हिन्दुत्त्व के रक्षकों का इतिहास खंगाला जाय तो राजस्थान के इतिहास में कई राजाओं के नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखे पाये जायेंगे। हिन्दुत्त्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों व बड़े से बड़ा त्याग करने वाले वीरों की राजस्थान में लम्बी श्रंखला रही है। इसी श्रंखला में बीकानेर के महाराजा कर्णसिंह जी का नाम इतिहास में प्रमुखता से लिखा गया है। भारत में चाहे मुस्लिम शासक हों या अंग्रेज, दोनों ने ही भारतीय संस्कृति को तोड़ने, कमजोर करने के लिए भरसक प्रयास किये। ये तत्व जानते थे कि भारत की जनता अपने राजाओं को आदर्श मानती है। अतः इन सांप्रदायिक ताकतों ने भारतीय राजाओं को धर्म भ्रष्ट करने या उनका धर्म परिवर्तन कराने की कुचेष्टाएं की। मुगल शासकों में जहाँ अकबर ने हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता रखते हुए, राजपूतों को सहयोगी बना अपना साम्राज्य बढाया, वहीं औरंगजेब की छवि कट्टरपंथी शासक के रूप में रही।
औरंगजेब ने भरपूर कोशिश की कि कैसे भी करके राजपूत राजाओं को मुस्लिम बना दिया जाए, फिर उनके देखा-देखी भारतीय जनता स्वतः इस्लाम अपना लेगी। अपनी इसी कोशिश के तहत एक बार औरंगजेब ने राजस्थान के राजाओं का छल-बल से धर्म परिवर्तन कराने की योजना बनाई। यदि बादशाह की वह योजना सफल हो जाती तो आज राजस्थान में ही क्या, भारत में हिन्दुत्त्व की क्या स्थिति होती, उसका अनुमान आप आसानी से लगा सकते है। जब सब राजा ही मुसलमान बन जाते तो प्रजा अपना धर्म कहाँ बचा पाती।
अपनी इस इस योजना को दृढ़ता से पूर्ण करने के लिए राजस्थान के सभी राजाओं को बिना उनकी सेनाओं के साथ लेकर बादशाह ने ईरान की और प्रस्थान किया। रास्ते में अटक नदी पर डेरा डाला गया। बिना किसी ठोस कारण और उद्देश्य की इस यात्रा को लेकर उसके साथ जा रहे राजाओं के मन में कई तरह के सन्देह उत्पन्न हो रहे थे। अतएव अटक नदी पर अपने शिविर में राजाओं द्वारा आपस में सलाह मशविरा कर औरंगजेब की मंशा का पता लगाने की योजना बनाई गई। इसी योजनानुसार बीकानेर के महाराजा कर्णसिंह जी ने साहबे के सैय्यद फकीर जो उनके साथ ही था, को बादशाह औरंगजेब के असली मनसूबे का पता लगाने को भेजा। उस फकीर को अस्तखां के माध्यम से पता चला कि बादशाह सभी राजाओं को जबरन मुस्लिम बनाना चाहता है। इसीलिए इन राजाओं की सेनाओं को अन्यत्र भेजा गया है और अकेले राजाओं को अटक नदी पार कर जबरन धर्मान्तरण की योजना बनाई गई है। फकीर ने तुरंत यह खबर महाराजा कर्णसिंह जी को दी। खबर पता चलने पर सब राजाओं ने आपस में विचार-विमर्श किया और यह राय स्थिर की कि पहले किसी तरह मुसलमानों को अटक नदी के पार उतर जाने दिया जाए। जब पूरी मुसलमान सेना नदी पार कर जाये, तब राजाओं को लेने के लिए आने वाली नावों को तोड़कर सभी राजा अपने अपने राज्यों को लौट जाए। बाद में ऐसा ही हुआ। राजपूत सैनिकों ने यह कहते हुये पहले नदी पार करने की मांग की कि जब लड़ाई में राजपूत आगे होते है तो नदी पार भी पहले राजपूत ही करेंगे। उनकी इस मांग से मुस्लिम सैनिक व अधिकारी भड़क गए और पहले नदी पार करने की जिद करने लगे। यही सभी राजा चाहते थे। मुसलमान पहले नदी पार उतर गए तभी आमेर से महाराजा सवाई जयसिंह जी की माता जी के निधन का समाचार पहुंचा, जिससे राजाओं को 12 वहां रुकने का बहाना मिल गया। लेकिन 12 दिन बाद फिर वही समस्या।
तब सब राजाओं ने मिलकर महाराजा कर्णसिंह जी को अपना नेता घोषित कर उन्हें ‘‘जंगलधर पादशाह’’ का खिताब दिया और नावें तोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी, ताकि वापसी पर मुगल सेना राजाओं का पीछा नहीं कर सके। महाराजा कर्णसिंह जी ने हिन्दुत्त्व की रक्षा के लिए बादशाह औरंगजेब के कोप की परवाह नहीं की और राजाओं व राजपूत सैनिकों को लेने आई सभी नावें तुड़वा दी। फकीर को उसकी सेवाओं के बदले ईनाम के तौर पर उसी दिन से बीकानेर राज्य के प्रतिघर से प्रतिवर्ष एक पैसा उगाहने का हक दिया गया। औरंगजेब को जब यह समाचार मिले तो वह महाराजा कर्णसिंह जी पर बहुत नाराज हुआ। उसने दिल्ली लौटते ही बीकानेर पर आक्रमण के लिए सेना भेज दी। पर बाद में उनके महत्त्व को देखते हुए सेना वापस बुला ली गई और महाराजा को दिल्ली बुलाया गया। हालाँकि बादशाह औरंगजेब की योजना महाराजा कर्णसिंह जी की हत्या करवाने की थी। महाराजा का पासवानिया पुत्र वनमालीदास औरंगजेब की योजना में शामिल हो गया था। उसने यह अभिलाषा प्रकट की थी कि यदि उसे बीकानेर का राज्य दे दिया जाता है तो वह मुसलमान बन जायेगा। बादशाह ने उसे इसका आवश्वासन भी दे दिया था और महाराजा कर्णसिंह जी की हत्या का प्रबंध भी करवा दिया, लेकिन महाराजा के साथ उनके दो वीर पुत्रों केसरीसिंह व पद्मसिंह के आने की वजह से उनकी योजना धूमिल हो गई। तब औरंगजेब ने महाराजा को औरंगाबाद भेज दिया।
जयपुर राज्य की ख्यात के अनुसार- ‘‘जब यह खबर औरंगजेब ने सुनी तो वह अपने वजीर के साथ बीकानेर के राजा के डेरे में आया। सब राजाओं ने अर्ज किया कि आपने मुसलमान बनाने का विचार किया, इसलिए आप हमारे बादशाह नहीं और हम आपके नहीं। हमारा बादशाह तो बीकानेर का राजा है, सो जो वह कहेगा हम करेंगे, आपकी इच्छा हो वह आप करें। हम धर्म के साथ है, धर्म छोड़ जीवित रहना नहीं चाहते। बादशाह ने कहा- तुमने बीकानेर राजा को बादशाह कहा सो अब वह जंगलपति बादशाह है। फिर उसने सबकी तसल्ली कर कुरान बीच में रख सौगंध खाई कि अब ऐसी बात तुमसे नहीं होगी तथा तुम कहोगे वैसा ही करूंगा, तुम सब दिल्ली चलो, तब वे दिल्ली गए।
- परिचय
हिन्दुत्त्व के रक्षक महाराजा कर्णसिंह जी बीकानेर के महाराजा सूरसिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र थे। आपका जन्म वि.सं. 1673 श्रावण सुदि 6, 10 जुलाई 1616 को हुआ था। महाराजा सूरसिंह जी के स्वर्गवास के बाद आप वि.सं. 1688 कार्तिक बदि 13, 13 अक्टूबर 1631 को बीकानेर राज्य की गद्दी पर बैठे। बीकानेर के शासकों में महाराजा कर्णसिंह जी का विशेष व महत्त्वपूर्ण स्थान है। बादशाह शाहजहाँ के दरबार में उनका बड़ा ऊँचे दर्जे का सम्मान था और उन्होंने उस समय की भारत की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। महाराजा ने कई युद्ध अभियानों में वीरतापूर्वक भाग लिया और कई महत्त्वपूर्ण परगनों के शासक रहे। औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद आप सदैव उससे सतर्क रहे, क्योंकि आप उस धर्मान्ध व कट्टरपंथी बादशाह की मनोवृति व उसकी कुटिल चाले समझते थे। यही कारण था कि अटक नदी पर आई समस्या से निजात पाने के लिए राजस्थान के सभी राजाओं ने आपको ही अपना नेता चुना और आपने वह जिम्मेदारी साहस के साथ सफलतापूर्वक निभाते हुए उस समस्या से राजाओं को ही नहीं उबारा, बल्कि हिन्दुत्त्व की रक्षा की। इसी साहसिक कार्य को लेकर राजाओं ने आपको ‘‘जंगलधर पादशाह’’ की उपाधि से विभूषित किया।
यह आपके ऊँचे मनोबल व साहस का ही परिणाम था कि राजाओं के धर्म परिवर्तन की योजना विफल होने से कुपित हुए बादशाह द्वारा दिल्ली बुलाये जाने पर आप दिल्ली गए और निडरता से बादशाह का सामना किया। महाराजा कर्णसिंह जी स्वयं बड़े विद्वान व विद्यानुरागी थे और विद्वानों का आदर कर उन्हें आश्रय प्रदान करते थे। आपके आश्रय में विद्वानों ने कई ग्रन्थों की रचना की, जो आज भी बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में विधमान है।
लेखक : अभिमन्युसिंह राजवी (युवा भाजपा नेता, राजस्थान)