आईये इन्ही ग्रामीण खेलों में कभी लोकप्रिय रहे बच्चो द्वारा खेले जाने वाले एक खेल झुरनी डंडा के बारे में चर्चा करते है –
इस खेल में संख्या की कोई बंदिश नहीं होती है जितने खिलाडी उपलब्ध हो सभी इस खेल में हिस्सा ले सकते है | इस खेल में एक खिलाडी बाहर होता है जिसे बाकि पेड़ पर चढ़े खिलाडियों के पीछे भागकर उन्हें पकड़ना होता है जो सबसे पहले पकड़ में आता है अगली पारी के लिए वह बाहर होता है |
इस खेल को शुरू करते समय एक खिलाडी अपने पैर के नीचे से एक डंडा फैंकता है और दौड़कर पेड़ पर चढ़ जाता है और जो खिलाडी बाहर है उसे दौड़कर पहले डंडा लाकर पेड़ के नीचे एक जगह गाड़ना पड़ता है उसके ऐसा करने तक अन्य सभी खिलाडी पेड़ पर चढ़ जाते है | बाहर वाला खिलाडी डंडा लाकर पेड़ नीचे एक जगह गाड़ कर पेड़ पर चढ़कर पेड़ पर चढ़े खिलाडियों के पीछे दौड़कर उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है और पेड़ पर चढ़े खिलाडी उससे बचने के लिए एक डाल से दुसरे डाल पर बंदरों की तरह भागते है जब कोई दूसरी डाल पर जाने का मौका नहीं मिलता तो वहीँ से नीचे कूद जाते है या ज्यादा ऊंचाई होने पर पेड़ की टहनियों को पकड़ कर फिसलते हुए नीचे आ जाते है व भागकर उस डंडे को पैर के नीचे से निकालकर कान पर छुआ लेते है लेकिन यह प्रक्रिया उसके पीछे भागते हुए बाहर वाले खिलाडी के छूने से पहले होनी चाहिए होती है | पेड़ पर चढ़े सभी खिलाडी यही प्रतिक्रिया दोहराते है और बाहर रहा खिलाडी उन्हें पकड़ने की कोशिश करता रहता है जो खिलाडी उसके सबसे पहले पकड़ में आ गया अगली पारी में वह बाहर रहकर अन्य खिलाडियों को पकड़ने के लिए पीछे भागेगा | पर हर बाहर वाले खिलाडी को पेड़ पर चढ़े हर एक खिलाडी को पेड़ से नीचे उतारना जरुरी होता है |
पेड़ की डाली पकड़कर नीचे की और फिसलने को हमारी स्थानीय भाषा में झुरना कहते है इसलिए इस खेल को हमारे यहाँ झुरनी डंडा कहा जाता है हो सकता है अलग-अलग जगह इस खेल को किसी अन्य नामों से जाना जाता हो |
गांव के बाहर एक पीपल का बड़ा पेड़ था जो बचपन में गर्मियों में गर्मी से बचने व दोपहर में झुरनी डंडा खेलने का हमारा मनपसन्द स्थल हुआ करता था अपने समूह के सभी बच्चे दोपहर में अपनी अपनी जेब में कांदा (प्याज) ,गुड़ ,भूंगडे व धाणी लेकर उस पीपल के पेड़ पर चढ़कर जमा हो जाते थे और फिर पूरी दोपहरी वहीँ झुरनी डंडा खेलना व धमा-चौकड़ी करते रहते थे | आज न तो वहां वो पीपल का पेड़ रहा और ना ही वैसी धमा-चौकड़ी करने वाले बच्चे | जब कभी उधर से गुरना होता है पीपल के पेड़ की वह खाली जगह देख बचपन की वे यादें चलचित्र की भांति मन मस्तिष्क में छा जाती है |
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ताऊ डाट इन: ताऊ पहेली – 84 (बेलूर मठ, प. बंगाल])
इसे हमारे यहाँ 'लखनी' कहा जाता था। 'था' लिख रहा हूँ क्यों को यह वाकई लुप्त हो चुका है।
लेकिन इसे खेलने वालों को लखेरा ही माना जाता था। कभी हाथ टूटते तो कभी पाँव में मोच ! अभिभावकों की सासत।
शायद यह खेल देश के अन्य ग्रामीण इलाकों में किसी और नाम से भी जाना जाता हो। इस प्रकार के खेलों के विलुप्त होने का नतीज़ा हम देख ही रहे हैं-शारीरिक और प्रतिरोधक क्षमता में ह्रास,बच्चों और किशोरों के चेहरे से सहजता का विलोप और असमय गुरु गंभीरता का विकास,सामंजस्यपूर्ण और सहजीवन की प्रवृत्ति का न होना आदि-आदि।
मैंने भी खुब खेला था. बहुत मजा आता था पेड़ पर भागने दौडने में.. अब न तो पेड़ है न इतना साहस.. क्योकिं इसमें घुटने छिलाना रोज की बात होती थी..:)
बड़ा ही मज़ेदार खेल है यह। बचपन में बहुत खेला है।
बहुत बढ़िया…ऐसे न जाने कितने खेल यह नव टीवी एवं कम्प्यूटर युग लील गया.
हमारे यहाँ इसे कलाम डाली बोलते है, पर हा अब बच्चो मे हो बात नहीं है की वो रोज अपने घुटने छिलाये,लेकिन आज के दौर मे जो जिम जाके अपनी शारीरिक क्षमता बढ़ाते है ,वो सब तब नहीं करना पड़ता था.क्युकी तब सारे खेल ही इसे खेले जाते थे .चुस्त दुरुस्त रखते थे .पर अब तो बस टी.वी,कंप्यूटर और विडिओ गेम ने सब को पीछे छोड़ दिया ,और साथ ही पीछे छुट गया स्वास्थ्य अब आप दुबले पतले बच्चे आँखों पे चश्मा चड़ाए देख सकते है.आजकल एक चोकलेट का विज्ञापन निकला है मिल्की बार का बड़ा ही प्यारा है .जिसमे कुछ बच्चे घर पर बेठ के टी.वी. कंप्यूटर और विडिओ गेम खेलते है ,और कुछ बच्चे बाहर साइकिलिंग करते है और तेराकी करते है,और अपनी चोटे उन बच्चो को दिखाते है जो घर पे बेठे है,और एक ही बात बोलते है की ,"दम है तो बाहर निकल "
झुरनी डंडा, लखनी, कलाम डाली…
बहुत बढ़िया जानकारी, हमें तो इस खेल के बारे में पता ही न था. अन्य खोये हुए खेलों का विवरण संकलित किया जा सके तो यहाँ ज़रूर कीजिये.
रतन जी बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने मैं भी इसके बारे में अपनी एक पोस्ट लिख चुका हूं हमारे यहाँ इसे कुराक डंका कहते बहुत मजा आता है इसे खेलने में परन्तु हमारा दुर्भाग्य कि यह खेल अब सिर्फ यादगार ही बन कर रह गये है।
http://sbhamboo.blogspot.com/2010/06/blog-post_27.html
हर बार की तरह दमदार मुद्दा
अच्छी जानकारी
ब्लाँगवाणी नही मोबाईलवाणी-मोबाईल फोन पर इंटरनेट चलाने वालो के लिये एक ब्लाँग एग्रीगेटर
हम जो मिलता जुलता खेल खेलते थे उसे काई-डंडा कहते थे. इसमें, जो पेड़ पर नहीं होता था उसे डंडा लग जाए तो, डंडा मारने की ड्यूटी उसकी हो जाती थी. इसलिए हम पेड़ से नीचे इस तरह उतरते थे कि डंडा अपनी तरफ आते ही उचक कर पेड़ पर चढ़ जा सके.
सही बात है, कि आज के बच्चे बहुत साफ़िस्टीकेटेड हो गए हैं अब वे इस तरह के मेहनत वाले खेल नहीं खेलते गांव में भी क्रिकेट पहुंच गया है… वे कंप्यूटर व मोबाइल गेम खेल खेलते हैं या फिर इंटरनेट व वीडियोगेम्स… समय निश्चय ही बदल गया है.
हमारे यंहा इसे क्या कहते है यह तो भाई सुरेन्द्र भाम्बू बता ही चुके है |क्यों की वे भी मेरे नजदीकी गाँव के रहने वाले है | आपकी पोस्ट जब भी अतीत की तरफ ले जाती है तो एक सूनापन का अहसास दिलाती है एक दर्द सा देती है |क्यों की हमारा अतीत भी आपकी तरह बहुत मजेदार रहा है |जिस पेड पर खेलते थे वो आज प्रदूषण की वजह से सूखा ठूँठ हो गया है |
हमने इसे ’लखनी ’ के नाम से खेला है ।
बहुत सुंदर लेख लिखा.. आप ने ठीक कहा आज सब कुछ खो सा गया है, धन्यवाद
ये खेल विभिन्न नामों से सभी जगह खेला जाता है।
हम भी खेलते थे। बरगद के या करंज के पेड़ पर।
इसे यहाँ "डंडा पचरंगा" कहा जाता है।
इस खेल के लिए, बरगद, पीपल, करंज, इमली, इत्यादि के पेड़ उपयुक्त होते हैं, जिनकी डालियाँ धरती से कम से कम 4-5 फ़िट तो उपर रहनी चाहिए।
अच्छी पोस्ट
राम राम
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं!
आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं!
बहुत लाजवाब जानकारी आपने नेट पर डाल दी. हमने भी बचपन में सारी गर्मी की छुट्टियों की दोपहरी इन्हीं खेलों मे निकाली. कई बार पेड से गिरे ..फ़िर चढे. घर वालों की डांट खाने के साथ साथ उनके जूते भी खूब खाये.:)
सही लिखा अपने अब ना वो खेल रहे ना वो जगह रही…रह गई तो सिर्फ़ यादें.
रामराम.