गौड़ बंगाल का राजा रणजीत गौड़ हिन्दाल से युद्ध करता हुआ मारा गया। उसके चंपावत नगर को एक रानी बाघेली थी। रानी बाघेली के हरचन्द नाम का पुत्र हुआ। हरचन्द के दो जुडवा पुत्र थे उनके नाम (1) वत्सराज एवं (2) वामन था। ये दोनों राजकुमार अपने काफिले के साथ 12 वीं शताब्दी में पुष्कर आये। वहां से वे अजमेर पहुंचे। उस समय अजमेर चौहानों की राजधानी थी। अजमेर के तत्कालीन शासक विग्रहराज चतुर्थ ने इन गौड़ राजकुमारों के व्यक्त्तिव एवं साथी सैनिकों को देखकर अपने पास रखने का विचार किया। विग्रहराज ने उन दोनों भाइयों को अपने पास रखकर अपने अधिनस्थ नागौर एवं परबतसर के विद्रोही दहिया राजपूतों को काबू में करने के लिये भेजा। वत्सराज एवं वामन ने अपने गौड़ सरदारों की सहायता से दहियों को दबा कर शान्ति स्थापित की। जिससे प्रसन्न होकर अजमेर नरेश ने वत्सराज को केकड़ी, जूनीया, सरवाड़ तथा देवलिया के परगने दिये तथा वामन को कुचामन एवं मारोठ का स्वामी बनाया। इस प्रकार गौड़ राजपूत अजमेर को अपने वतन की जागीर मानकर कालान्तर में अजमेर के स्वामी बन गये थे। इस कथा का नायक गोपालदास इन्हीें गौड़ों का वंशज था।
गोपालदास गौड़ ने अजमेर परगने को छोडकर जाने का निश्चय किया, प्रारम्भ में तो गौड़ अजमेर के स्वामी थे। बाद में अजमेर शहर बादशाह के सूबे में रहा, जिससे परेशानी रहती थी। चौथे पाँचवे वर्ष सुवायत बदल दी जाती थी जिससे कठिनाई बढती रहती थी।
गौड़ अपनी भूमि होने के कारण विपत्ति के दिन काट रहे थे। गौड़ों में गोपालदास जैसे योग्य पुरुष ने जन्म लिया। उन्होंने गौड़ों को इकटठा किया और कहा आप सब यहां दयनीय स्थिति में जी रहे है। राज्य तो गया केवल परगने के नाम पर रुके बैठे हो। परन्तु परगने का कर माँगते है, इस प्रकार हमारा शोषण हो रहा है। कोई पूछने वाला नहीं। जमींदारी (जागीर) टूटने पर कोई (कद्र) इज्जत नहीं करता। इस प्रकार आपका कृषि का धंधा भी बन्द हो जायेगा।अभी तक तो हम सब ताकतवर है, जब ताकत टूट जायेगी तब कोई नहीं पूछेगा। यदि आप सब मिलकर एक साथ चलोगे तो कहीं अच्छी जागीर मिलेगी। अन्यथा मैं तो यहां से जाऊंगा।
तब गौड़ों ने कहा-
जो फुरमावस्यो आप सो, करस्यां म्है सब लोग।
सुमति सु भगवान की, देसी आगे भोग।।
संपूर्ण गौड़ एकमत होकर चलने को तैयार हो गये, उनमें अग्रणी गोपालदास थे, शेष सभी भाइयों ने उनके आदेश का पालन किया। दौड़ों की पांच हजार बैल गाडियां जोती गयी। एक हजार घोड़ों पर जिन कसे गये। चार हजार पुरुष तलवार चलाने वाले साथ चलें। इस अजमेर परगने से गौड़ दक्षिण में बीजापुर के बादशाह की सेवा प्राप्त करने के लिये सपरिवार चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते बूंदी पहुंच कर रात्रि विश्राम हेतु डेरा लगाया।
उस समय बूंदी में हाडा राजपूतों का शासन था। बूंदी का शासक भोज हाडा राजपूत था। राजाभोज उस समय बादशाह जहांगीर के पास लाहौर तथा कश्मीर में नियुक्त था।
बूंदी में उसकी राणी शासन प्रबन्ध चलाती थी, जो काफी समझदार तथा बुद्धिमति थी। वह बिना पगड़ी की पुरुष ही थी। राज्य का सारा काम रानी के समाने बैठकर उसके दीवान करते थे। काम-काज के प्रश्न-उत्तर स्वयं रानी सुनती और आदेश भी रानी ही देती थी। गौड़ों के आकर रात्रि विश्राम करने की सूचना गुप्तचरों ने रानी को दी। रानी ने तत्काल दीवान को बुलाकर गौड़ों के प्रबन्ध के लिए पांच सौ रूपये रोकड़ी, बीस मन मिठाई, एक सौ जादी घास की उनके डेरे पर भेजी।
रानी ने गोड़ों को बूंदी में ही रुकने तथा बसने का आग्रह किया। प्रारम्भ में तो गोपालदास गौड़ ने वहां रुकने से मना कर दिया, पर रानी के निरंतर आग्रह तथा लखेरी और कई बड़े परगनों की जागीरदारी लेकर गोपालदास अपने दल बल के साथ वहां रुक गए।
गोपालदास ने चारों तरफ के धुलकोट को मजबूत कराया तथा अच्छी तरह से रहने लगे। बस्ती की देखभाल सही ढंग से करने लगे। अपने परगने की सुरक्षा व्यवस्था बहुत अच्छी कर दी। चोर डकैतों का भय मिट गया। बस्ती में अच्छे-अच्छे व्यापारी आकर बस गये। लखपति व्यापारियों ने लाखेरी में आकर अपना धन्धा चालू किया, जिससे दो वर्षो में ही बहुत अच्छी आमदनी हुई। जब सबको सुरक्षा व्यवस्था का अच्छा अवसर मिलता है तो सभी प्रकार से विकास होता है, जिससे जन-मानस में प्रसन्नता व्याप्त होती है तथा सभी लोग एकमत होते है। गोपालदास को सब अपना सरदार (मुखिया) मानते थे। सब लोग उनके आदेश की पालना में तत्पर रहते थे। गोपालदास भी अपने सभी लोगों को अपने बराबर ही समझते थे, इसलिये वे सब उन्हें अपना सच्चा सरदार (मुखिया) मानते थे।
एक बार-दो नवाब इसाबेग मुगल तथा युरोखां पठान चोरों, डकैतों का एक गुण्डा गिरोह बनाकर लोगों को लुटने के लिये निकल पड़े। बादशाह जहांगीर के राज्य में इन डाकुओं ने बड़ा आतंक फैलाया। बादशाह कश्मीर में था और इन दोनों बागियों ने उसके राज्य की जनता से (टका) रुपया वसूल करने लगे। वे कहते या तो खर्चा दो या फिर मरने को तैयार हो जावो। दो-तीन जगह उन्होंने भारी मार काट व लूट-खसोट की, जिससे इनका लोगों में भयकर आतंक छा गया। राजा लोग उनकी माँग पूरी करने को मजबूर हो गए। इन दोनों ने मालवे में उज्जैन के सूबेदार से भी खर्चा लिया, राणाजी से भी धन वसूल किया। हाड़ौती में धन वसूल करते हुये बूंदी आ पहुंचे।
बूंदी शहर से एक कोस दूर एक पहाड़ी के उस तरफ उन लोगों ने अपना पड़ाव डाला। उनके पास बीस हजार आदमी तथा हाथी थे।
बूंदी पर दबाव डाला। बूंदी के प्रधान उनके पास गये। उन्होंने पच्चीस लाख रुपयों की माँग की। प्रधान ने आकर बूंदी के पांच हजार लोगों को बुलाकर उनकी राय पूछी। गोपालदास के पास लाखेरी आदमी भेजा कि इस प्रकार की विपत्ति आ गई है। आप शिघ्र पधारे। आप की सम्मति से ही काम होगा।
तब गोपालदास लाखेरी से तीन हजार सवार तथा दो हजार पैदल सैनिक साथ लेकर बूंदी पहुंचे। दरबार में आकर बैठे। रानी चिक (पर्दा) लगाकर झराखेे में बैठी, दीवान व सभी उमराव दरबार में उपस्थित हुए। विचार विमर्श शुरू हुआ।
गनीम आयो जोर कर, मांगे लाख पचीस।
करणों अब की चाहिजे, देउ सलाह अबनीस।।
उन्हें दबायेंगे तो बीस लाख रूपये लेकर राजी होगा। यदि लड़ेंगे तो उनका मुकाबला नहीं कर सकेंगे। उनके पास सेना बीस हजार है फिर (मुल्क) प्रदेश सम्भव नहीं है। इसलिए आप जैसी सलाह देंगे वैसा करेंगे।
अगले दिन प्रातः काल प्रधान को साथ लेकर दो सौ सवारों के साथ गोपालदास उन दोनों नबाबांे के पास पहुंचे। वहाँ जाकर दोनों से मिले, बातचीत की। आपस में विवाद हुआ। तब उन्होंने दबाव दिया।
गोपालदास ने कहा दस लाख नकद रूपये लेकर पन्द्रह दिन में यहां से प्रस्थान कराओ
यह सुनकर पठान क्रोधित होकर बोला-
फजर होते ही लेऊंगा रुपया लाख पच्चीस।
न देवो तो देखणा, काट गिराऊं शीश।।
सीधे पण सूं ना धरो, हो हिन्दू बद जात।
मार गिराऊं गरद में, लुटंूगा परभात।।
अन्त में बात साढ़े 12 लाख में ते हुयी
डेढ़ पहर दिन चढने पर वापिस बूंदी पहुंचे। दीवान ने सारी बातें रानी को सुनाई। राणी सारा वृतान्त जानकर बोली- “बहुत अच्छा किया पच्चीस लाख का बाहर लाख कराया तथा पन्द्रह दिन का समय निश्चित किया। सभी लोग गोपालदास की प्रशंसा करने लगे कि गोपालदास ने ही हमारी बात रखी है।
दोपहर बाद गोपालदास अपने योद्धाओं को युद्ध की वेशभूषा में तैयार कर अपने साथ लेकर पूरी तैयारी के साथ बूंदी के दरबार में आये, सभी साथियों, सरदारों को एकत्रित किया। कुंवर साहब को बाहर बुला कर कमर बंधा कर तैयार किया।
उमराव तथा दीवान ने गोपालदास से पूछा यह तैयारी कैसी?
गोपालदास बोले (कजियो) युद्ध करेंगे।
तब सब बोले-
देण लेण सै तै हुवो, राणी कियो कबूल।
कासू बिगड़ी अब कहो, कजियो करो फिजूल।।
गोपालदास बोले-
जद आपां देवा टका, सूरज रथ खैंचे जणा।
रजपूती छे हाथ में, टका लेवण नूं घणा।।
ऐसी बात सुन कर सभी तरह-तरह की बातंे करने लग गए।
तब राणी ने कहा-
भावै सों ठाकुर करै, अड़ी करो मत कोय।
इनकी मैं मानु सदा, होणी हो सो होय।।
गोपालदास बोले कंुवर साहब तत्काल घोड़े पर सवार हो जावें। दीवान तथा उमरावों ने कहा कुंवर साहब बालक है। इन्हें यही रहने दो हम सब साथ है।
गोपालदास बोले-
क्यों कर हाला कुंवर बिन, सब रहिस्या इण पास।
डर लागे किण सूं तुम्हंे, बार्ता करो उदास।।
राणी ने जवाब दिया-
सगली बार्ता दुरुस्त छे, कुंवर जायसी आज।
मो नूं डर कुछ भी नहीं, राखे गोविन्द लाज।।
सब तैयार होकर घोड़ो पर सवार हुए और नबाब के पडाव की तरफ चल दिये। सूर्यास्त से दो घड़ी पहले उन पहाड़ो के पास जाकर रुके। वहाँ गोपालदास बोले-
इस जगह कुंवर जी को खड़ा रखो और बूंदी के सभी लोग इनकी सुरक्षा के लिए इनके पास रहो।
तब साथ वाले बोले सब को यहां क्यों खड़ा रखते हो ? दस-पांच आदमी कुंवरजी के पास छोड़ दो (बाकी) शेष सभी काम के आदमी साथ चलो। गोपालदास बोले यह परेट बांध कर लड़ाई नहीं है (दोहा छछोहा) छापा मार आक्रमण है। ठाकुर जी हमारा साथ देंगे और सफलता मिलेगी तो करनाल बजावे उस समय तुरंत आ जाना। नहीं तो जैसा अवसर देखो वैसा करना।
ऐसा कहकर बूंदी की सारी सेना को वहीं खड़ाकर दिया। अपने सभी साथियों को साथ लेकर गोपालदास आगे बढ़े। पहाड़ी को पार करते समय सूर्य भगवान अस्त हो गये। गोधूली बेला का समय था। डेरे में सभी लोग खाना बनाने में व्यस्त थे। . चारों और धुआं फैला कर अपने कुंवर बलरामसिंह ने कहा-
आधो संग ले साथ तुम, करहु मुगल पर मार।
बाकी संग रे साथ हम, देहि पठाण नूं मार।।
अहडो तांतो भेल जे, पहुंचे ममरे द्दार।
फेर कचाई ना रहे, करजे गहरों वार।।
राजपूती रे नाम हित, है यह अवसर आज।
बेटा रण कर जीव सूं मत ना करजे लाज।।
जिण घर खायो अन्न हम, तिण घर संकट देख।
आज दिखादे चाकरी, ईश्वर रख से टेक।।
तब बलरामसिंह ने उत्तर दिया-
फिकर करा मत आप तो, आप रहो खुश हाल।
ठाकुरजी करसे भली, मुगल हनू तत्काल।।
रण जीतण ओसर करण, हरि भज खेती जोय।
मन वांछित से कामना, एक मनो सिध होय।।
अपने सभी सैनिक एव सरदार एक सूत्र में है। आप चिन्ता मत करो। पुत्र राजपूती पर आच न आने देगा।
इतना कर योजना अनुसार नवाब के शिविर में घुस गये। सैनिकों ने पूछा आप लोग किसके साथ है तो उत्तर दिया टका देने आये है। आगे बाजार में पहुंचे तो लोगों ने फिर पूछा तो उनकी भी यही उत्तर दिया। बाजार के मध्य में व्यापारियों, मोदियों तथा सर्राफों की दुकानों पर पूछा किसका साथ है ? तो उत्तर दिया नजराना (टका) देने आये है।
उन्होंने कहा इतना साथ क्यों है ? नजराना के तो ऊंट व गाढे होते है एक भी नजर नहीं आते। आप इतनी तैयारी के साथ आये हो, कौन हो ?
इतना सुनते ही घोड़ों की बागें खिंची। घुड़सवार सैनिक डेरे में जा घुसे। पैदल सैनिक बायें तथा दायंे भाग में प्रवेश कर गये। वे लोग अपनी-अपनी जगह घर लिये गये। डेरे में पहुचे कर भयंकर मार काट मचा दी। दोनों नवाबों के पास दस-दस नौकर थे, वे तो भाग गये। दोनों नवाब नमाज पढने में लगे थे। दोनों को मार दिया गया। वीर बलरामसिंह ने मुगल ईसाबेग का सिर काट कर उसे हाथ में लेकर गोपालदास के पास आकर कहा-
लायो मस्तक काट कर, हराम खोर नूं मार।
आवै सारो लोग जे हमें करो करनार।।
जो लोग भाग गये है उनका पीछा करके उन्हें मार डाले।
तब गोपालदास ने कहा- भागे हुए लोगों से कोई लेना देना नहीं है। जिन पर आप चढाई करो। हम लोग किसी के नौकर नहीं है। हम तो (मुकातगीर) इजारेदार है जो घर जाकर खाना खायेंगे। यदि हमारी जागीर हो, हमारा प्रदेश हो और उसकी पैदावार हमंे मिलती हो तो पीछा भी करंे ऐसा तो कुछ नहीं आप तो नकदी माल संभालो।
दोनों बागी नवाबों के (कारखाने) मालखानांे को संभाला। रुपया, सोना, जवाहरात अच्छी-अच्छी सारी वस्तुएं ऊंटो तथा गाडों में भरकर सीधी लाखेरी भेज दी।
आधी रात तक लश्कर को अच्छी तरह लूट कर माल असबाव के छकड़े भरकर बाद में करनाल बजाई।
करनाल की आवाज सुन कर हाडा सरदार तुरन्त आ गये। हाथी, घोड़ा, तम्बू तथा सारा जखीरा युद्ध सामग्री कुंवर जी को नजर की तथा ईसाबेग मुगल तथा पठान सूसे खां दोनों के कटे हुए सिर कुंवरजी को नजर किये। सब लोगों ने (मुमारखी) दी। पूरे लश्कर को देखते संभालते प्रातः काल हो गया। शत्रु सेना के सात हजार आदमी मारे गए। शेष घायल होकर भाग गये, उनमंे से कुछ रास्ते में मर गये। कुछ लोग जीवित भाग गये।
सारा सामान, माल असबाब संभाल कर शहनाई तथा नौबते बजाते हुए बूंदी में प्रविष्ट हुए। लोग उनके स्वागत सत्कार में मंगल कलश सजा कर आये।
राणी ने जब सारी बातें सुनी तो गोपालदास की अगवानी पर उनचास हाथी और पांच सौ घोड़ा गोपालदास को पुरस्कार स्वरूप प्रदान किये।
गोपालदास ने कहा-
हम तो आपके सिपाही ही है। इसलिए इनको आप ही रखो। हम इनको क्या खिलायेंगे। रानी ने बहुत दबाव दिया तब गोपालदास ने एक हाथी स्वीकार किया।
बहुत खुशी मनाई गई। बधाई के गीत गाये गये। सारी वास्तविक घटना का वर्णन लिखकर तथा दोनों नबाबों के सिर कपड़े में सीं कर बूंदी के राजा भोज के पास दो संदेश वाहक भेजे गये। राजा भोज हाडा सारी घटना को जानकर बहुत खुश हुए। दोनों सन्देश वाहकांे को बधाई दी गई। राजा भोज तुरंत सवार होकर बादशाह जहांगीर की सेवा में अपस्थित हुए। घटना की पूरी जानकरी देकर दोनों नबाबों के सिर बादशाह को नजर किये।
बाद में राजा भोज हाडा ने गोपालदास के विषय में अर्ज की। तब बादशाह ने फरमाया कि यदि वे वापिस अजमेर जाकर रहे तो टोडा, मालपुरा उन्हें दे दिया जावेगा कोई किसी बात की खिंचल सेवा चाकरी नहीं लेंगे। फिर यहां आने पर अन्य कोई स्थान दंेगे।
तब राजा भोज हाडा ने सारे समाचार अपनी रानी को लिख दिये और लिखा मऊ का परगना गोपालदास को दे देना। दूसरी जगह भी लेना चाहे वही दे देना।
लेखक : सचिन सिंह गौड़
संपादक : सिंह गर्जना (हिंदी पत्रिका)