धर्म और परम्परा के नाश का बीजारोपण हो जाय। अतएव आपको सब दृष्टियों से विचार कर कार्य करना चाहिए।

पृथ्वीराज - मैं एक बार अपने सिद्धान्तों से पतित हो जाता हूँ तो दूसरी, तीसरी और प्रत्येक बार सिद्धांतों से पतित होकर कर्त्तव्यच्युत होने का मार्ग खुल जाता है; अतएव हमें प्रत्येक सिद्धांत का हठ पूर्वक पालन करना चाहिए । सिद्धान्तों के आधार पर समझौता करना उचित नहीं हो सकता। आचार्य - राजन ! यह प्रश्न सिद्धान्त और व्यावहारिक राजनीति दोनों का है। कभी सिद्धान्त पर आग्रह करना चाहिए और कभी व्यावहारिक राजनीति पर चलना चाहिए|

पृथ्वीराज - आचार्यवर ! मैं आज शक्ति -सम्पन्न हूँ और सुल्तान निर्बल है। क्षात्रपरम्परा में शक्ति और क्षमा का मणि-काँचन योग है। यदि मैं शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी निर्बल को क्षमा नहीं करूँगा तो मेरे अधीनस्थ सब सामन्त और कर्मचारी भी मेरा अनुकरण कर निर्बलों के अपराधों को क्षमा करना छोड़ देंगे। दया और उदारता समाप्त हो जाएगी। तब क्षत्रिय-परम्परा में आसुरी भाव का जन्म हो जायेगा और तमोगुण के वशीभूत होकर वह स्वयं अपने आप मर जाएगी। अब आप ही बतलाइये कि मैं भविष्य के लिए इस प्रकार की गलत परम्परा का निर्माण कैसे कर सकता हूँ।

आचार्य - राजन् ! आपके विचार स्तुत्य हैं पर सुल्तान केवल निर्बल हीं नहीं; वह निर्बल शत्रु है। और वास्तव में वह निर्बल शत्रु भी नहीं है पर एक सबल और पराक्रमी शत्रु है, क्योंकि उसका राज्य और सैनिक शक्ति के सभी मूल स्त्रोत अभी वैसे के वैसे सुरक्षित हैं| वह फिर आक्रमण करेगा। आप रक्षात्मक नीति द्वारा कब तक रक्षा करते रहेंगे ? क्षमा से दुष्ट का हृदय-परिवर्तन नहीं होता बल्कि उसकी प्रतिशोध की भावना और भी सक्रिय और प्रबल होती है। वह आपकी क्षमा को अपना अपमान समझेगा। इस देश के आपके शत्रु सुल्तान की इस मानसिक प्रतिक्रिया का लाभ उठा कर फिर उसे आपके विरूद्ध खड़ा होने में सहयोग देंगे। साँप को कुचल कर छोड़ देना उचित नहीं। या तो उसे मार देना चाहिए या सर्वथा विष-हीन बना देना चाहिए। इस समय आप दोनों ही कार्य करने में समर्थ हैं।

पृथ्वीराज - किसी अज्ञात भावी खतरे की आशंका के कारण मैं अपने सिद्धान्त कैसे छोड़ दूँ ? क्षात्र-परम्परा लाभ और हानि के तराजू में नहीं तोली जा सकती; सफलता और असफलता की डोरी से उसे नापा नहीं जा सकता।
अमात्य - महाराज ! यह आपका व्यक्तिगत शत्रु ही नहीं अपितु राज्य, धर्म और मर्यादा का भी तो शत्रु है।
पृथ्वीराज - क्या पृथ्वीराज पराजित शत्रु पर हाथ उठाएगा ?
अमात्य - उठाना होगा महाराज, नहीं तो आपकी इस दया और क्षमा-जनित निर्बलता से आतताइयों और दुष्टों को सदैव प्रोत्साहन मिलता रहेगा। पृथ्वीराज - शक्तिशाली की क्षमा को निर्बलता की संज्ञा देना उचित नहीं अमात्य।
अमात्य - यह एक राजनैतिक अदूरदर्शिता और ऐतिहासिक भूल होगी महाराज। “पृथ्वीराज की तलवार उस भूल को सुधारने और अदूरदर्शिता को दूर करने में फिर समर्थ होगी। ‘‘ यह ठीक है न सेनापति ?
‘‘हाँ महाराज ! आपकी तलवार सब काम करने में समर्थ है। ‘‘
“मैंनें आप लोगों से आवश्यक मन्त्रणा की। आपके विचार मनन योग्य हैं। सुल्तान का भविष्य उसके स्वयं के व्यवहार पर निर्भर रहेगा। “ यह कहते हुए सम्राट दरबार में जाने के लिये उठ खड़े हुए।

उस दिन दिल्ली नगर विशेष रूप से सजाया गया था। विजयोल्लास के मद में उन्मत्त प्रत्येक नागरिक, सूर, सामन्त, योद्धा सज-धज कर दरबार की ओर जा रहा था। चौहान- दिल्ली अब तक कई विजय-महोत्सव मना चुकी थी। प्रचण्ड पराक्रमी पृथ्वीराज की प्रत्येक युद्ध-यात्रा विजय-यात्रा होती थी। पर उस दिन की विजय का कुछ विशेष महत्व था। इस बार तराई के युद्ध में राजपूत सेना ने खुरासान, लाहौर, सिन्ध, जम्मू और मुल्तान के विजेता सुल्तान मुहम्मद शाहबुद्दीन गौरी की असंख्य सेना को परास्त किया था। आर्यावर्त की स्वतंत्रता, समृद्धि और संस्कृति का विनाश करने वाले विधर्मी दस्युओं को गाजर-मूली की भाँति काट कर सुल्तान मुहम्मद गौरी को बन्दी बनाया था। उस दिन की विजय अपूर्व विजय थी और उस दिन का विजयोत्सव अद्वितीय समारोह था। इसीलिए सब लोग आतुरता और जिज्ञासा, प्रसन्नता और उल्लास के मिश्रित भावों से प्रेरित होकर दरबार की ओर आ रहे थे। उस दिन सुल्तान मुहम्मद को बन्दी रूप से दिल्लीपति सम्राट पृथ्वीराज के सम्मुख आम दरबार में उपस्थित होना था। विभिन्न लोग सुल्तान के प्रति सम्राट के व्यवहार की विभिन्न प्रकार से कल्पना कर रहे थे।

अत्यन्त ही भव्य, सुसज्जित और विशाल मण्डप में इस दरबार का आयोजन किया गया था। चारों वर्णो के नागरिक, सामन्त, सेनापति अनेक देशों के राजा, राव, भूपति, मण्डलेश्वर, भूस्वामी, साधु-सन्त, कवि आदि समय से पूर्व ही आकर अपने-अपने स्थानों पर बैठने लग गए थे। दिल्ली उस दिन अमरावती से प्रतिस्पर्धा कर रही थी और पृथ्वीराज का दरबार सुरराज के दरबार की शोभा और प्रताप को फीका कर रहा था। विजय-रूपी मेघ-माला ने आनन्द के मोती बरसाये थे ; सभी लोग उन्हें अपनी शक्ति, सामथ्र्य और भावना के अनुसार बटोरने में तन्मय थे।

यथासमय सम्राट ने दरबार-मण्डप में प्रवेश किया। परम भट्टारक महाराजाधिराज सम्राट पृथ्वीराज की जय घोष से आकाश गूंज उठा। नगाड़े गड़गड़ा उठे, नौबत पर डंके पड़े, शहनाइयाँ सजीव हो उठी और शंख, मृदंग, ढोल, तुरई, के मिश्रित नाद से दिशायें कम्पित हो उठी। चारण और भाट उच्च स्वर से विरूदावली बखान करने लगे। ब्राह्मण शास्त्रोक्त मन्त्रों द्वारा आशीर्वाद देने लगे राजाओं ने पृथ्वी को दोनों हाथों से छूकर अभिवादन किया, सामन्तों ने तलवारें नीचे रख दी और नागरिकों ने तुमुल जयघोष से पृथ्वी को प्रकम्पित कर दिया।

सामने ही श्वेत-चौकी पर रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन रखा हुआ था जिस पर श्वेत छत्र और मोतियों की झालर लगी हुई थी। लम्बा कद, विशाल वक्षःस्थल, आजानु बाहु, उन्नत ललाट, गौर वर्ण और अधिकार-व्यंजक मूंछों वाले पृथ्वीराज ने आकर सिंहासन ग्रहण किया। उनके सिर पर केसरिया पाग, दाहिने हाथ में शत्रु-मर्दिनी तलवार और कन्धों पर विशाल धनुष और तरकस शोभायमान हो रहे थे। अपूर्व दृश्य था; अनोखी शोभा थी - शील, भक्ति, सौन्दर्य और बड़प्पन का अनुपम सामंजस्य था। सभा में एकदम नि:स्तब्धता छा गई।

दूसरे ही क्षण सबकी दृष्टि सम्राट पर से हट कर सभा-मण्डप के मुख्य द्वार पर जा लगी। विचित्र वेश-भूषा और आकृति वाले कुछ लोगों ने सभा-मण्डप में प्रवेश किया। उनकी संख्या आठ थी। उनके आगे मखमल का चौगा पहने और जरी का ऑटेदार साफा बाँधे एक दृढकाय व्यक्ति था। उसकी काली दाढ़ी नीचे से नुकीली होकर सीने से स्पर्श कर रही थी। आँखों की पलकें झुकी हुई, चेहरे पर लज्जा के भाव, फिर भी दृढता और तेज था। वही व्यक्ति बन्दी रूप में सुल्तान मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी था। उसके पीछे उसके छ: उमराव थे जो दो-दो की पंक्ति में चल रहे थे| एक व्यक्ति सबके पीछे चल रहा था जिसके चेहरे पर न पश्चाताप के भाव थे और न खेद के लक्षण। वह निर्लज्जतापूर्वक इधर -उधर देख रहा था। उसकी वेश-भूषा परिचित-सी जान पड़ रही थी। वह जम्मू के हिन्दू नरेश का सेनापति था जो पृथ्वीराज के विरूद्ध गौरी को सहायता देने भेजा गया था और इस युद्ध में गौरी के साथ बन्दी बना लिया गया था। इनके दाँये-बॉये सशस्त्र राजपूत सैनिक चल रहे थे।
सुल्तान को पृथ्वीराज के सिंहासन के सामने लाकर खड़ा किया गया। उसने अपने अमीरों सहित झुककर इस्लामी ढंग से अभिवादन किया और अपनी दृष्टि को अपने पैरों की अंगुलियों पर लगा दी। सम्राट ने सुल्तान के अभिवादन के उत्तर में कहा -
“घबराने की आवश्यकता नहीं है सुल्तान। आर्य-परम्परा सबके लिये कल्याणकारी है, वह शत्रु और दुष्टों के प्रति भी दया का व्यवहार करना जानती है।”
थोडी देर के लिए सभा में फिर सन्नाटा छा गया। सम्राट पृथ्वीराज ने गर्वोन्मत्त होकर एक बार समस्त सभा-मण्डप पर दृष्टि डाली, फिर अपनी बलिष्ठ भुजाओं को देखा और तत्पश्चात् सुल्तान के नीचे झुके हुए मुँह पर दृष्टि डालते हुए उन्होंनें पूछा -
‘‘अब आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाए ?’’

सुल्तान ने न सिर ऊँचा किया और न वह कुछ बोला। अपने दोनों हाथों की उंगलियों में उंगलियाँ डाल कर हाथ आगे लटकाये और नीचे दृष्टि डाले वह खड़ा ही रहा। इतने में उसका एक अमीर आगे आया। उसने झुक कर फिर सम्राट का अभिवादन किया; इधर-उधर अपनी दृष्टि दौड़ाई और विचित्र भाषा में उच्च स्वर से कुछ कहने लगा। किसी ने नहीं समझा कि वह क्या कह रहा था। दर्शकों का कौतूहल बढ़ गया। उसके बोलने के उपरान्त जम्मू नरेश का वह बन्दी सेनापति आगे आया और उस विचित्र भाषा का देशी भाषा में अनुवाद कर कहने लगा-
“सुल्तान अनुभव करता है कि उसने आप पर आक्रमण करके गलती की है। वह आपसे क्षमा माँगता है। सरहिंद तक पंचनद प्रदेश आपके समर्पण करता है। दस हजार स्वर्ण-मुद्रायें, एक हजार हीरे, पाँच हजार काबुली और पाँच हजार अरबी घोड़े और सौ मखमल के थान आपको भेंट करता है। इन्हें आप कृपा करके स्वीकार करें।’
सभा में फिर सन्नाटा छा गया। सबकी दृष्टि सम्राट के ऊपर लग गई। सम्राट कुछ मुस्कराये और फिर इधर-उधर देख कर बोलें - “हम तुम्हें अभय दान देते हैं, फिर हमसे लड़ने के लिये आना।’
दुभाषिये ने सम्राट की घोषणा सुल्तान को सुनाई। सुल्तान ने अपनी पगड़ी का एक अमूल्य हीरा खोला और आगे बढ़ कर उसे सम्राट के चरणों पर रख दिया। सम्राट खड़े हुए और उन्होंने अपने दोनों हाथ सुल्तान के कन्धों पर रख दिये। परम भट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वीराज की जय-घोष से फिर सभा-मण्डप गूंज उठा।

दूसरे ही क्षण सम्राट अपने मुख्य राज्याधिकारियों सहित कुलदेवी के मन्दिर में पहुँच गए। सब ने भय, आशंका, कौतूहल और उत्तेजनापूर्ण दृष्टि से प्रतिमा के चेहरे को देखा- उसके मुँह पर कालिमा की छाया थी; आँखे निष्प्राण और मुख-मुद्रा विकृत और विद्रूप हो चुकी थी । भावी अमंगल और अपशकुन का स्पष्ट संकेत था वह।

सम्राट ने आचार्य के मुँह की ओर देखा और आचार्य ने सामन्तों की ओर दृष्टि दौडाई। वीरवर गोविन्दराय का हाथ तलवार की मूंठ पर गया
“यदि आज्ञा हो तो सुल्तान गोरी को फिर बन्दी.......... |'' “नहीं, दिया हुआ दान और वचन वापिस लेना क्षात्र-परम्परा के अनुकूल नहीं है।’’
यह कहते हुए सम्राट महलों की ओर चल पड़े।


एक टिप्पणी भेजें

2टिप्पणियाँ

  1. जय पृथ्वीराज चौहान । अच्छी जानकारी दी गई है ।
    www.raajputanaculture.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. अग्रज इस यशोगान से क्या शिक्षा ली जाए, कृपया मार्गदर्शन करें।

    जवाब देंहटाएं
एक टिप्पणी भेजें