ऐसी दशा में इस महत्त्वपूर्ण बौद्धिक सामग्री को बचाने के लिए बीकानेर के विद्यानुरागी महाराजा अनूप सिंह जी (1669-1698) ने बहुत बड़ा कार्य किया| महाराजा अनूपसिंह जी औरंगजेब की ओर से दक्षिण के कई अभियानों में शामिल रहे| अपनी दक्षिण तैनाती में महाराजा अनूपसिंह जी ने इस बौद्धिक सामग्री के महत्त्व को देखते हुए इसे बचाने का निर्णय लिया और उन्होंने ब्राह्मणों को प्रचुर धन देकर उनसे पुस्तकें खरीदकर बीकानेर के सुरक्षित दुर्ग स्थित पुस्तक भंडार में भिजवानी शुरू कर दी| बीकानेर के इतिहास में इतिहासकार ओझा जी लिखते है- “यह कार्य कितने महत्त्व का था, यह वही समझ सकता है, जिसे बीकानेर राज्य का सुविशाल पुस्तकालय देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो| यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराजा अनूपसिंह जी जैसे विद्यारसिक शासकों के उद्योग फलस्वरूप ही उक्त पुस्तकालय में ऐसे ऐसे बहुमूल्य ग्रन्थ अब तक सुरक्षित है, जिनका अन्यत्र मिलना कठिन है| मेवाड़ के महाराणा कुम्भा के बनाये हुए संगीत-ग्रन्थों का पूरा संग्रह केवल बीकानेर के पुस्तक भंडार में ही विद्यमान है| ऐसे ही और भी कई अलभ्य ग्रन्थ वहां विद्यमान है| ई.स.1880 में कलकत्ते के सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने इस बृहत् संग्रह की बहुत-सी संस्कृत पुस्तकों की सूची 745 पृष्ठों में छपवाकर कलकत्ते से प्रकाशित की थी| उक्त संग्रह में राजस्थानी भाषा की पुस्तकों का बहुत बड़ा संग्रह है|”
सिर्फ बौद्धिक सम्पदा ही नहीं, महाराजा अनूपसिंह जी ने दक्षिण में रहते हुए सर्वधातु की बनी बहुत सी मूर्तियों की भी रक्षा की और उन्हें मुसलमानों के हाथ लगने से पहले बीकानेर पहुंचा दिया, जहाँ के किले के एक स्थान में सब की सब अबतक सुरक्षित है और वह “तैंतीस करोड़ देवताओं के मंदिर” के नाम से प्रसिद्ध है|
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