

राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबूजी राठौड अपनी शादी में फेरों की रस्म पूरी ही नहीं कर पाए थे कि एक वृद्धा के पशुधन को लुटेरों से बचाने के लिए फेरों की रस्म बीच में ही छोड़ उन्हें रण में जाना पड़ा और वे उस वृद्धा के पशुधन की रक्षा करते हुए युद्धभूमि में शहीद हो गए|
इसी तरह मेवाड़ के सलूम्बर ठिकाने के रावत रत्नसिंह चुंडावत भी अपनी शादी के बाद ठीक से अपनी पत्नी रानी हाड़ी से मिल भी नहीं पाए कि उन्हें औरंगजेब के खिलाफ युद्ध में जाना पड़ गया और रानी ने ये सोच कर कि कहीं उसके पति पत्नीमोह में युद्ध से विमुख न हो जाए या वीरता प्रदर्शित नही कर पाए इसी आशंका के चलते उस वीर रानी ने अपना शीश काट कर ही निशानी के तौर पर भेज दिया ताकि उसका पति अब उसका मोह त्याग निर्भय होकर अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध कर सके | और रावत रतन सिंह चुण्डावत ने अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हो गए|
इस तरह राजपूत योद्धाओं को अक्सर अनवरत चलने वाले युद्धों के कारण अपनी शादी के लिए जाने तक का समय नहीं मिल पाता था ऐसे कई अवसर आते थे कि किसी योद्धा की शादी तय हो जाती थी और ठीक शादी से पहले उसे किसी युद्ध में चले जाना पड़ता था ऐसी परिस्थितियों में उस काल में राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा की शुरुआत हुई इस परम्परा के अनुसार दुल्हे के शादी के समय उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में उसकी तलवार (खांडा) दुल्हे की जगह बारात के साथ भेज दी जाती थी और उसी तलवार को दुल्हे की जगह रखकर शादी के सभी रस्मों रिवाज पुरे कर दिए जाते थे|
पर अब राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा बिल्कुल समाप्त हो चुकी है हाँ बचपन में मैंने खांडा विवाह तो नहीं पर कुछ सगाई समारोह जरुर देखें है जहाँ लड़का उस समय उपलब्ध नहीं था तो सगाई की रस्म तलवार रखकर पूरी कर दी गयी थी| मेरे एक चचेरे भाई की सगाई भी उसकी अनुपस्थिति में इसी तरह तलवार रखकर कर दी गयी थी अब भी हमारी भाभी और हमारे चचेरे भाई के बीच इस बात पर कई बार मजाक हो जाया करती है|
पर इस प्रथा को लेकर इतिहास में एक बार एक ऐसी दुखद घटना भी घट चुकी है जिसके चलते बाड़मेर की जनता को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा| राजस्थान के प्रसिद्ध प्रथम इतिहासकार और तत्कालीन जोधपुर रियासत के प्रधान मुंहनोत नैंणसीं को तीसरे विवाह के लिए बाड़मेर राज्य के कामदार कमा ने अपनी पुत्री के विवाह का नारियल भेजा था (उस जमाने में सगाई के लिए नारियल भेजा जाता था जिसे स्वीकार कर लेते ही सगाई की रस्म पूरी हो जाया करती थी) पर जोधपुर राज्य के प्रशासनिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण नैंणसीं खुद विवाह के लिए नहीं जा पाए और प्रचलित परम्परा के अनुसार उन्होंने बारात के साथ अपनी तलवार भेजकर खांडा विवाह करने का निश्चय किया| पर दुल्हन के पिता कमा ने इसे अपमान समझा और अपनी कन्या को नहीं भेजा बल्कि कन्या के बदले मूसल भेज दिया जिससे जोधपुर का वह शक्तिशाली प्रशासक व सेनापति नैंणसीं अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने इसे अपना अपमान समझ उसका बदला लेने के लिए बाड़मेर पर ससैन्य चढाई कर आक्रमण कर दिया उसने पुरे बाड़मेर नगर को तहस नहस कर खूब लूटपाट की और नगर के मुख्य द्वार के दरवाजे वहां से हटाकर जालौर दुर्ग में लगवा दिए|इस प्रकार इस खांडा विवाह परम्परा के चलते बाड़मेर की तत्कालीन प्रजा को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा|
चूँकि नैंणसीं राजपूत नहीं ओसवाल महाजन (जैन)था अत:उसके द्वारा खांडा विवाह के लिए तलवार भेजने की इस घटना से साफ जाहिर है कि ये परम्परा सिर्फ राजपूत जाति तक ही सिमित नहीं थी बल्कि राजस्थान में उस समय की अन्य जातियों में भी इस प्रथा का चलन था|
khanda vivah pratha, talvar ke sath vivah,
bharat me aisi anekanek paramparyen dekhne ko milti hain.
बड़ी रोचक व प्रतीकात्मक प्रथायें।
बहुत सुन्दर
NICE POST
परंपरायें जरूरत के आधार पर ही विकसित होती हैं। अच्छी जानकारी देता हुआ आलेख
बहुत ही रोचक जानकारी देता आलेख्।
रोचक प्रस्तुति…
सादर…
हां अब ये इतिहास की बाते हो गई हैं. इन कहानियों को बडे बुजुर्गों के मुंह से सुना है और ये राजस्थान के स्वर्णिम इतिहास का हिस्सा हैं. बहुत शुभ कामनाएं.
रामराम.
अभी दो तीन दिन पहले एक पुस्तक में रतन सिंह चूड़ावत वाला प्रसंग पढ़ा था, एक बार तो मन में आया था कि उस पुस्तक के अंश को हूबहू पोस्ट कर दूँ, फ़िर कापीराईट वगैरह झमेलों की जानकारी न होने के कारण विचार टल गया।
गौरवशाली विरासत पर गर्व होता है।
Rajasthan in anek veergaatho se bhara pada hen…
रावत रत्नसिंह चुंडावत ki tho khani bahut badiya hai maja aa gaya har ek ko apne desh ke liye ase hi kurban hona chahiye or us ki rani bhi kuch kam nahi thi bahut badiya
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आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-09-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ratan singh ji,
hamne suna hai ye parampara pahle musalmano ki thi…kya ye sahi hai…?
@Kunwar bhanwar Singh,
इसके बारे में मैंने कभी सुना नहीं पर हो सकता है यह प्रथा मुसलमानों में भी प्रचलित रही हो ,वैसे भी राजपूत और मुसलमानों के एक साथ रहने से दोनों की संस्कृति में एक दुसरे की परम्पराओं का समावेश होना कोई बड़ी बात नहीं |
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जानकारीपरक आलेख!
बहुत ही रोचक जानकारी। आगे भी ऐसे लेख जारी रखें।
राजस्थान की धरती तो वीरों के खून से सिंची हुयी है, कण-कण में वीरता की गाथायें हैं।
रोचक प्रस्तुति…आपका यह लेख हिन्दुस्तान अखबार में भी पढ़ा था|
sunder
बहुत ही रोचक जानकारी।
आप रो ब्लोग घनो ग्यान वर्धक ह |
अरज: आप एक राजस्थानी ब्लोग भी बनायो !!!!
Rochak..
बहुत ही शानदार लिखा जी , शुभकामनाएं