प्रतिहार क्षत्रिय राजवंश का गुर्जर देश (वर्तमान गुजरात व राजस्थान का भाग) पर राज्य होने के कारण उन्हें इतिहास में गुर्जर नरेश संबोधित किया गया| इसी संबोधन को लेकर कुछ गुर्जर भाइयों को भ्रम हुआ कि प्रतिहार क्षत्रियों की उत्पत्ति गुर्जरों से हुई है और वे इसका जोर-शोर से प्रचार करने में लगे है, जबकि खुद प्रतिहार सम्राटों ने सदियों पहले लिखवाये शिलालेखों ने अपने आपको क्षत्रिय लिखवाया है| इस सम्बन्ध में इतिहास देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक “प्रतिहारों का मूल इतिहास” में उनकी उत्पत्ति से सम्बन्धित लिखा है-
इतिहास से प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार प्रतिहारों में मण्डोर (राजस्थान) के प्रतिहारों का पहला राजघराना है जिसका शिलालेखों से वर्णन मिलता है। मण्डोर के प्रतिहारों के कई शिलालेख मिले हैं जिनमें से तीन शिलालेखों में पड़िहारों की उत्पति और वंश क्रम का वर्णन प्राप्त है। उनका वर्णन इस प्रकार है-
- वि. सं. 894 चैत्र सुदि 5 ईसवी 837 का शिलालेख जोधपुर शहर पनाह की दीवार पर लगा हुआ है। यह शिलालेख पहले मण्डोर स्थित भगवान विष्णु के किसी मन्दिर में था। यह शिलालेख मण्डोर के शासक बाउक पड़िहार का है।
- वि. सं. 918 चैत्र सुदि 2 ईस्वी के दोनों ही घटियाला के शिलालेख हैं एक संस्कृत में लिखित है तथा दूसरा उसी भाषा का अनुवाद है। ये दोनों शिलालेख मण्डोर के पड़िहार के है।1 इन तीनों ही शिलालेखों में रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्र के भाई लक्ष्मण से इस प्रतिहारों कुल की उत्पत्ति होना वर्णित किया है। सम्बन्धित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। बाउक पड़िहार का जोधपुर का अभिलेख
स्वभ्रात्त्रा रामभद्रस्य प्रतिहार कृतं यतः, श्री प्रतिहार वड्शो यमतक्ष्चोन्नति माप्नुयात।3,4।
अर्थात्-अपने भाई के रामभद्र ने प्रतिहारी का कार्य किया। इससे यह प्रतिहारों का वंश उन्नति को प्राप्त करें। घटियाला अभिलेख
रहुतिलओपडिहारो आसीसिरि लक्खणोंतिरामस्य, तेण पडिहारवन्सो समुणईएन्थसम्पती।
अर्थात्-रघुकुल तिलक लक्ष्मण श्रीराम का प्रतिहार था। उससे प्रतिहार वंश सम्पति और समुन्नति को प्राप्त हुआ। इसी अभिलेख में दिया हैं कि संवत् 918 चैत्र माह में जब चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में था, शुक्ल पक्ष की द्वितीया बुधवार को श्री कक्कुक ने अपनी कीर्ति की वृद्धि करने हेतु रोहिन्सकूप ग्राम में एक बाजार बनवाया जो महाजनों, विप्रों, क्षत्रियों एवं व्यापारियों से भरा रहता था।
भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति
प्रतिहारों की उत्पति के विषय में ग्वालियर में मिली हुई कन्नोज के प्रतिहार सम्राट भोज के समय की प्रशस्ति में लिखा है कि –
मन्विक्षा कुक्कुस्थ (त्स्थ) मूल पृथव: क्ष्मापाल कल्पद्रुमाः।2।।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वजैषु घोरं,
रामः पौलस्त्य हिन्श्रं (हिस्रं) क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रे पलाशेः ।
श्लाघ्यस्तस्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तीव्रदंडः प्रतिहरण विर्धर्यः प्रतिहार आसीत् ।।3।।
तावून्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलोक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभटः पुरातन मुने मूर्तिब्बमूवाभिदुत्तम ।।2
अर्थात् ‘सूर्यवंश में मनु, इक्ष्वाकु, काकुस्थ आदि राजा हुए, उनके वंश में पौलस्त्य (रावण) को मारने वाले राम हुए, जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र (लक्ष्मण) था, उसके वंश में नागभट्ट हुआ। आगे चलकर इसी प्रशस्ति में वत्सराज को इक्ष्वाकु वंश को उन्नत करने वाला कहा है। इसी प्रशस्ति के सातवें श्लोक में वत्सराज के लिये लिखा है कि उस क्षत्रिय पुगंव ने बलपूर्वक भडिकुल का साम्राज्य छीनकर इक्ष्वाकु कुल की उन्नति की।
कवि राजशेखर सम्राट भोज, महेन्द्रपाल और महीपाल के दरबार में कन्नोज में था। वह महेन्द्रपाल का गुरु भी था। उसने विद्धशाल भंजिका नाटक में अपने शिष्य महेन्द्रपाल को रघुकुल तिलक लिखा है। बाल भारत में रघुग्रामणी लिखा और बालभारत नाटक में महेन्द्रपाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुतामणि लिखा है।3
रघुकुल तिलको महेन्द्रपाल: (विद्धशाल भंजिका, 1/6)
देवा यस्य महेन्द्रपालनृपतिः शिष्यो रघुग्रामणिः (बालभारत, 1/11)
तेन (महीपालदेवेन) च रघुवंश मुक्तामणिना (बालभारत)
चाटसू का बालादित्य गुहिल का वि. सं. 870 ईस्वी 813 का प्राप्त लेख है। इस अभिलेख में गुहिल वंश और उसके शासकों के वर्णनों में सुमन्त्र भट्ट की युद्ध वीरता, पराक्रम, शौर्य आदि के साथ कला प्रेमी होने की तुलना रघुवंशी काकुत्स्थ की समानता से की गई है। (रघुवंशी काकुत्स्थ भीनमाल के नागभट्ट प्रतिहार प्रथम का भतीजा था तथा उसके बाद भीनमाल का शासक हुआ।)
चौहानों के शेखावाटी के हर्षनाथ (पहाड़) के मन्दिर की वि. सं. 1030 ईस्वी 973 की विग्रहराज की प्रशस्ति में इसके पिता सिंहराज के वर्णन में लिखा है कि इस विजयी राजा ने सेनापति होने के कारण उद्धत बने हुए तोमर नायक सलवण को तब तक कैद में रखा जब तक कि सलवण को छुड़ाने के लिये पृथ्वी पर का चक्रवर्ती रघुवंशी स्वयं उसके यहाँ नहीं आया। इस रघुवंशी चक्रवर्ती का तात्पर्य कन्नोज के प्रतिहार सम्राट से हैं।
तोमरनायक सलवण सैन्याधिपत्योद्धतं
यद्धे येन नरेश्वराः प्रतिदिशं विन्ने (णार्णा) र्शिता जिष्णुना ।
कारावेश्मनि भूरयश्रुच विधृतास्तावद्धि यावद्गृहे
तन्मुक्तयर्थमुपागतो रघुकुले भू चक्रवर्ती स्वयम्।।4
ओसियां के महावीर मन्दिर का लेख जो कि वि. सं. 1013 ईस्वी 956 का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है उसमें उल्लेख किया गया है कि-
तस्या काषत्किल प्रेम्णालक्ष्मणः प्रतिहारताम्।
ततो अभवत् पतिहार वंशो राम समुवः ।।6।।
तद्वंद्भशे सबशी वशी कृत रिपुः श्री वत्स राजोऽभवत।5
अर्थात् लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया, अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में शत्रुओं को अपने वश में करने वाला श्री वत्सराज हुआ। जिसके द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों आदि की रक्षा की गई।
मंडौर के प्रतिहार क्षत्रिय वंश के, कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों के, चाटसू के गहलोतों के, साम्भर के चौहान आदि के लेख प्रतिहारों को रघुवंशी सम्राट रामचन्द्र के लघुभ्राता लक्ष्णम के वंशज होना सिद्ध कर रहे हैं।
सन्दर्भ :
- ज. रा. ए. सो, इस्वी-1895 पृष्ठ 517-18
- आर्कियालाजिक सर्वे ऑफ़ इंडिया, एन्युअल रिपोर्ट ईस्वी सन 1903 पृष्ठ 280
- राजपूताने का इतिहास, प्रथम भाग- पृष्ठ 65, ओझा
- एपियाग्राफिका इन्डिका, जिल्द-2, पृष्ठ 121-122
- राजस्थान के प्रमुख अभिलेख, सं. सुखवीरसिंह गहलोत पृष्ठ 122
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