राजस्थान में आजादी के बाद से ही जाट नेता राजपूतों से दुर्भावना रखते आये है, यही कारण है कि आज भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के लिए केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्रसिंह शेखावत का नाम चल रहा है तो विरोधी बयान दे रहे है कि उन्हें प्रदेशाध्यक्ष बनाने से जाट नाराज हो जायेंगे| आपको बता दें भाजपा में आज राजपूत के साथ वही हो रहा है जो 1954 में कांग्रेस में राजपूतों को शामिल करने पर जाट नेताओं ने महसूस किया था| वर्ष 1954 में कांग्रेस को मजबूत करने व प्रदेश का विकास करने के उद्देश्य से तत्कालीन मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास ने 22 राजपूत विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर लिया था|
उनका यह कदम जाट नेताओं को रास नहीं आया, उन्हें लगा कि राजपूतों को कांग्रेस में जाटों को कमजोर करने के लिए लाया जा रहा है और जाट नेता कुम्भाराम आर्य ने मुख्यमंत्री व्यास के इस कदम का विरोध किया| शायद उस वक्त जाट नेताओं को लगा होगा कि कांग्रेस को राजस्थान में खड़ी करने में जाटों ने अहम् भूमिका निभाई है और अब जब सत्ता का स्वाद चखने का समय है तब राजपूतों को लाया जा रहा है| ठीक आज भाजपा में जाट नेताओं के प्रवेश पर राजपूत भी यही महसूस कर रहे है कि भाजपा को भैरुंसिंह जी के नेतृत्व में राजस्थान में स्थापित करने में राजपूतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की और अब जब भाजपा सत्ता में आने लगी है तो कभी भाजपा के घोर विरोधी रहे जाट आज सत्ता सुख पाने के लिए भाजपा में आकर राजपूतों के हकों पर डाका डाल रहे है, यही नहीं भाजपा में जाट वर्चस्व बढ़ने के बाद राजपूतों की उपेक्षा भी हो रही है|
आपको बता दें 1954 में 22 राजपूत विधायकों को कांग्रेस से जोड़ने की व्यास को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी| जाट नेताओं के विरोध का फायदा उठाते हुए मुख्यमंत्री व्यास के नजदीकी मथुरादास माथुर तक उनके खिलाफ हो गए थे| इस विरोध से जाट नेताओं को क्या हासिल हुआ हम नहीं जानते पर इस विरोध का फायदा मोहनलाल सुखाड़िया ने उठाया| इस विवाद के बाद व्यास को विश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा, जिसमें उन्हें सुखाड़िया के 59 मतों के सामने 51 मत ही प्राप्त हुए और मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी|
इस घटना के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए विजय भंडारी द्वारा लिखित पुस्तक “राजस्थान की राजनीति, सामंतवाद से जातिवाद के भँवर में” के पृष्ठ 66 पर विस्तार से पढ़ी जा सकती है|