कवि कृपाराम जी द्वारा लिखित नीति सम्बन्धी राजिया के दोहे भाग-9
आछा है उमराव,हियाफ़ूट ठाकुर हुवै |
जड़िया लोह जड़ाव, रतन न फ़ाबै राजिया||
जहां उमराव तो अच्छे हो किन्तु उनके सहयोगी ठाकुर मुर्ख हो, तो हे राजिया !वे उसी प्रकार अशोभनीय लगते है जैसे रत्न जड़ित लोहा |
खाग तणै बळ खाय , सिर साटा रौ सूरमा |
ज्यांरों हक रह जाय, रांम न भावै राजिया ||
जो शूरवीर अपने खड्ग के बल पर और सिर की कुरबानी के बदले जिविका प्राप्त करने के अधिकारी बनते है,और यदि उनका हक बाकि रह जाय तो यह बात तो भगवान को भी नही भायेगी |
समझणहीन सरदार , राजी चित क्यां सूं रहै |
भूमि तणौ भरतार, रीझै गुण सूं राजिया ||
बुद्दिहीन सरदारो से राजा किस प्रकार प्रसन्न रहे,क्योकि वह तो गुणो से रीझने वाला है | गुण्ग्राहक व्यक्ति गुणहीन लोगो को कैसे पसन्द करेगा ?
बचन नृपति-अवेविक, सुण छेड़े सैणा मिनख |
अपत हुवां तर एक, रहै न पंछी राजिया ||
विवेकहीन राजा के दुर्वचन को सुनकर समझदार व्यक्ति उसी प्रकार उसका साथ छोड़कर चले जाते है, जैसे पत्तो से विहिन होने पर पेड़ के ऊपर एक भी पक्षी नही रहता |
जिणरौ अन जल खाय, खळ तिणसूं खोटी करै |
जड़ामूळ सूं जाय , रामं न राखै राजिया ||
जिस व्यक्ति का अन्न-जल खाया है, उसी के साथ यदि कोई गद्दारी करता है,तो उसका वंश सहित नाश हो जाता है,क्योकि ऐसे कृतध्न की तो ईश्वर भी रक्षा नही करता |
आछोड़ा ढिग आय ,आछोड़ा भेळा हुवै |
ज्यूं सागर मे जाय, रळै नदी जळ राजिया ||
सज्जनो के पास सज्जनो का समागम इस प्रकार सहज ही हो जाता है, जैसे नदी का जल स्वत: सागर मे जा मिलता है |
अरबां खरबां आथ, सुदतारां बिलसै सदा |
सूमां चलै न साथ, राई जितरी राजिया ||
दानवीर मनुष्यों के पास अरबों खरबो की सम्पति होती है, तो वे उसका संचय न करके सदैव उपभोग करते है | इसके विपरित कृपण लोग केवल संचय करते है, किन्तु अन्त समय मे राई के बराबर भी वह सम्पति उनके साथ नही जाती |
सत राख्यौ साबूत , सोनगरै जगदे करण |
सारी बातां सूत, रैगी सत सूं राजिया ||
विरमदेव सोनगरा (जालौर का), जगदेव पवांर(धारा-नगरी का) और कर्ण ने सत्य को पूर्णत: धारण किये रखा | सत्य पर अडिग रहने से ही उनकी सारी बाते सुचारु रुप से बनी रह गई |
कनवज दिली सकाज, वे सावंत पखरैत वे |
रुळता देख्या राज, रवताण्यां वस राजिया ||
कन्नोज और दिल्ली के जयचन्द और पृथ्वीराज जैसे अधिपतियों के पास वे सामन्त और घौड़े थे, किन्तु स्त्रियों के कारण वे राज्य बरबाद होते देखे गये | अर्थात विलासिता के प्रसंग किसी भी शासक के लिये घातक सिद्ध होते है |
अदतारां घर आय, जे क्रोड़ां संपत जुड़ै |
मौज देण मन मांय, रती न आवै राजिया ||
यदि कृपण लोगो के पास करोड़ो की सम्पति भी एकत्र हो जाय,तब भी उनके मन मे रीझ करने की भावना रत्ती भर भी जाग्रत नही होगी |
उण ही ठांम अजोग, भांणज री मन मे भणै |
आ तो बात अजोग, रांम न भावै राजिया ||
मनुष्य जिस बर्तन मे खाता है, और यदि उसी बर्तन को तोड़ने की बात मन मे विचारता है, तो यह सर्वथा अनुचित है और ईश्वर को भी अच्छी नही लगती |
अवसर मांय अकाज, सांमौ बोल्यां सांपजै |
करणौ जे सिध काज, रीस न कीजे राजिया ||
कार्य सफ़ल होने अवसर पर आने पर यदि सामने वाले से किसी बात पर तकरार हो गई तो बनता काम बिगड़ जायेगा | इसलिए यदि काम बनाना हो तो उसकी बात पर क्रोध मत करो, उसे पचा लो |
बहुत सुन्दर सुन्दर बातें हैं. हम यदि आत्मसात कर सकें तो जीवन सफल हो जावेगा. आभार.
लोकानुभव से सम्पृक्त और समृध्द ये सोरठे सचमुच मे सहेज कर रखने योग्य हैं। क्षणिक विपत्तियों मे मन विचलित होने की दशा में ये धैर्य बधाते और साहस बढाते हैं।
काव्य में गूढ़ ज्ञान को संजोने की परंपरा के सोरठे हैं ये और बहुत ही सुन्दर।
बहुत लाजवाब हैं जी. आपका ब्लाग एक दस्तावेज बनता जा रहा है.
बधाई आपको इस काम के लिये.
रामराम.
जिणरौ अन जल खाय, खळ तिणसूं खोटी करै |
जड़ामूळ सूं जाय , रामं न राखै राजिया | यह पद बहुत ही ज्ञान वाला है ।
बहुत ही अच्छी अच्छी बारे बांट रहे है आप .
धन्यवाद
अब तो राजीस्थान की भाषा सीख ही जाउंगा। बहुत बढीया बढीया बात है, सभी अच्छी बाते आपने लीखी हैं जो हमे जिवन मे चलना सिखा सकता है।