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Friday, September 22, 2023

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हिंदी पर बंदिश लगाने वाले आज सीख रहे हैं हिंदी

कुछ दिन पहले ये लेख एक मित्र द्वारा ई-मेल से प्राप्त हुआ साथ ही ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इसे पहुँचाने का अनुरोध भी | इसी अनुरोध के मध्यनजर ये लेख हुबहू पोस्ट कर रहा हूँ |
आप भी हिन्दी के बारे में जानकारी रखते है | एक और जानकारी इस लेख के माद्यम से प्राप्त करें और दुसरो को भी देने की कृपया कराएँ |
:-गुवाहाटी से विनोद रिंगानिया-:
राजनीतिक नारेबाजी को छोड़ दें तो व्यावहारिक धरातल पर भारतीय उपमहादेश में हिंदी की उपयोगिता से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। वे चरमपंथी अलगाववादी भी नहीं जो हिंदी विरोध को अपने राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा मानते हैं। असम के अलगाववादी संगठन उल्फा के बारे में भी यह बात सच है। प्रबाल नेओग उल्फा के वरिष्ठ नेताओं में से हैं। 17 सालों तक चरमपंथियों की एक पूरी बटालियन के संचालन का भार इन पर हुआ करता था। पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए सिरदर्द
बने अपने मुख्य सेनाध्यक्ष परेश बरुवा के निर्देश पर प्रबाल नेओग ने असम में कई हिंदीभाषियों के सामूहिक कत्लेआम को संचालित किया था। लेकिन वही नेओग आज इस बात को स्वीकार करने से नहीं हिचकते कि वे जल्दी से जल्दी अच्छी हिंदी सीख लेना चाहते हैं। प्रबाल के हिंदी प्रेम के पीछे है हिंदी का उपयोगिता। उनका कहना है कि भारत सरकार के अधिकारियों और राजनीतिक नेतृत्व के साथ हिंदी के बिना बातचीत की आप कल्पना ही नहीं कर सकते। पुलिस के हत्थे चढ़ चुके प्रबाल को हाल ही में कारावास से रिहा किया गया था। वे उल्फा के उस गुट का नेतृत्व कर रहे हैं जो अब भारत सरकार के साथ बातचीत के द्वारा समस्या को हल कर लेने का हिमायती है। ये लोग चाहते हैं कि उनका शीर्ष नेतृत्व सरकार के साथ बातचीत के लिए बैठे। हालांकि अब तक परेश बरुवा तथा उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है। बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के क्रम में प्रबाल तथा उसके साथियों का सेना तथा सुरक्षा बलों के अधिकारियों से साबका पड़ा। अमूमन राज्य के बाहर से आने वाले इन अधिकारियों के साथ विचार-विनिमय के लिए दो ही विकल्प हैं। हिंदी या अंग्रेजी। इसीलिए प्रबाल नेओग ने अपने साथियों को यह हिदायत दी है कि अभ्यास के लिए रोजाना आपस में हिंदी में बातचीत की जाए। भाषा सीखने का आखिर यह अनुभवसिद्ध तरीका तो है ही। प्रबाल का कहना है कि राष्ट्रीय मीडिया वाले अपनी सारी बातें हिंदी या अंग्रेजी में ही पूछते हैं। ऐसे में यदि उनके सवालों का जवाब असमिया में दिया जाए तो राज्य के बाहर वाले उसका मतलब नहीं समझ पाएंगे। इन्हीं कारणों से ‘हमारे लिए धाराप्रवाह हिंदी और अंग्रेजी बोल पाना जरूरी हो गया है’। प्रबाल का कहना है कि वे हिंदी अच्छी तरह समझ लेते हैं लेकिन बोल पाने में थोड़ी दिक्कत होती है। हिंदीभाषियों के कत्लेआम के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि सभी मुझ पर उंगली उठाते हैं लेकिन जो भी किया गया वह हाईकमान के निर्देश पर ही किया गया था। उनका कहना है कि वे कभी भी प्रत्यक्ष रूप से किसी भी हत्याकांड से नहीं जुड़े रहे। चरमपंथी नेओग स्वीकार करते हैं कि हत्या उल्फा की गोली से हो या सेना की गोली से, लेकिन जान किसी निर्दोष की ही जाती है। उल्फा के असमिया मुखपत्र स्वाधीनता तथा अंग्रेजी मुखपत्र फ्रीडम में अक्सर ‘हिंदी विस्तारवाद’ शब्दों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इन दो शब्दों के इस्तेमाल के द्वारा उल्फा असम में हिंदी की बढ़ती उपयोगिता का विरोध करता रहा है। किसी समय उल्फा ने असम में हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन पर भी बंदिश लगाई थी। उन दिनों सिनेमाघर मालिकों को हिंदी फिल्में दिखाने के लिए पुलिस सुरक्षा पर
निर्भर रहना पड़ता था। उल्फा के अलावा असम के पड़ोसी मणिपुर राज्य के चरमपंथी भी हिंदी का प्रबल विरोध करते रहे हैं। असम में चरमपंथियों के हिंदी विरोधी फतवे नाकामयाब हो गए, लेकिन मणिपुर की राजधानी इंफाल में आपको किसी भी सिनेमाघर में हिंदी फिल्में आज भी देखने को नहीं मिलेगी। यही नहीं केबल आपरेटर भी चरमपंथियों के डर से हिंदी चैनलों से परहेज करते हैं। नगालैंड के अलगाववादी संगठनों द्वारा हिंदी का विरोध किए जाने की बात सामने नहीं आई। एनएससीएन (आईएम गुट) के चरमपंथी सरकार के साथ बातचीत के दौरान इस बात की दुहाई भी दे चुके हैं कि उन्होंने कभी भी भारत की राष्ट्रभाषा का विरोध नहीं किया। पूवोत्तर के नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम में संपर्क भाषा के रूप में हालांकि अंग्रेजी का अच्छा-खासा इस्तेमाल होता है। लेकिन अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को ही संपर्क भाषा का स्थान प्राप्त है। इसी तरह मेघालय में भी भले ही पढ़े-लिखे लोग संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हों लेकिन औपचारिक शिक्षा से वंचित आम लोगों के लिए अपने कबीले से बाहर के लोगों से बातचीत करने का एकमात्र साधन हिंदी ही है। पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी प्रदेशों में बोलचाल की हिंदी का अपना ही अलग रूप है जो कई बार मनमोहक छवियां पेश करता है। जैसे, बस यात्रा करते समय अचानक आपके कानों में ये शब्द पड़ सकते हैं – ‘गाड़ी रोको हम यहां गिरेगा’।

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13 COMMENTS

  1. पूर्वोत्तर भारत के विषय में यह जानकारी देने का आभार. अच्छा आलेख प्रस्तुत किया.

  2. लेकिन अरुणाचल प्रदेश में हिंदी को ही संपर्क भाषा का स्थान प्राप्त है।

    आपने अच्छी जानकारी दी ! मेरा अरुणाचल आना जाना होता है ! शायद मैंने ध्यान नही दिया ! अबकी बार ध्यान से इस बात पर गौर करूंगा ! बहुत खुशी की बात है !

    रामराम !

  3. हम तो यहीं पर ही गिरेगा. 🙂
    कितने कमाल की बात है कि एक राजस्थानी आसाम के बारे में लिख रहा है. ये है हमारे देश की एकता.
    मन खुश हुआ आपका लेख पढ़कर.
    आपने जिन पूर्वोत्तर भारत के राज्यों की चर्चा कर दी है दुर्भाग्य से वह राष्ट्रीय परिदृश्य से काफ़ी हद तक कटा हुआ है.
    इस लेख की जितनी तारीफ़ की जाय कम है.

  4. संपर्क बनाए रखना है तो संपर्क भाषा सीखनी ही पड़ेगी. चीन वाले भी हिन्दी सीख रहे हैं क्योंकि उनको अपना माल बेचना जो है तो फिर अपना काम निकालने के लिए पूर्वोत्तर भारत के नेता भी सीखेंगे ही. सुंदर पोस्ट के लिए आभार.

  5. हिन्दी भाषा के विस्तार हेतु आपका यह लेख महत्वपूर्ण कङी का काम करेगा । लेख द्वारा दी गयी जानकारी के लिये धन्यवाद।

  6. (मेरे एक मित्र ने आपके चिट्ठे के लिये एक संदेश भेजा है)

    “अच्छा लेख था……….पता नही क्यों लोग क्षेत्रीय भाषाओँ को लेकर लड़ते रहते है? मैं एक बंगाली परिवार में पैदा हुआ, और मात्र भाषा के रूप में बंगाली बोलनी सीखी. घर पर हमारे बंगला ही बोली जाती है….मैं छत्तीसगढ़ में पैदा हुआ और वही पला बढ़ा. हिन्दी माध्यम में बारहवी तक की शिक्षा ली………..ख़ुद की मेहनत से बंगला भी पढ़ना सिख लिया………….मैं अब दोनों भाषाओँ को अच्छी तरह से बोल पढ़ सकता हूँ, और दोनों का आनंद ले सकता हूँ. मुझे या मेरे परिवार को तो ऐसा कभी नही लगा, की ‘हिन्दी’ हमारे भाषा या हमारी संस्कृति पर एक हमला है. अगर मेरे परिवार वाले इसी संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित होते, तो शायद हम कभी हिन्दी न सीख पाते. हम घर में बंगाली संस्कृति बनाये रखते है, और हिन्दी भाषी प्रदेश में रहने के बावजूद हमारे बंगाली परिवेश में कोई क्षरण नही हुआ है………
    मुझे दुःख होता है उन मूर्खो को देख कर, जो अपने प्रदेश में बैठ कर भी हिन्दी का विरोध करते है, हिन्दी के sing boards को काले रंग से पोत देते है……….उन्हें लगता है हिन्दी उनके संस्कृति को मिटा देगी……अगर यह बात सच होती, तो आज हम हिन्दी भाषी प्रदेश में रहते हुए भी, घर में बंगला न बोल रहे होते……..
    लोग एक विदेशी भाषा को अपना सकते है, पर एक देश की भाषा को ही जो सबसे ज़्यादा लोग बोलते और समझते है, उसे अपनाने से डरते है…..वाह रे मेरे देश वासियों!”

  7. सही कहा आपने ……मगर हिन्दी भाषी अभी भी अंग्रेज़ी ढकोसले से मुक्त नही हो पा रहे हैं.

  8. नवजुगा राजपुता रो , काई म्हे करा बखाण ,
    तज्यो बैण, तज्यो वाढलो, तज्यो निज भासा ग्यान |

  9. @ Rajasthani Vaata :
    नवजुगा राजपुता रो , काई म्हे करा बखाण ,
    तज्यो बैण, तज्यो वाढलो, तज्यो निज भासा ग्यान |

    एक दम साची बात करी हुकम…. देखौ सगळां नै… हिंदी रा बखाण कर रह्‌या है. खुद री भासा बोलणी कोनी आवै अर सिखण चाल्या परायी भासा….

    राजस्थांनी रै ग्यान बिन, ना बचैलो राजस्थांन
    ना बचेलो राजस्थान तो, ना रेवैला राजपुती अर ना रजपुती संस्क्रती

    जै राजस्थांन

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