सम्राट रामभद्र के बाद उसके पुत्र भोजदेव को प्रतिहार साम्राज्य का सम्राट बनाया गया| यह रामभद्र की रानी अप्पादेवी का पुत्र तथा भगवती का उपासक था| भोजदेव को मिहिर तथा आदिवराह भी कहते है| सम्राट भोजदेव के राज्य सिंहासन ग्रहण करने के साथ ही सबसे पहला कार्य बिखरे हुए साम्राज्य को वापस सुसंगठित करने का था| अत: इन्होंने प्रारंभ के कुछ वर्षों में अपने साम्राज्य के प्रान्तों को फिर से सुदृढ़ बनाया और कई एक अन्य क्षेत्रों को भी विजय करके अपने राज्य में मिलाया|
राजा भोज का साम्राज्य बड़ा शक्तिशाली और समृद्धशाली था। यह प्रतिहार सम्राटों में सबसे महान और शक्तिशाली शासक हुआ। भारत में हिन्दूकाल में अशोक के बाद भोजदेव तथा इसके पश्चात कोई दूसरा महान सम्राट नहीं हुआ। सम्राट भोजदेव की विजय पताका अफगानिस्तान से लेकर आसाम तक फहराती थी और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण के आन्ध्र तक फहराती थी। सम्राट भोजदेव जैसा सुयोग्य सेनापति और उत्तम शासक था वैसा ही साहित्यानुरागी, कलाप्रेमी और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। इसके समय में मेघातिथि और राजशेखर जैसे महान् विद्वान इसके दरबार की शोभा थे। मेघातिथि ने मनुस्मृति ग्रन्थ पर टीका लिखी है, जो कि बहुत ही प्रगतिशील विचारों की है। इसी प्रकार राजशेखर भी बड़ा धुरन्धर विद्वान था, जिसने बाल भारत, बाल रामायण, काव्य मीमांसा, भूवन कोष, कपूर मंजरी, विद्धशाल मंजिका आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। सम्राट भोजदेव ने राजशेखर को अपने युवराज महेनद्रपाल का शिक्षक नियुक्त किया था।
राजा भोज ने अपने नाम से चांदी के सिक्के प्रचलित किये जो कि आदिवराह द्रम नाम से सुविख्यात हुये। इन सिक्कों की एक तरफ मदादिवराह लेख अङ्गित है तथा दूसरी ओर विष्णु के वराह अवतार का चित्र है। वराह प्रतिहारों का ईष्टदेव था। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक सम्राट का अपना अपना इष्टदेव अलग-अलग होता था, परन्तु वराह तो उनके वंश का इष्टदेव था। भीनमाल जो कि प्रतिहारों की प्राचीन राजधानी थी वहाँ पर एक बहुत विशाल वराह मन्दिर अवस्थित हैं। इसके समय में प्रतिहारवंशी साम्राज्य के तीन तरफ तीन बड़े शुत्र थे। पूर्व दिशा में बंगाल के शासक पाल, और पश्चिम दिशा में सिन्ध आदि प्रदेशों में खलीफा तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट। इन तीनों ही शक्तियों के मुकाबले के लिये सम्राट भोजदेव को तीनों ही तरफ अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये बड़ी सेनाएं रखनी पड़ती थी।
प्रतिहारों से पहले भारत की जो शक्तियाँ थी जैसे मौर्य, गुप्त और हर्षवर्धन इन तीनों को केवल एक ही शत्रु से संघर्ष करना पड़ा था परन्तु प्रतिहारों को तीन शक्तिशाली शक्तियों से कड़े संघर्ष करने पडे। सम्राट भोजदेव के विवाह-सम्बन्ध में पृथ्वीराज विजय में वर्णन दिया है कि शाकम्भरी के चौहान शासक गुवक (द्वितीय) की बहिन कलावती ने स्वयंवर में प्रतिहार सम्राट भोजदेव का वरण किया था जिससे इसका विवाह हुआ था’। जब हम भोजदेव के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो ज्ञात होता है कि भोज के एक से अधिक रानियाँ थी। प्रतापगढ़ अभिलेख में वर्णन दिया है कि भोजदेव की रानी चन्द्र भट्टारिक देवी से महेन्द्रपाल देव का जन्म हुआ। ईस्वी 888 के लगभग महान् सम्राट की मृत्यु हुई।
लेखक : देवीसिंह, मंडावा