राजस्थान में राजपूत शासन काल में युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर, तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश कर अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है | पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा | महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ| सबसे ज्यादा जौहर और शाके चितौड़ के दुर्ग में हुए | चितौड़ के दुर्ग में सबसे पहला जौहर चितौड़ की महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 हजार रमणियों ने अगस्त 1303 में किया था|
बाड़मेर के सांसद और क्षत्रिय युवक संघ के संस्थापक स्व. तनसिंह जी जब पहली बार चितौड़ दुर्ग में जौहर स्थल पर गये तो उनके मन में निम्न शब्द प्रस्फुटित हुए जिन्हें उन्होंने अपनी पुस्तक होनहार के खेल में “वैरागी चितौड़” शीर्षक नामक लेख में कुछ यूँ लिखा-
इज्जत बचाने के लिए प्रलय-दृश्य विकराल अग्नि में कूद पड़ने को यहाँ के लोग जौहर कहा करते थे | और यह जौहर स्थान है ,जहाँ सतियाँ….|
जमीन में अब भी जैसे ज्वालायें दहक रही है | लपटों में अग्नि स्नान हो रहा है | मिटटी से बने शरीर को मिटटी में मिला दिया | अग्नि की परिक्रमा देकर संसार के बंधन में बंधी और उसी में कूद कर बंधनों से मुक्त हो गई | व्योम की अज्ञात गहराईयों से आई और उसी की अनंत गहराईयों में समा गई |शत्रु आते थे,रूप और सोंदर्य के पिपासु बनकर परन्तु उन्हें मिलती थी-अनंत सोंदर्य से भरी हुयी ढेरियाँ | इस जीवटभरी कहानी पर सिर हिलाकर उसी राख को मस्तक से लगाकर वे भी दो आंसू बहा दिया करते थे | विजय-स्तम्भ ने यह सब द्रश्य देखे होंगे; चलो, उसी से पूछे, उन भूली हुयी दर्दनाक कहानियो का उलझा हुवा इतिहास | देखें उसे क्या कहना है ?
” मै ऊँचा हो-हो होकर दुनिया को देखने का प्रयास कर रहा हूँ,कि सारे संसार में ऐसे कर्तव्य और मौत के परवाने और भी कही है ? पर खेद ! मुझे तो कुछ भी दिखाई नही देता |”
वह पूछता है- ” तुमतो दुनिया में बहुत घूम चुके हो,क्या ऐसे दीवाने और भी कही है ?”
“नही !”
तब गर्व से सीना फुलाकर और सिर ऊँचा उठा कर स्वर्ग कि और देखता है | वहां से भी प्रतिध्वनी आती है |
“नही!”
नीवें बोझ से दबी हुयी बताती है,”तेरे गर्भ में ?” तब पाताल लोक भी गूंजता है –
“नही!’
फ़िर भी उसे संतोष नही होता,इसलिए प्रत्येक आगन्तुक से पूछता है,पाषाण-हृदय जो ठहरा ! पर मनुष्य का कोमल हृदय रो देता है और वह हर एक को रुलाये बिना मानता ही नही |
नोट- विडियो में शब्द स्व. तनसिंह जी द्वारा लिखित है और आवाज सीजी रेडियो के सौजन्य से|
श्रधेय तन सिंह जी की अद्भुद -लेखन शैली को सुमधुर आवाज में पिरोने के लिए रतन सिंह जी व् श्रीजी रेडियो का बहुत -बहुत आभार ।
RECENT POST: जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें.
वीरता, शौर्य और आत्मसम्मान का इतिहास।
दर्द बहुत गहरा था ,बयां कर ना पाया ,
तेरे दर्द के दर्द ने ,मुझे भी बहुत रुलाया ।
सवाल सिर्फ तेरी जिंदगी का ही नहीं ,
मेरी जिंदगी पर भी सवाल उभर आया ।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
बहुत सुंदर और शौर्यपूर्ण गाथा.
रामराम.