स्व.श्री तनसिंहजी की कलम से….
यह चित्तौड़ है, जिसके नाम से एक त्वरा उठती है, एक हूक बरबस ह्रदय को मसोस डालती है; किंतु जिसने अपनी आंखों से देखा है उसकी द्रष्टि भावनाए बनकर लेखनी में उतर जाया करती है और फ़िर कागजों के कलेजे कांपने लग जाया करते है| इतिहास के इतने कागज रंगने पर भी क्या दुर्ग की दर्दनाक कहानी का किसी ने और-छोर भी पाया है ? क्या फुसलाने से भी कोई व्यथा मिट सकती है ? क्या सहलाने से भी दर्द समाप्त हो सकता ? चित्तौड़ स्वंम एक कहानी-एक दर्दभरी दास्ताँ है; एक उपेक्षित किंतु महान कौम का महाकाव्य है, जो कागजों पर नही, इतिहास के भुलाये हुए महाकवियों द्वारा पत्थरों पर लिखा गया है| पत्थर की लकीरों की भांति ही है- वे कहानियाँ जो न समय की आंधी से अब तक मिट सकी है और न ही विस्मृति की वर्षा से धुल सकी है |
स्टेशन पर हमें छोड़ कर रेलगाडी विदा होते हुए कहती है- “जाओ पथिक ! जा कर देखो ! वहां वे बहादुर लोग सो रहे है, जिन्होंने तुम्हारे देश, धर्म के लिए, तुम्हारी संस्कृति और परम्परा के लिए, बड़े से बड़े त्याग को भी छोटा कर दिखाया है! उन देश भक्तों को मेरा प्रणाम कहना “|
इतिहास की क्रीडास्थली मेवाड़-भूमि के उबड-खाबड़ मगरों और ऊँची नीची पहाडियों के बीच आकाश को कुदेरता, गुमसुम हुआ, चित्तौड़ का यह गौरवशाली यह दुर्ग ऐसे खड़ा है, जैसे किसी अजेय शक्ति से पराजित होकर अपने गण और अनुचरों के बीच भगवान शिव किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े विजय की कामना में किसी विस्मृत सिद्धि की पुनः प्राप्ति के लिए अनुष्ठान कर रहे हों| इस दुर्ग के भी कभी सुनहले दिन थे, चांदनी रातें थी, वैभव-सम्पति की अठखेलियों की बहारें थी, मंगल गीत और उत्सवों की ऋतुएं थी | हाँ, मंगल-श्री ही थी, पर आज विदा ले चुकी है | एक आग थी जो राख होने जा रही है | एक वीरता थी, जो समर भूमि में रक्त से लथपथ हो अब जीवन की अन्तिम घडियां गिन रही है |
श्री विहीन अवस्था में भी वह बाहें पसार कर आपका स्वागत कर रहा है| दुर्दिन की निराशा में भी अतिथि-सत्कार की परम्परा को नही भुला है, काल और परिस्थितियों की विजय इसकी मुस्कराहट पर विजय प्राप्त नही कर सकी है |वह मुस्कराकर आपसे आग्रह कर रहा है -“आओ पथिक ! तुम्हारा स्वागत है | पत्थरों की कारीगरी और कला के पारखी हो तो भीतर जाकर परीक्षा करो-ये पत्थर बड़े कि उनके कारीगर ? जाओ और पहचानों इस कला और कलाकारों में कौन बड़ा है ? और यदि तुम मनुष्यों कि भावनाओं के जौहरी हो, तो आओ, मेरे ह्रदय की तड़पन को देखो, सम्पति और विप्पती का समन्वय देखो, जीवन और मृत्यु के संघर्ष में कचोटी हुयी भूमि को देखो, इतिहास पढो और यहाँ आकर देखो उसके क्षत-विक्षत भग्नावशेष देखो |
अभी तो उनके चरण चिन्ह भी नही मिटे है |भीतर आकर पहचानो, कहीं तुम्हारा भी कोई निशान है ? अभी-अभी वह आग भुझ कर राख हुयी है-ढुंढौ, तुम्हारी ही किसी माँ-बहिन की जली हुयी चूडियाँ इधर-उधर बिखरी हुयी न पड़ी हो | यह दीवारें कल तक बोलती थी, कहीं उस पर तुम्हारा ही कोई शब्द अटका हुआ नही पड़ा है ?”
द्वार के पास ही दो एक स्मारक खड़े है | दर्शक उनकी भाषा समझने की चेष्ठा में ठिठक कर खड़ा हो जाता है | पर रावत बाघसिंह की भाषा कौन सकता है ? कौन समझ पायेगा उस वीर पुरूष के अरमानों को, जो जिस दुर्ग से एक दिन निर्वासित हो गया था; आक्रान्ता से लड़ता हुवा, उसी दुर्ग के प्रथम द्वार पर अपना स्मारक बना सकने में सफल हुआ हो ! समझ भी कैसे सकता है, जब देश पर छाई हुयी विपत्ति के समय समाज के समक्ष व्यक्ति मानापमान को तिलांजली देना सिखाने वाले उस समाज-चरित्र की भाषा वर्षों से लुप्त हो गई है ! दर्शक की अबोध बेबसी पर दुर्ग की मूक वेदना कहती है,तनिक और आगे बढ कर देखो ! यहाँ का एक-एक पत्थर अवशेष है ? अभी से कैसी हिचक ?
यह जयमल और कल्ला जी की छतरियां है | कर्तव्य जैसे दुर्भाग्य से पछाड़ खाकर राह पर पड़ा कराह रहा हो | उस कराहते हुए दर्द पर शिल्पी ने छत्री को सोंदर्य देना चाहा है, किंतु वह कौनसी सुन्दरता है, जो जयमल की छत्री पर चढ़कर लज्जित नही होगी ? वह सोंदर्य तो क्षमा मांग रहा है- मुझे तो विवश बनाकर शिल्पी ने लगा दिया है | इस छत्री का सोंदर्य तो केवल जयमल और कल्ला जी ही है,और अब उनकी यादगार ही इस छत्री का सोंदर्य है |
यादगार ! देश-प्रेम के मतवाले जयमल मेडतिया की यादगार,जिसने घायल होकर भी अपने कर्तव्य को नही छोड़ा | उस युद्ध की यादगार ! जब वे घोड़े पर नही चढ़ सके तो कल्ला जी के कंधे पर चढ़कर युद्ध करने लगे थे | उस केसरिया बाने की यादगार, जिस पर बहता लाल रक्त जैसे शोर्य के घोड़े पर क्रोध सवार हो रहा हो |
हाँ ! यह वही स्थान है, जहाँ वीर जयमल मेडतिया ने महाकाल की पूजा में अपने जीवन-प्रसून को सदा के लिए चढा दिया |आज भी दो एक फूल समाधी पर पड़े रो रहे है-बावले साधको ! यह देवता हमारे जैसे फूलों से प्रसन्न नही होता | यह तो स्वतंत्रता और मातृभूमि के लिए मिटा था | यदि तुम्हारे पास भी ऐसी ही कोई भावना हो तो वह चढावो |
छोडो ! यह सम्पति भी लुट चुकी | आगे चलो !
स्व.श्री तनसिंहजी द्वारा लिखित पुस्तक होनहार के खेल से साभार
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