माण्डण युद्ध : अपनी मातृभूमि शेखावाटी-प्रदेश की स्वतंत्रता की रक्षार्थ 6 जून, 1775 ई. को रेवाड़ी के पास माण्डण नामक स्थान पर शेखावतों तथा शाही सेनाधिकारी के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ था। जिसमें आक्रान्ता शाही सेनाधिकारी राव मित्रसेन अहीर को पराजित हो युद्धस्थल से भागना पड़ा था और शेखावत पक्ष की विजय हुई| यद्यपि इसमें शेखावतों के प्रायः सभी प्रमुख संस्थापनों तथा शाखा-उपशाखाओं के वीर काम आए। ऐसा कहा जाता है कि उस युद्ध में शेखावतों के अनेक परिवारों की तीन-तीन पीढ़ियाँ एक साथ काम आई थी। इस युद्ध में खास बात यह थी कि शेखावत सेना के पक्ष में जयपुर व भरतपुर की सेना ने भी वीरतापूर्ण भाग लिया था|
नजफ कुलीखाँ ने शेखावतों के साथ धोखा किया था साथ ही मुगलों ने नारनोल, बैराठ, कोटपुतली आदि पर जो जयपुर के अधिकार में थे, कब्जा कर लिया था। इसका बदला लेने की दृढ़ इच्छा लेकर बाघसिंह जी खेतड़ी, हणूतसिंह जी डूंडलोद, तथा सूरजमल जी बिसाऊ तीनों नवलसिंह जी के पास झुंझुनू में आये तथा सबने मुगलों से युद्ध करने का निर्णय किया| इस निर्णय के अनुसार शेखावतों की एक संयुक्त सेना ने चिड़ावा के धाबाई यानीराम और हीरानन्द बाढां की ढाणी के मुलकपुरिया की अधीनता में सिंघाणा स्थित मुगलों के थाने आक्रमण किया|
भीषण युद्ध हुआ। जो पठान वहां थे वे भाग खड़े हुये और सिंघाना पर शेखावतों का अधिकार हो गया। इसके बाद शेखावतों ने युद्धार्थ सिंघाणा में एकत्र होने का फैसला किया, नवलसिंह जी झुंझुनू जिनकी सेना में हाथी, घोड़े, रथ, सुखपाल, तोपें, रहकले, जम्बूरक, राम चंगी आदि थे, सिंघाणा पहुंचे। पंचपाना, उदयपुर वाटी तथा खंडेला की सेना भी यहाँ आ पहुँची। शेखावत सेना का संचालन नवलसिंह जी ने किया। जयपुर से महाराज सवाई पृथ्वीसिंह जी ने एक सेना सूरसिंह जी चिराणा (जिनकी जागीर में उस समय खाटू था) तथा शंभूराम कानूगो की अधीनता में मुगलों द्वारा जयपुर के अधिकृत किए गए स्थानों पर फिर से कब्जा करने हेतु भेजी। इस सेना ने जयपुर से प्रस्थान करके खेजड़ोली में डेरा किया और वहां से ओठी (ऊँट का सवार) शेखावतों के पास रवाना किया कि आप भी सेना सहित आगे बढ़े। यहाँ से जयपुर सेना कोटपुतली, बैराठ आदि पर कब्जा करती हुई नारनोल की ओर आगे बढ़ी। नारनोल के रास्ते में यह सेना और शेखावत सेना दोनों मिल गई और फिर नारनोल पर बढ़ी। मुगल बगैर मुकाबला किये ही नारनोल खाली करके भाग गये। यहाँ पर शंभूराम ने सेना को खरची बांटी। फिर दोनों सेनाएं कांटी की ओर अग्रसर हुई। जाटों और कछवाहों के मित्रता थी। जाटों के जो युद्ध मुगलों से हुये थे, उनमें कछवाहों ने उनकी पूरी मदद की थी। अतः अब कछवाहों की मदद पर भरतपुर की सेना फतहसिंह जाट के नेतृत्व में कांटी के मार्ग में इनसे आ सम्मिलित हुई।
शेखावतों, जयपुर व भरतपुर की सेनाओं के प्रयाण करते ही इसकी खबर दिल्ली पहुँची। वहां से एक सेना फरूखनगर के बलोच कालेखां के सेनापतित्व में कछवाहों को रोकने को रवाना की गई। इस सेना में जिरह बखतर बन्द टुकड़ियाँ भी थी, जिन्हें सांवली (काली) सेना कहा गया है, तथा रेवाड़ी के दिवान मित्रसेन अहीर को इस सेना के साथ रवाना होने की आज्ञा भेजी गई। रेवाड़ी से मित्रसेन एक बहुत बड़ी सेना लेकर मुगल सेना में शामिल हुआ। शेखावतों ने कायमखानियों से उनके राज्य छीने थे इसलिये वे भी एक अच्छी जमीयत के साथ आकर झुंझुनू आदि वापस प्राप्त करने की आशा से इस सेना में शामिल हुये। काणोड की सेना तथा जाटू (तंवर) भी आकर मित्रसेन के शामिल हुये।
बादशाही सेना का काजी नवलसिंह जी से समझौते की बात करने आया। नवलसिंह जी ने उसका सम्मान किया तथा सीरोपाव, किलंगी, तुरा आदि दिये। उसने कहा कि आप लोग दिल्ली चलो, बादशाह से इजाफा दिलाऊंगा युद्ध मत करो। शेखावत एक बार नजफ कुलीखां से धोखा खा चुके थे, इसीलिये उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया बल्कि शाही सेना को लौटने की सलाह दी।
काजी के चले जाने के बाद शेखावतों ने युद्ध के लिये अपनी सेना की व्यूह रचना की। सूरसिंह प्रशस्ती में लिखा है “सिलह सज सूर हुयो असवार।” सेना की तीन अणी बनाई गई। हरावल, गोल तथा चन्दावल शेखावत सेना का था, जिसका संचालन नवलसिंह जी ने किया था। दाहि अण जयपुर सेना की थी तथा बायीं अणी भरतपुर की सेना की थी। हरावल के आगे एक हाथी था जिस पर शेखावतों का केसरानी झंडा लाल गोट का तथा जिसमें हनुमान जी थे, फहरा रहा था। हाथी के पीछे इनका तोपखाना था। तोपखाने के पीछे पैदल बन्दूकचियों की टुकड़ियाँ पंक्तिबद्ध थी। इनके बीच-बीच में मार्ग थे जिनमें घोड़ों पर चढ़े हुए ढाढी (जांगीड) उच्च स्वर से शेखावतों के पूर्वजों की वीर गाथावों के सिन्धू दे रहे थे, जिससे वीरों पर सूरातन चढ़ रहा था। सेना के बीच बीच में भी शेखावतों के झंडे फहरा रहे थे तथा घोड़ों पर चढ़े हुये राणा (दमामी) नगाड़ों पर डंके दे रहे थे तथा नकीब चोपदार बोल रहे थे।
जाट सेना ने जो आक्रमण किया था, उसके फलस्वरूप अहीर सेना के दाहिने बाजू का मुखिया रामदत्त मारा गया। उसके काम आते ही अहीर सेना ने पाँव छोड़ दिये। भागते हुये अहीर भारी संख्या में हताहत हुये। उनमें से अधिकतर तो रेवाड़ी की ओर भागे और शेष भागकर गोल में मित्रसेन की सेना में जा घुसे। इनका पीछा करते हुये जाट योद्धा मुगल सेना के चंदावल में जा पहुँचे जिससे मुगल सेना का रेवाड़ी का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
जाट सेना ने तेजी के साथ मुगल फौज की दक्षिणी बाजू की अहीर सेना पर हमला बोल दिया। दोनों ओर से जमकर युद्ध हुआ।हुई हिन्दवाण तुरक्कां हल्ल। जाट बढ्या रणबाजि उथल्ल।।
भरतपुर सेना के आक्रमण करते ही शेखावत सेना के हरोल ने हमला बोल दिया औ शत्रु के तोपखाने की पंक्तियों को चीरते हुये गोल में हाथियों के समूह पर टूट पड़े। तलवारों की भयंकर मार काट मच गई। आरम्भ में जाट योद्धा काफी संख्या में हताहत हुए। खबर मिलने पर सूरसिंह जी ने शंभूराम को आज्ञा दी कि जाट बड़ी संख्या में मारे गये हैं, अब तेजी से हमला कर दो। तब इनके हाथी शत्रु सेना पर पेल दिये। जयपुर सेना के मुकाबले पर कालेखां की बलोच फौज तथा कायम खानी थे। सूरसिंह जी के पुत्र पहाड़ सिंह ने अपनी घुड़सवार सेना से प्रचंड आक्रमण किया, इस मोरचे पर दोनों ओर की फौजों के बीच बड़ा भीषण युद्ध हुआ।
इधर जाट सेना ने जो आक्रमण किया था, उसके फलस्वरूप अहीर सेना के दाहिने बाजू का मुखिया रामदत्त मारा गया। उसके काम आते ही अहीर सेना ने पाँव छोड़ दिये। भागते हुये अहीर भारी संख्या में हताहत हुये। इनका पीछा करते हुये जाट योद्धा मुगल सेना के चंदावल में जा पहुँचे जिससे मुगल सेना का रेवाड़ी का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
उधर नवलसिंह जी आदि कई शेखावत योद्धा हाथियों पर से उतर कर घोड़ों पर सवार हो गए मुगल सेना पर जोरदार धावा बोल दिया। मुगलों की खाइयों को पार करते हुये रोषोन्मत्त वीर मित्रसेन अहीर तक जा पहुँचे। इनके पीछे ही शेखावत सेना के चन्दोल ने भी आक्रमण कर दिया| मित्रसेन अब अधिक नहीं टिक सका और इस भीषण आक्रमण के आगे मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। उसके भागते ही मुगल सेना में भगदड़ मच गई। शेखावतों ने मुगलों की बखतर बन्द सेना को भी काट गिराया । शत्रु के तम्बू डेरे लूट लिये। मुगल सेना का बाजार (बहीर) लूट लिया गया। शेखावतों को लाखों का माल लूट में मिला।
इस तरह मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़े गये इस युद्ध को शेखावत सेना ने जयपुर के स्वबंधुओं व भरतपुर की जाट सेना के सहयोग से अपने से कई गुनी बड़ी सेना को भगाकर युद्ध जीत लिया|
संदर्भ: स्व. ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत, झाझड़ द्वारा लिखित पुस्तक “माण्डण युद्ध”
Mandan yuddh history in hindi
mandan war
shekhawat history in hindi
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और सुचित्रा सेन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और सुचित्रा सेन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
तुम फर्जी इतिहास लिखने मे माहीर हो माढण मे राजपुत हारे थे. ..अपने ही मुह से मिया-मिठ्ठु बने फिरते हो तुम. .कोटपुतली भी नही जीतने दिया राजपुतो को माढण तो दुर की बात है. ..झुठा इतिहास बना कर लोगो को बेकुफ बनाते रहो. ..ये लेख पठ कर तो मेरा विश्वास ही उठ गया है तुम राजपुतो के इतिहास से. ..माढण मे सुरजन सिहं शेखावत ने घुटने टेक कर माफी मांगी थी मित्र सेन से. …हरियाणा मे शेखावत राजपुत भी है उन से ही पुछ लेना आके. …..और ये लडाई एक मुसलमान को शरण देने पर हुए मतभेदों के कारण हुई थी. .दुसरी बात मित्र सेन की सेना मे मुगल सेना सामिल नही थी. ..केवल 6000 सीपाही थे जो मेवात के अहीर ही थे. …सुरजन सिहं की सेना मे 24000 सिपाही थे फिर भी राजपुत हार कर गये थे. …..माढण के भैया की स्थापना थी सहीद सिपाही यों की याद मे मित्र सेन ने ही कराई थी. ..हमला राजपुतो ने किया था और हारे भी राजपुत ही थे. .भरतपुर की सेना तो तकरीबन खत्म कर दी थी थोडे बोहत राजपुत ही बचे थे सुरजन सिहं शेखावत के 24 बेटे इस लडाई मे मरे थे
I am of from Rewari .
You lying man.. Only 5000 Ahirs were there. against 15000 Soldiers .. Why you people always lying to world .I dont inspite of bravery some people like you not accept truth. Raja Mitrasen was the winner inspite of having 5000 soldiers.
मुझे ये पुस्तक चाहिये
कम फेक ले जाके देख पहले इतिहास मै कोन जीता था कोन हारा था मन घडन्त कहानिया मत्त बनाओ अहीरो ने बुरी तरह पराजित किया था शेखावाटी को ओर अहीर अकेले थे