महाराणा सा सपूत पाकर धन्य हुई यह वसुन्धरा।
जयमल फता जैता कूपा झाला की यह परम्परा ।
जैता जी, पंचायण (अखैराजोत) के पुत्र थे। ये बगड़ी के ठाकुर थे। मण्डोर पर राव जोधा का अधिकार होने पर इनके बड़े भाई अखैराज ने तत्काल अपने अँगूठे को तलवार से चीरकर रुधिर से जोधाजी के मस्तक पर राज-तिलक लगा दिया। इस पर जोधाजी ने भी मेवाड़ वालों से छीन कर बगड़ी का अधिकार उसे वापस सौंप देने की प्रतिज्ञा की। उसी दिन से मारवाड़ में यह प्रथा चली है कि जब कभी किसी महाराजा का स्वर्गवास हो जाता है, तब बगड़ी जब्त करने की आज्ञा दे दी जाती है, और नए महाराजा के गद्दी पर बैठने के समय बगड़ी ठाकुर अपना अँगूठा चीरकर रुधिर से तिलक करता है, बगडी वापस दे दी जाती है। जैताजी के वंशज जैतावत ‘‘राठौड़” कहलाते हैं।
जैताजी महान् योद्धा थे। ये राव गाँगा जोधपुर की सेवा में थे। कुँपाजी को जैताजी ने ही राव गाँगा की तरफ मिलाया था। जैता जी ने भी कँपा जी के साथ रहते हुए अनेक युद्धों में भाग लिया था। वि.सं. १५८६ (ई.स. १५२९) में राव गाँगा के काका शेखा (पीपाड़) ने नागौर के शासक दौलत खाँ की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं में सेवकी’ नामक स्थान पर युद्ध हुआ। शेखा रणखेत रहा और दौलत खाँ प्राण बचाकर रणक्षेत्र से भाग गया। राव गाँगा की सेना में जैताजी ने भाग लिया था । राव गाँगा के बाद राव मालदेव मारवाड़ के शासक बने । राव मालदेव ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया उसमें जैताजी का विशेष योगदान रहा। उन्होंने मालदेव के प्रत्येक सैनिक अभियान में भाग लिया । राव वीरमदेव मेड़तिया से अजमेर और मेड़ता में हुए युद्धों में जैताजी ने अद्भुत पराक्रम दिखाकर मालदेव को विजय दिलाई। वीरमदेव डीडवाना चला गया, जैताजी और कँपा जी ने डीडवाना से वीरमदेव का कब्जा हटवाया। राणा उदयसिंह को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने में भी जैता जी का योगदान रहा। वणवीर से हुए युद्ध में राव मालदेव ने उदयसिंह की सहायता के लिए एक सेना भेजी थी। उस सेना में अखैराज सोनगरा, कँपाजी राठौड़ और जैताजी राठौड़ सम्मिलित थे। माहोली (मावली) में हुए युद्ध में उदयसिंह की विजय हुई और वह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। वि.सं. १५९८ (ई.स. १५४१) में राव मालदेव ने बीकानेर पर चढ़ाई की। राव जैतसी बीकानेर रणखेत रहा, राव मालदेव की विजय हुए। इस युद्ध में जैताजी और कँपाजी ने विशेष वीरता दिखाई। शेरशाह सूरी आगरे से एक विशाल सेना के साथ राव मालदेव पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ। इसकी सूचना जैताजी और कँपाजी को डीडवाणा में मिली। इन्होंने शेरशाह की मारवाड़ पर चढ़ाई की सूचना राव मालदेव को दी। अखैराज सोनगरा, कँपाजी और जैताजी अजमेर पहुँचे। सुमेल-गिररी (जैतारण पाली) में दोनों सेनाओं ने ब्यूह रचना की। लगभग एक महीने तक सेनाएँ आमनेसामने रही, लेकिन शेरशाह की हिम्मत नहीं हुई कि वह मारवाड़ी वीरों पर आक्रमण कर दे। रोज छुट-पुट लड़ाई होती थी जिनमें पठानों का नुकसान अधिक होता था। राठौड़ वीरों की शौर्य गाथाएँ सुनकर शेरशाह हताश होकर लौटने का निश्चय करने लगा। यह देख वीरम ने उसे बहुत समझाया। जब इस पर भी वह सम्मुख युद्ध में लोहा लेने की हिम्मत न कर सका, तब अन्त में वीरम ने उसे यह भय दिखाया कि यदि आप इस प्रकार घबराकर लौटेंगे, तो रावजी की सेना पीठ पर आक्रमण कर आपके बल को आसानी से नष्ट कर डालेगी। परन्तु जब इतने पर भी शेरशाह सहमत न हुआ, तब वीरम ने कपट जाल रचा। ऐसे जाली पत्र मालदेव के शिविर में भिजवा दिए, जिन्हें देखकर राव मालदेव को अपने प्रमुख-प्रमुख सरदारों पर शंका हुई कि ये लोग शत्रु से मिल गए हैं।
राव मालदेव की शंका का निवारण करने के लिए जैताजी, कँपाजी और अखैराज सोनगरा ने रावजी को खूब समझाया कि ये फरमान जाली हैं। मालदेव रात में ही वहाँ से जोधपुर कूच कर गया। युद्ध से पहले विशाल सेना एकत्र हुई थी, वह रावजी के मैदान से हटते ही छिन्न-भिन्न हो गई। जैताजी, कुँ पाजी और अखैराज ने अपने ऊपर लगे स्वामिद्रोही के कलंक को हटाने के लिए शेरशाह से युद्ध करने की ठानी। अपने बारह हजार सैनिकों को लेकर रात में ही युद्ध के लिए रवाना हुए। परन्तु दुर्भाग्य से, अधिक अंधकार के कारण सैनिक रास्ता-भटक गए। सुबह जल्दी आक्रमण के समय केवल पाँच-छः हजार योद्धा ही साथ थे। शेरशाह की अस्सी हजार सेना से राजपूत योद्धा भिड़ गए। घमासान लड़ाई हुई। युद्ध में ऐसा प्रलय मचाया कि शत्रु सेना हारकर भागने की तैयारी करने लगी, लेकिन उसी समय शेरशाह का एक सरदार जलाल खाँ अपने सुरक्षित दस्ते के साथ मैदान में आ गया। राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूत घोड़ों से उतरकर युद्ध में प्रलय मचाने लगे। लेकिन शत्रू सेना अपार थी। एक-एक राजपूत वीरगति को पहुँचा। जैताजी अपने साथियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में लगभग पाँच हजार राजपूत रणखेत रहे। वि.सं. १६०० पोस सुदि ११ को (ई.स. १५४४ जनवरी ५) सुमेल-गिररी की रक्तरंजित लड़ाई समाप्त हुई।
जैताजी ने जिस स्वामिभक्ति का परिचय दिया है वह मारवाड़ के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। इस बलिदान से पूरे मारवाड़ में शोक की लहर छा गई। मालदेव को जब यह खबर मिली तो वह बड़ा दुखी हुआ कि मैंने अपने सरदारों पर शंका की। परन्तु समय निकल चुका था पछतांने के अलावा कोई चारा नहीं था।
जैताजी के वंशज जैतावत राठौड़ कहलाते हैं। इनका बगड़ी (पाली) में मुख्य ठिकाना हैं।
“गिररी हन्दै गौरवे, सज भारत दोहू सूर।
जैतो-कुँ पो जोरवर, स्रग नै ड़ा घर दूर।’’
लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-03-2016) को "आवाजों को नजरअंदाज न करें" (चर्चा अंक-2279) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'