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Friday, June 9, 2023

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मेरे बचपन का सावन

सावन आ गया हमेशा की तरह पुरे एक साल बाद , हर बार की तरह अपनी खूबसूरती को समेटे …पर फिर भी कहीं न कही एसा लगता है , कि हर बार कुछ कमी रह जाती है अब सावन भी पहले जैसा नहीं रहा है .शायद होगा भी पर मेरे गाँव में तो अब वैसा सावन नहीं आता है ,जैसा जब मै छोटी थी तब आता था अब मै ये तो नहीं कहुगीं कि हमारे ज़माने मे एसा होता था क्योंकि मै कोई दादी या नानी नहीं बनी अभी ,बस यही कोई १५ साल पहले की बात कर रही हूँ.जब सावन का पता तब चलता था जब खेतों के किनारे और रास्तो मे से “सावन की डोकरियां” [एक मखमली कीड़ा जो सुर्ख लाल होता है ] पकड़ पकड़ के घर पर लाते थे, बहुत ही मखमली होते थी वो सच मे जैसे कोई एक रेड कारपेट यानि छोटा सा मखमली लाल गलीचा आ गया हो हाथो में .तब पता चलता था कि हाँ जब ये सावन की डोकरियां आती है तब सावन आता है .जब सारी सहेलियां सावन के सोमवार के व्रत करती थी और स्कूल मे ये वार्तालाप का विषय होता था कि आज कहां जाना है उपवास खोलने क्योंकि सावन के सोमवार का उपवास हम रावले की सभी लडकियां गाँव की चारो दिशाओं में जाके खाना खाती थी .एक सोमवार को उतर दिशा यानि की माता अन्नपूर्णा का मंदिर, दूजा सोमवार रावला बेरा [राजपूतो का पुश्तेनी कुआं ] और इसी तरह चारों सोमवार चारों दिशाओ में जाके खाना खाते थे, उस दिन खास बनता था “चिलड़ा” [मालपुए ] जिस का इंतजार अगले सोमवार तक करना पड़ता था और सावन के बाद तो कभी कभी ही मिलते थे ….बस एसा होता था तो लगता था कि सावन है .एक बात और जब जीजा [बड़ी बहन ] की सगाई हुई तो ससुराल से लहरिया आता था [कुछ कपडे और मिठाई ] तब सुनते थे की सावन आया है और हाँ,काकोसा काकीसा, भाभा और भाभीसा खेतो में जाके नीम के पेड़ पे झुला भी झूलते थे ,और जब काकीसा तैयार होती थी तो सब जेठानियां उनपे हँसती थी ,सब चिड़ाते थे ,पर उनका झुलाना जरुरी भी होता था क्योंकि उनका ससुराल में पहला सावन जो होता था .तब पता चलता था कि सावन है …..
और अब जब पता है कि सावन क्या है तो अब वो सावन ही नहीं आता …………..
बस आती है तो याद उस सावन की……
अब तो काकीसा और भाभीसा भी कहती है कि अब वो जमाना ही गया ……………..
क्यों गया वो सावन कब लौटेगा वो मेरे बच्चपन का सावन …….
लो सावन आ गया पुरे एक साल के इंतजार के बाद आया है –

पहले जब आता था तो भीगा भीगा आता था
झोला भर के घेवर लाता था, बागो मै झुला झुलाता था
पर अब ……
अब तो वो खुद भी अपना छाता नहीं खोलता है
पूछो तो , ज्यादा बारिश नहीं थी ये बोलता है
फिर खुद ही अपनी आँखों मै भर के पानी पूछता है…….
ये बाग अब सूनें क्यों है ,क्यों नहीं झूलते नए नवेले जोड़े यहाँ?
क्यों नहीं आती तीज के सत्तू की खुशबू रसोई से ,
क्यों नहीं महकती घर की बहुओं के हाथो मै मेहंदी अब
क्यों नहीं आती वो सावन की डोकरिया हमें गुदगुदाने
क्यूँ क्यूँ अब नहीं होता है सावन का स्वागत लाल बांधनी[चुनडी] की साडी से
उन लहरियों के सात रंगों से .
इतनी आहे ना भराओ सावन से की वो आना ही छोड़ दे ,
हमने छोड़ दी है सारी रस्मो को निभाना ,
कही वो अपना आने का वादा ना तोड़ दे ……….
केसर क्यारी (उषा राठौड़)

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पूर्व मंत्री स्व.कल्याण सिंह जी कालवी की पुण्य तिथि पर करणी सैनिकों द्वारा रक्तदान |
ताऊ डाट इन: ताऊ पहेली – 84 (बेलूर मठ, प. बंगाल)
एलोवेरा शरीर के आन्तरिक व बाहरी सुरक्षा के लिए |

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22 COMMENTS

  1. सावन में झूले डालकर जब बहनों को झुलाते थे तब उनसे उनसे झूलते हुए पेड़ की टहनी तोड़ने को कहते थे और उनके द्वारा टहनी तोड़ने पर फिर उन्हें खूब चिड़ाते थे कि "अपनी सास की नाक तोड़ लायी "

    आपकी यादों ने घेवर की याद दिला दी आज ही यहाँ के बाजार में तलाश करते है 🙂

  2. बहुत ही रोचक और प्रभावित करती हुई रचना है |
    परदेश में हमलोगों को गाँव की याद दिला दी उषा जी |
    सुन्दर प्रस्तुती के लिए हार्दिक धन्यबाद |

  3. bohat achha likha he……sach me wo red color ki "dogariyan" dekhne me bohat achhi lagti he….aapki is post se "ghewar or feni" ki yaad aagai…..or jhoolo par jhoolne ki to baat hi alg hai….. 🙂

  4. कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
    लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
    कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
    …नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
    चढ़ती दीवारों पर,सौ बार फिसलती है ।
    मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
    चढ़कर गिरना,गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
    आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
    कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
    वाह अपने दिल के दर्द और पुराणी यादों का एक बहुत ही सुंदर,बढ़िया और उम्दा प्रस्तुती के लिए हार्दिक धन्यबाद.

  5. गाँव का सावन बिलकुल आपके बताये नुताबिक ही होता था | आप जिन्हें डोकरी कहते है हम उन्हें तीज कहते है | यह कीड़ा केवल इस मौसम में बरसात में ही निकलता है | जब इसे छूते है तो यह अपनी टांगो को सिकोड़ कर एक जगह रुक जाता है | अगर हो सका तो इसकी तस्वीर भी भेजता हूँ | इतनी सुन्दर पोस्ट के लिए आभार

  6. गुजरात में इस मौसम में पांच दिन केवल लड़कियों के लिए ही रहते है | उन पांच दिनों में सूरत में सभी पार्क में पुरूषों का प्रवेश वर्जित होता है | केवल महिलाए और लड़किया ही जा सकती है |

  7. "पहले जब आता था तो भीगा भीगा आता था
    झोला भर के घेवर लाता था, बागो मै झुला झुलाता था"

    मनमोहक ब्लॉग तथा मिटटी की खुशुबू का आभाश कराती बहुत सुंदर पोस्ट "मेरे बचपन का सावन".

    "अब तो वो खुद भी अपना छाता नहीं खोलता है
    पूछो तो, ज्यादा बारिश नहीं थी ये बोलता है"

    ये शिकायत तो शायद इस बार दूर हो गई होगी?

  8. बहुत दार्शनिक अंदाज़ में आपने बिसरे ओ भूले सावन को याद करवाया हुकुम ! वाकई गहराइयों से ओत प्रोत अभिवयक्ति है आपकी !! लाजवाब !!!

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