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Saturday, June 3, 2023

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भामाशाह के दान का सच

भामाशाह के दान का सच : मेवाड़, महाराणा प्रताप, हल्दीघाटी आदि की बात चलती है तो इस संघर्ष में महाराणा के लिए आर्थिक व्यवस्था करने वाले उनके मंत्री Bhamashah  की चर्चा अवश्य चलती है| हर कोई मानता है और लिख देता है कि Bhamashah ने अपनी कमाई सारी पूंजी महाराणा को अकबर के साथ संघर्ष करने हेतु राष्ट्र्हीत में दान कर दी थी| इस तरह भामाशाह को महान दानवीर साबित कर दिया जाता है. ऐसा करने वाले समझते ही नहीं कि वे भामाशाह के बारे में ऐसा लिखकर उसके व्यक्तित्त्व, स्वामिभक्ति, कर्तव्य व राष्ट्रहित में दिए असली योगदान को किनारे कर उसके साथ अन्याय कर रहे होते है| आज भामाशाह की जो छवि बना दी गई है उसके अनुरूप Bhamashah का नाम आते ही आमजन में मन-मस्तिष्क में छवि उभर जाती है- एक मोटे पेट वाला बड़ा व्यापार करने वाला सेठ, जिसने जो व्यापार में कमाया था वो महाराणा को दान दे दिया| जबकि इतिहासकारों की नजर में भामाशाह द्वारा महाराणा को दिया अर्थ कतई दान नहीं था, वह महाराणा का ही राजकीय कोष था जिसे सँभालने की जिम्मेदारी भामाशाह की थी| और भामाशाह ने उस जिम्मेदारी को कर्तव्यपूर्वक निभाया| यही नहीं कई इतिहासकारों के अनुसार भामाशाह ने मालवा अभियान में प्राप्त धन महाराणा को दिया था| यदि इतिहासकारों की बात माने तो Bhamashah व्यापारी नहीं, महाराणा के राज्य की वित्त व्यवस्था व राजकीय खजाने की व्यवस्था देखते थे| साथ ही वे एक योद्धा भी थे, जिन्होंने मालवा अभियान का सैन्य नेतृत्व कर वहां से धन लुटा और महाराणा को दिया| इस तरह भामाशाह एक योद्धा थे, जिनकी छवि एक व्यापारी की बना दी गई|

भामाशाह द्वारा महाराणा को दान देने की कहानी को राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा जी कल्पित मानते है| ओझा जी के मतानुसार- यह धनराशि मेवाड़ राजघराने की ही थी जो महाराणा कुंभा और सांगा द्वारा संचित की हुई थी और मुसलमानों के हाथ ना लगे, इस विचार से चितौड़ से हटाकर पहाड़ी क्षेत्र में सुरक्षित की गई थी और प्रधान होने के कारण केवल Bhamashah की जानकारी में थी और वह इसका ब्यौरा अपनी बही में रखता था|”

इतिहासकार डा.गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” के पृष्ठ 233-34 पर लिखते है कि- “विपत्ति काल के संबंध में एक जनश्रुति और प्रसिद्ध है| बताया जाता है कि जब महाराणा के पास सम्पत्ति का अभाव हो गया तो उसने देश छोड़कर रेगिस्तानी भाग में जाकर रहने का निर्णय किया, परन्तु उसी समय उसके मंत्री भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी जिससे 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह हो सके| इस घटना को लेकर Bhamashah को मेवाड़ का उद्धारक तथा दानवीर कहकर पुकारा जाता है| यह तो सही है कि भामाशाह के पूर्वज तथा स्वयं वे भी मेवाड़ की व्यवस्था का काम करते आये थे, परन्तु यह मानना कि भामाशाह ने निजी सम्पत्ति देकर राणा को सहायता दी थी, ठीक नहीं| भामाशाह राजकीय खजाने को रखता था और युद्ध के दिनों में उसे छिपाकर रखने का रिवाज था| जहाँ द्रव्य रखा जाता था, उसका संकेत मंत्री स्वयं अपनी बही में रखता था| संभव है कि राजकीय द्रव्य भी जो छिपाकर रखा हुआ था, लाकर समय पर Bhamashah ने दिया हो या चूलिया गांव में मालवा से लूटा हुआ धन भामाशाह ने समर्पित किया हो|”

तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक “राजस्थान के सूरमा” के पृष्ठ 99 पर – हल्दीघाटी की विफलता के बाद की परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए लिखते है-“भामाशाह मालवे की सीमा पर स्थित रामपुरा चले गए| अब तक ताराचंद भी यहाँ पहुँच गया था| 1578 ई. में दोनों भाइयों ने मेवाड़ की बिखरी सैनिक शक्ति को एकत्रित कर अकबर के सूबे मालवे पर ऐसा धावा बोला कि पूरे सूबे में खलबली मच गई| मुग़ल सत्ता को भनक भी नहीं लगी और वहां से 25 लाख रूपये अधिक राशी वसूलकर पुन: मेवाड़ आये| इस धन राशी से प्रताप को बहुत बड़ा सहारा मिला और वे पुन: मुगलों से संघर्ष को तैयार हो गए| यही वह धन राशी थी जिससे भामाशा, भामाशाह बने और हिंदी शब्दकोष को एक नया शब्द “भामाशाह” (अर्थात संकट में जो काम आये) दे गये| कई किंवदंतियों को जन्म मिला| कुछेक कलमधर्मियों व इतिहासकारों ने उक्त राशी को भामाशाह की निजी धनराशि मानकर Bhamashah को एक उदारचेता व दानवीर शब्दों से सम्मान दर्शाया, लेकिन वास्तविकता में यह धनराशि मालवा से लूटी हुई धनराशि थी|”

इस तरह इतिहास पर नजर डालें तो Bhamashah ने जो धन दिया वह राणा का राजकीय धन था, ना कि दान| लेकिन भारत के इतिहास को तोड़ मरोड़कर उसे विकृत करने की मानसिकता रखने वाली गैंग ने यह झूंठ प्रचारित कर दिया कि राणा महज हल्दीघाटी के युद्ध में धनविहीन हो गए थे और भामाशाह ने उन्हें दान दिया| यह बात भी समझने योग्य है कि क्या ये संभव है मेवाड़ जैसी रियासत का खजाना महज एक युद्ध में खाली हो सकता है और उसके एक मंत्री के पास इतना धन हो सकता है कि उस धन से 25 हजार संख्या वाली सेना 12 वर्ष तक अपना निर्वाह कर सके| यह बातें साफ़ जाहिर करती है कि Bhamashah द्वारा राणा को निजी सम्पत्ति दान में देना निहायत झूंठ है, दुष्प्रचार है|

हाँ ! भामाशाह युद्धकाल में खजाने को बचाने में सफल रहे और राष्ट्र्हीत में अपने कर्तव्य का भली प्रकार निर्वाह किया या मालवा सैनिक अभियान के द्वारा धन संग्रह कर राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे महाराणा के सहायक बने, इसके लिए Bhamashah निसंदेह सम्मान व प्रसंशा के पात्र है| लेकिन अफ़सोस जो भामाशाह वीर, साहसी, नितिज्ञ, कुशल प्रबंधक, स्वामिभक्त, उदारमना, योग्य प्रशासक, देशभक्त था उसे महज एक नाम दानवीर दे दिया गया जो उसके व्यक्तित्व के साथ अन्याय है| Bhamashah ke dan ka sach, History of Maharana Pratap and Bhamashah in Hindi

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6 COMMENTS

  1. उत्तम लेख !एतिहासिक विसंगतियों पर इसी प्रकार प्रकाश डालते रहें ! भामाशाह का सच कुछ भी रहा हो परन्तु इतना तो आपके लेख से भी उद्भाषित होता है कि "भामाशाह वीर, साहसी, नितिज्ञ, कुशल प्रबंधक, स्वामिभक्त, उदारमना, योग्य प्रशासक, देशभक्त था !" आपके द्वारा भामाशाह को प्रदत्त ये अलंकरण भी उनकी श्री वृद्धि ही करतें हैं | देश , धर्म एवं कर्तव्य के लिए किसी भी रूप में किया गया कोई भी त्याग सदैव अतुल्य व स्तुत्य है सा ! शत शत नमन ! देश और धर्म के निमित्त अपना सर्वस्व समर्पित कर समूचे विश्व को समर्पण के नये प्रतिमान प्रदान करने वाले इन पुरोधा महामना भामाशाह को व उत्कट देशभक्ति, त्याग, आत्म बलिदान व शौर्य के प्रतीक प्रकाश पुंज,अद्वितीय पुरोधा वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप को ! जय हो !

  2. रतन शेखावत जी
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  4. भामा शाह कुछ भी हाे पर उनकी मेवाड राजवंश के लिए वह सबसे बड़ा याेगदान दे गये, जिसकी मिसाल पेश की वह इतिहास बन गया है! आलेख शानदार दमदार लेखन रहा!

  5. agar bhamashah ji ne dan nahi diya tha to unke sath wale wo do loog kon hai jo hat jodkar khade .
    hamare purwajo ke bare me galat mat boliye .
    jara iska utar dijiye

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