39.2 C
Rajasthan
Wednesday, June 7, 2023

Buy now

spot_img

रानी पद्मावती के जौहर की कहानी, ममता और कर्तव्य : भाग-1

विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था । ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।

“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।

‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |”

गोरा ने मुड़ कर देखा – पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।

थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।

गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। । गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।

अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।

कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।

कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |

इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।

“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।

वृद्धा ने मन ही मन कहा – ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी – ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’

क्रमश:…….आगे पढने के लिए यहाँ क्लिक करें ...

लेखक : कुंवर आयुवानसिंह शेखावत, हुडील

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Stay Connected

0FansLike
3,803FollowersFollow
20,800SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles