विक्रम की 11वीं, 12वीं सदी के क्षत्रिय इतिहास में नाम के अंत में सिंह शब्द का प्रयोग बहुत कम मिलता है| ज्यादातर राजाओं के नाम के आगे दास, मल आदि कैसे राजा भगवान दास, सूरजमल, आदि या बिना पद नाम शब्द के जैसे पृथ्वीराज, जोधा, शेखा, कुम्भा, विक्रमादित्य, हर्षवर्धन आदि नाम मिलते है| लेकिन 11 वीं, 12 वीं सदी के बाद के क्षत्रिय राजाओं के नाम के आगे सिंह पद शब्द का प्रयोग बहुतायत से देखा जा सकता है| यही नहीं वर्तमान में सभी क्षत्रिय अपने नाम के अंत में सिंह पद लगाते है| सोशियल साइट्स पर कई बार क्षत्रिय युवकों द्वारा जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि क्षत्रियों के नामांत में सिंह पद का प्रयोग कब शुरू हुआ| इन जिज्ञासाओं के उतर में ज्यादातर युवाओं के उतर में पढ़ने से ज्ञात होता है कि ज्यादातर युवा सिंह पद का प्रचार-प्रसार मुसलमानों के आने बाद मानते है| युवाओं में धारणा बैठी हुई है कि “सिंह” पद मुगलों आदि मुस्लिम शासकों ने राजपूत राजाओं को दिया और इसका प्रचलन बढ़ गया| लेकिन ऐसा नहीं है, सिंह पद का प्रयोग क्षत्रिय विक्रम की तीसरी सदी से कर रहे है| इस सम्बन्ध में राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार महामोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा Gaurishankar HeeraChand Ojha ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में विस्तार से शोधपूर्वक प्रकाश डाला है| ओझा जी (Ojha) के अनुसार-
“यह जानना आवश्यक है कि क्षत्रियों (राजपूतों) के नामों के अंत में “सिंह” पद कब से लगने लगा, क्योंकि पिछली कुछ शताब्दियों से राजपूतों में इसका प्रचार विशेष रूप से होने लगा है| पुराणों और महाभारत में जहाँ सूर्यचंद्रवंशी आदि क्षत्रिय राजाओं की वंशावलियां दी है, उनमें तो किसी राजा के नाम के अंत में सिंह पद ना होने से निश्चित है कि प्राचीन काल में सिंहान्त नाम नहीं होते थे| प्रसिद्ध शाक्यवंशी राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ (बुद्धदेव) के नाम के अनेक पर्यायों में एक “शाक्यसिंह” भी अमरकोष आदि मिलता है, परन्तु वह वास्तविक नाम नहीं है| उसका अर्थ यही है कि शाक्य जाति के क्षत्रियों (शाक्यों) में श्रेष्ठ (सिंह के समान)| प्राचीन काल में “सिंह”, “शार्दुल”, “पुंगव” आदि शब्द श्रेष्ठत्व प्रदर्शित करने के लिये शब्दों के अंत में जोड़े जाते थे- जैसे “क्षत्रियपुंगव” (क्षत्रियों में श्रेष्ठ), “राजशार्दुल” (राजाओं में श्रेष्ठ), “नरसिंह” (पुरुषों में सिंह के सदृश) आदि| ऐसा ही शाक्यसिंह शब्द भी है, न कि मूल नाम| यह पद नाम के अंत में पहले पहल गुजरात, काठियावाड़, राजपुताना, मालवा, दक्षिण आदि देशों पर राज्य करने वाले शक जाति के क्षत्रपवंशी महाप्रतापी राजा रुद्रदामा के दूसरे पुत्र रुद्रसिंह के नाम में मिलता है| रुद्रदामा के पीछे उसका ज्येष्ठ पुत्र दामध्यसद (दामजदश्री) और उसके बाद उसका छोटा भाई वही रुद्रसिंह क्षत्रपराज्य का स्वामी हुआ| यही सिंहान्त नाम का पहला उदाहरण है| रुद्रसिंह के सिक्के शक संवत 103-118 (वि.स.238-253, ई.स.181-196) तक के मिले है| उसी वंश में रुद्रसेन दूसरा राजा भी हुआ, जिसके शक संवत 178-196 (वि.स.313-331, ई.स.256-274) तक के सिक्के मिले है| उसके दो पुत्रों में से ज्येष्ठ का नाम विश्वसिंह था| यह उक्त शैली के नाम का दूसरा उदाहरण है| फिर उसी वंश में रूद्रसिंह, सत्यसिंह (स्वामिसत्यसिंह) और रुद्रसिंह (स्वामिरुद्रसिंह) के नाम मिलते है| जिनमें से अंतिम रुद्रसिंह शक संवत 310 (वि.स.445, ई.स.388 तक जीवित था, जैसा कि उसके सिक्कों में पाया जाता है| इस प्रकार उक्त वंश में सिंहान्त पद वाले 5 नाम है| तत्पश्चात इस प्रकार के नाम रखने की शैली अन्य राजघरानों में भी प्रचलित हुई| दक्षिण में सोलंकियों में जयसिंह नामधारी राजा वि.स. 564 के आसपास हुआ| फिर उसी वंश में वि.स.11oo00 के आसपास जयसिंह दूसरा हुआ| उसी वंश की वेंगी की शाखा में जयसिंह नाम के दो राजा हुये, जिनमें से पहले ने वि.स. 690 से 719 तक और जयसिंह दूसरे ने वि.स.754-767 तक वेंगी देश पर शासन किया|
मेवाड़ के गुहिलवंशियों में ऐसे नाम का प्रसार वि.स. की बारहवीं शताब्दी में हुआ| तब से वैरिसिंह, विजयसिंह, अरिसिंह आदि नाम रखे जाने लगे और अब तक बहुधा उसी शैली से नाम रखे जाते है| मारवाड़ के राठौड़ों में, विशेषकर वि.स. की 17वीं शताब्दी में, रायसिंह से इस शैली के नामों का प्रचार हुआ| तब से अबतक वही शैली प्रचलित है| कछवाहों में पहले पहल वि.स. की बारहवीं शताब्दी में नरवर वालों ने इस शैली को अपनाया और वि.स. 1177 के शिलालेख में गगनसिंह, शरदसिंह और वीरसिंह के नाम मिलते है| चौहानों में सबसे पहले जालोर के राजा समरसिंह का नाम वि.स. की तेरहवीं शताब्दी में मिलता है, जिसके पीछे उदयसिंह, सामंतसिंह आदि हुये| मालवे के परमारों में वि.स. की दसवीं शताब्दी के आसपास वैरिसिंह नाम का प्रयोग हुआ| इस प्रकार शिलालेखाआदि से पता लगता है कि इस तरह के नाम सबसे पहले क्षत्रपवंशी राजाओं, दक्षिण के सोलंकियों, मालवे के परमारों, मेवाड़ के गुहिलवंशियों, नरवर के कछवाहों, जालौर के चौहानों आदि में रखे जाने लगे, फिर तो इस शैली के नामों का राजपूतों में विशेष रूप से प्रचार हुआ|”
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कछवाहा ने सिंह 1027 इश्वि से शुरू किया था उससे पहले 967 इश्वि से पाल लगाया जाता था l
Lekin singh sabdh to maharaja khet singh khangar rajput ki den hai unhone 11 vi sadi ser ke sath yudda kiyaor ser ko maar dala tab prathiraaj chouhan ne unhe singh ki upadi di or phir unka name kheta khangar rajput se khetsingh khangar rajput ho gaya bhai g