महाजन की पत्नी ने ठाकुर की शेखावाटी की वेशभूषा और लवाजमा देखकर जान लिया कि वे उसी की मातृभूमि के रहने वाले हैं। उन्हें देखते ही उसका हृदय भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। अपने भाग्य को कोसने लगी कि यदि आज उसके पीहरवालों में से एक भी बचा हुआ होता, तो वह इसी वेषभूषा में उसकी पुत्री का मायरा (भात) भरने आता। यही एक ऐसा दिन होता है जब स्त्री अपने पीहर वालों को याद करती है।
उसे रोती देखकर ठाकुर साहब ने पूछा कि क्यों रोती है ?
और उन्हें जब सारी बात का पता लगा तो उन्होंने उस महाजन पत्नी को कहलाया-
“मैं ही तुम्हारा भाई हूँ और समय पर तुम्हारे घर मायरा भरने आऊँगा।’
जब अपने घर वालों को उसने यह बात कही तो किसी को भी उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ और कुटुम्ब की दूसरी औरतें, उसके भोलेपन पर हँसने लगी।
किन्तु ठा. नवलसिंह शेखावत ने जब अपना इरादा उक्त महाजन को कहला भेजा, तो वे सभी आश्चर्य चकित रह गये। अपनी जातीय पंचायत बुलाकर ठाकुर साहब का स्वागत करने की तैयारी की। “ठा. नवलसिंह ने बाईस हजार रुपयों की हुण्डी, जो उस समय उनके पास थी, उस लड़की के मायरे में भेंट कर दी। और वे वापिस झुंझुनू लौट गये।“ (वाल्टर-कृत-राजपुत्र हितकारिणी सभा की रिपोर्ट पृष्ठ 31, 42)
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इस तरह ठाकुर नवल सिंह शेखावत ने जो धन दिल्ली के सरकारी खजाने में जमा कराना था, वो एक महिला के भाई बनकर उसकी पुत्री के विवाह में भात (मायरा) भरने में खर्च दिया|
इस घटना से उस समय के शासकों की संवेदना को समझा जा सकता है| ठाकुर नवल सिंह शेखावत ने अपने क्षेत्र की महिला को अपनी बहन माना और उसके परिवार में किसी के न होने पर उसे जो दुःख हो रहा था वह दूर करने के लिए भाई मायरा भरने की परम्परा निभाते हुये वह धन खर्च कर डाला जो उन्हें राजकीय कोष में जमा कराना था| राजकीय कोष में उन्हें साठ हजार रूपये जमा कराने थे पर वे सिर्फ बाईस हजार रूपये की हुण्डी लेकर जमा कराने जा रहे थे, जो जाहिर करता है कि उनके राजकोष की आर्थिक दशा ठीक भी नहीं थी| साथ ही दिल्ली सल्तनत में समय पर खिराज (मामले) जमा नहीं कराने पर सीधे सैनिक कार्यवाही का सामना करना पड़ता था|
लेकिन ठाकुर नवल सिंह शेखावत ने दिल्ली सल्तनत की तरफ से संभावित किसी भी सैन्य कार्यवाही के परिणाम की चिंता किये बगैर उक्त महिला का भाई बनकर उसकी पुत्री के विवाह में मायरा भरते हुए बाईस हजार रूपये भेंट कर दिए| जो उनकी संवेदनशीलता प्रदर्शित करता है|
अफ़सोस इसी तरह के संवेदनशील शासकों को आजादी के बाद कथित भ्रष्ट नेताओं ने सामंतवाद के खिलाफ शोषण, अत्याचार की मनघडंत कहानियां रचकर दुष्प्रचार कर बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी|
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धन्य नवल सिंह जी । फीर भी लोग कहते है राजपूत अन्यायी थे।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-10-2015) को "जब समाज बचेगा, तब साहित्य भी बच जायेगा" (चर्चा अंक – 2133) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'