आजादी के बाद से ही दलितों के साथ छुआछूत को लेकर स्वर्ण जातियां निशाने पर है| पर जब इतिहास उठाकर देखते है तो पता चलता है कि छुआछूत को लेकर जो आरोप लगाए जा रहे है वो सच कम, दुष्प्रचार अधिक है| इतिहास में ऐसे कई प्रसंग मिलेंगे जो साबित करते है कि उस काल छुआछूत नहीं के बराबर थी| ऐसा ही एक उदाहरण है मालाणी राज्य की रानी का | जी हाँ ! पश्चिमी राजस्थान में स्थित तत्कालीन मालाणी राज्य की रानी रूपांदे अपने ही राज्य के एक दलित के घर में होने वाले सत्संगों में भाग लेती थी|
मालानी के शासक रावल मल्लीनाथ जी की रानी रूपांदे बचपन से ही अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला थी| विवाह के बाद रानी रूपांदे अपने राज्य की राजधानी महेवा में होने वाले साधू-संतों के सत्संगों में सदैव हिस्सा लेती थी| उनकी राजधानी में धारु नाम का एक मेघवाल जाति का दलित रहता था, जो साधू-संतों के साथ रहकर खुद भी ज्ञानी संत हो गया था| उसके घर साधू-संतों के आगमन पर जागरण होते रहते थे| इन्हीं जागरणों में रानी रूपांदे धारु मेघवाल के घर आकर भाग लेती थी| यदि उस वक्त दलितों के साथ छुआछूत होती और रानी एक दलित को छोटा व्यक्ति समझती तो क्या उसका वहां आना संभव था| आपको बता दें यदि रानी चाहती तो उनके राज्य में आने वाले साधू-संत उसके महल में आकर भी जागरण व सत्संग कर सकते थे|
पर रानी रूपांदे के मन में कभी यह विचार नहीं आया कि धारू मेघवाल छोटी जाति का है अत: उसके घर नहीं आना चाहिए| ज्ञात हो रानी ने धारू मेघवाल को अपना गुरुभाई बना लिया था| आपको बता दें मालानी आँचल में आज भी रानी रूपांदे की देवी के रूप में व उनके पति व मालानी के शासक रावल मल्लीनाथ की लोकदेवता के रूप में पूजा होती है, लेकिन परम्परा है कि इन दोनों की पूजा से पहले दलित धारु मेघवाल की पूजा होगी| जिस काल को लेकर दुष्प्रचार किया जाता है कि – दलितों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था, उनके साथ छुआछूत होती थी| उसी काल की एक रानी का एक दलित के घर आना जाना था और उसी काल में उस दलित धारु मेघवाल का मंदिर भी बना| यदि दुष्प्रचार सही होता तो रानी का दलित के घर आना-जाना व दलित का मंदिर बनना क्या संभव होता ?