माता कब की ”ममी” बना दी,
पिता को बना डाला ”डेड”
छोड़ छाड़ के सादी रोटी,
खुश रहते सब खाकर ”ब्रेड”
.
भाई बन गए कब के ”ब्रो”
बहन हो चुकी अब ”सिस”
संस्कारों की तो पूछो ही मत,
जाने कहाँ हो रहे ”मिस”
ताई ,चाची, बुआ, मामी ,
सभी बन गई ”आंटी”
ताऊ, चाचा, फूफा, मामा, के
गले में पड़ी ”अंकल” की घंटी.
यार दोस्त भी अब तो बन बैठे हैं सारे ”ड्यूड”
माँ-बाप अगर टोकें, बालक बोलें होकर ”रयुड”
बच्चों को अब नहीं पसंद पुराना ”पैजामा”
वाट्ज- अप बोलें भूल गए ”रामा-रामा”.
अंग्रेज तो चले गए यहाँ से कब के,
छोड़ गए अपनी संस्कृति की ”डब्बी”
बस अब और सहा नहीं जाता ”अमित”
अच्छे भले पति को जब बोलें ”हब्बी”…….
अंग्रेज चले गए, औलाद छोड़ गए।
अंग्रेज चले गए, लेकिन अपनी दुम छोड़ गए। शानदार व्यंग करती कविता।
मेरी नई पोस्ट "जन्म दिवस : डॉ. जाकिर हुसैन" को भी पढ़े। धन्यवाद।
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पिताजी को डैडी, माँ को मम्मी,
इंग्लिश के आगे हिंदी निक्कमी
बहन पुकारा तो मुह तोप जैसा,
मैडम पुकारा चमत्कार है कैसा!
चेहरा खिलकर कमल देखता हूँ,,
RECENT POST: रिश्वत लिए वगैर…
सच में, गंध मचा दी है..
अंग्रेजों के दुम पकड़ कब तक चलते रहेंगे,बहुत ही सार्थक प्रस्तुती।
शानदार व्यंग,
वाह उस्ताद वाह !
धन्यवाद सभी मित्रों का