सुण रै म्हारी सखी सहेली,
किती सुखी है आ छोटी सी चिड़कली |
जद मन करै रुंख पै आवै,
जद मन करै आकास में फुर सूं उड़ जावै |
सुण रै म्हारी सखी सहेली,
आज्या चालां आपां भी उड़बा बाळपणा मै |
खावां खाटा-मीठा बोरया, अर काचर-मतिरा
आज्या मौज मनावां कांकड़ मै |
आज्या घर बणावां माटी का, गळीयारा में
खेलां चोपड़ – पासा, तिबारा में |
लै खेलां लुख -मिचणी ओ रयुं
तूं लुख्ज्या म्हूँ तनै हैरुं |
किती सुखी है आ छोटी सी चिड़कली
न तो ब्याह की चिंता, न ही सासरै आणों-जाणों
अर न ही घुंघटो पड़े काढणों |
सुण रै म्हारी सखी सहेली,
चाल बाळपणा नै देवां झालो
आज्या हिंडोळा हिंडा सावण-तिजां मै
अर पूजां ईसर-गौर, गणगौरां मै |
लै आपां गुड्डी बणावां चिरमी-चिप्ल्या की
आज ओळयूं आई पाछी ,पेल्याँ की |
राजुल शेखावत
बाळपणा = बचपन,झालो = पुकारना, रुंख = पेड़, बोरया = झाड़ी के बेर,कांकड़ = खेत खलिहान,हिंडोळा = झूले, ओळयूं = याद
बचपन को याद दिलाती यह कविता ….बेहद सुंदर …
ओह! सुन्दर। इसे यदि जीवन्त सुना जा सकता तो कितना आनन्द आता?
wowww chidakli kya khubsurti se bachpan likha h .. suparb
वो कविता है ना "न अहा बाल्य जीवन भी क्या है क्यों न इसे सबका मन चाहे" याद आ गयी. वास्तव में आपने बाल्य जीवन को बहुत ही सुंदर शब्दों से संजोया है. उत्तम कविता. आपको साधुवाद
महिपाल सिंह राठौड़
वो कविता है ना "न अहा बाल्य जीवन भी क्या है क्यों न इसे सबका मन चाहे" याद आ गयी. वास्तव में आपने बाल्य जीवन को बहुत ही सुंदर शब्दों से संजोया है. उत्तम कविता. आपको साधुवाद
महिपाल सिंह राठौड़