बडू ठिकाने का इतिहास : राजस्थान के इतिहास में मेड़तिया राठौड़ अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध है | उनके लिए कहावत है कि मरण नै मेड़तिया अर राज करण नै जोधा” तथा मरण नै दूदा अर जांन में उदा | इन कहावतों में मेड़तिया राठौड़ों को आत्मोसर्ग में आगे रहने तथा रण कौशल में प्रवीण मानते हुए युद्ध में मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है | बडू ठिकाना मेड़तिया राठौड़ों की केशोदासोत राठौड़ों का महत्वपूर्ण ठिकाना रहा है | बडू के मेड़तिया शासक इतिहास प्रसिद्ध वीरवर जयमल मेड़तिया में वंशज हैं | इस ठिकाने की स्थापना ठाकुर रामसिंह जी ने की थी, रामसिंह जी बोरावड में ठाकुर पृथ्वीसिंह जी के पुत्र थे, जिन्होंने ई. सन 1672 में बडू में गढ़ की नींव रखी और निर्माण करवाया | बडू ठिकाना मारवाड़ के प्रथम श्रेणी के ठिकानों में गिना जाता है | इस ठिकाने के संस्थापक ठाकुर रामसिंहजी का जन्म जोधपुर के शासक राव जोधाजी की वंश परम्परा में हुआ |
मेड़तिया राठौड़ जोधपुर के राव जोधाजी के वंशज होने के नाते जोधा राठौड़ कहलाते थे, लेकिन विश्नोई मत व समाज के प्रवर्तक महान संत जाम्भोजी ने इन्हें मेड़ता के शासक होने के नाते मेड़तिया नाम दिया |
महान संत जाम्भोजी ने मेड़ता के शासक राव दूदा जी को मेड़तिया नाम के साथ केर की झाड़ी की एक लकड़ी भी दी थी, जो दूदाजी के हाथ में लेते ही तलवार बन गई | जाम्भोजी द्वारा दी गई उक्त चमत्कारी तलवार की जानकारी हम अलग लेख में देंगे और वह पवित्र तलवार आज भी गुलर ठिकाने के गढ़ में सुरक्षित संभाल कर रखी गई है |
बडू ठिकाने का इतिहास वीरवर दुर्गादास व जोधपुर के महाराजा अजीतसिंहजी से भी जुड़ा है | ठिकाने के संस्थापक ठाकुर रामसिंहजी ने भी शिशु महाराज अजीतसिंह को औरंगजेब के चुंगल से निकालने में भूमिका निभाई थी और दिल्ली से लाने के बाद शिशु अजीतसिंह जी को कुछ दिन इस गढ़ में रखा गया था, जिस कक्ष में शिशु महाराज को रखा गया, उसे आज भी अजीत महल के नाम से पुकारा जाता है |
ठाकुर रामसिंहजी ने जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंहजी के साथ रहते हुए धर्मत सहित अफगानिस्तान के कई युद्धों में भाग लिया | रामसिंहजी बडू आये तब की एक जनश्रुति है कि जब वे यहाँ आकर रात्रिविश्राम कर रहे थे, तब पास ही स्थित एक पुराणी बावड़ी में रहने वाले भूतों ने उनका स्वागत किया और मोतियाँ का तिलक कर स्वागत गीत गाया | जिसे स्थानीय भाषा में बधावा गाना कहा जाता है | उक्त गीत यानी बधावा को आज भी स्थानीय दमामी समाज के लोग गढ़ में होने वाले उत्सवों पर गाते हैं | भूतों द्वारा मोतियाँ का जो तिलक किया गया था, उन मोतियों के बारे में भी कहा जाता है कि वे ठाकुर फतेहसिंहजी के समय तक गढ़ में सुरक्षित थे |
बडू मारवाड़ रियासत का प्रथम श्रेणी का 37000 रूपये वार्षिक आय वाला ठिकाना था | इसके बदले बडू के जागीरदारों को जोधपुर की सैन्य सेवा के लिए घोड़े और सैनिक रखने होते थे | बडू ठिकाने को दीवानी अधिकार भी थे |
वीरवर राव जयमल मेड़तिया वंशज बडू ठिकाने के विभिन्न शासकों ने समय समय पर मारवाड़ राज्य की सेवा की और युद्धों में वीरता प्रदर्शित करते हुए मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया | ठिकाने के संस्थापक ठाकुर रामसिंह जी ने धर्मत, तुंगा व अफगानिस्तान के विभिन्न युद्धों में भाग लिया और आखिर गुरुग्राम में युद्ध के मैदान में प्राणों का बलिदान कर शहीद हो गए |
बडू के आज भी विभिन्न योद्धाओं व सतियों की देवलियां विद्यमान है जो यहाँ के वीरों व वीरांगनाओं की की वीरता और साहस की मूक गवाह है | इन देवलियों में बडू के ठाकुर कनीरामजी व नैनियाँ गांव के ठाकुर खुमाणसिंह जी की देवली झुझार जी महाराज के रूप में पूजित है | राजस्थान में सिर कटने के बाद भी लड़ने वाले वीरों को झुझार जी महाराज के रूप में पूजा जाता है |
खुमानसिंह जी के बारे में आचार्य निरंजन प्रसाद पारीक की पुस्तक “बडू की स्वर्णिम इतिहासगाथा” के अनुसार – बडू ठाकुर सुल्तानसिंहजी की युद्धों में व्यस्त रहते थे, उसी का लाभ उठाने के उद्देश्य से डाकुओं ने बडू के गोसाइयों के मठ पर आक्रमण कर दिया, इस मठ के बारे में प्रचलित था कि इसमें अथाह धन है | जब डाकुओं ने मठ पर आक्रमण किया तब नैनिया के ठाकुर खुमाणसिंहजी कुछ आदमियों के साथ डाकुओं से भीड़ गए और वीरतापूर्वक लड़ते हुए झुझार हो गए | कहते हैं कि उनका सिर कट कर गढ़ के सामने स्थित चारभुजा मंदिर के पास गिरा, जहाँ उनका चबूतरा और देवली बनी है जहाँ उनकी पूजा अर्चना की जाती है व लोग मन्नत मांगने आते है | खुमाणसिंहजी का धड़ कहते है कि नैनिया गांव में जाकर घोड़े की पीठ से गिरा था, जहाँ भी उनका पवित्र स्थान बना है और पूजा जाता है |
आजादी के समय यहाँ के अंतिम शासक ठाकुर सालमसिंहजी थे, जो आजाद भारत में बड़े आईसीएस अधिकारी रहे |