राजस्थान में जब भी सुन्दर स्त्री की बात चलती है तब उसे पूगल की पद्मिनी की संज्ञा दे जाती है| घर में शादी ब्याह की बात भी चलती है तो लड़कों से अक्सर मजाक कर दिया जाता है कि जिस लड़की से आपके ब्याह की बात चल रही है उसे पूगल की पद्मिनी ही समझो| यानी पद्मिनी शब्द को रूपवती व गुणवती स्त्रियों के लिए पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है| आपको बता दें भारतीय शास्त्रों में महिलाओं को उनके रूप, गुण, व्यवहार आदि के आधार पर चार श्रेणियों यथा- पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी व संखिनी में बाँट रखा है| पद्मिनी श्रेणी की स्त्रियों को इन चारों में श्रेष्ठ बताया गया है|
राजस्थानी साहित्य, इतिहास व आम बोलचाल में बीकानेर के पास पूगल की बेटियों के लिए ही पद्मिनी शब्द का प्रयोग किया गया है| पूगल की बेटियों में ऐसे क्या गुण है? वे गुण सिर्फ पूगल की बेटियों में ही क्यों पनपे कि यहाँ की बेटियां पद्मिनी की पर्याय बन गई| इन कारणों पर प्रकाश डाला है हरी सिंह जी भाटी ने अपनी इतिहास पुस्तक “पूगल का इतिहास” में जो उन्हीं के शब्दों में यहाँ प्रस्तुत है-
यह सच है कि पूगल प्रदेश की कन्याएँ, रूपवती, मोहिली, व्यवहार कुशल, डील-डौल, लुभावनी कद-काठी एवं तीखे नाक-नक्शों वाली, मांसल शरीर एवं मृदु भाषी रही हैं। किसी भी घराने में व्याहने के बाद में इन्होंने नये घर को अपनाया और उसमें सुख और समृद्धि का संचार किया। यह गुण जहां रेगिस्तान की विकट परिस्थितियों में वन-निर्वाह, पानी और अन्न के अभाव के साथ समझौता, अकाल की विषमता से जूझना, सहनशीलता, गर्मी, सर्दी, आंधी जैसी भयावह दैविक प्रकोपों से संघर्ष करने से आये, वहां इन गुणों को पनपाने में ऐतिहासिक सत्यता भी कम सार्थक नहीं रही।
यदुवंशी गजनी में शासन करते थे, इनके राज्य की सीमाएँ उजबेकिस्तान (बोखारो), ईरान, कश्मीर, मथुरा और पंजाब तक फैली हुई थीं। इनके शादी विवाह उजबेक, अफगान, पठान, कश्मीरी, ईरानी, पंजाबी आदि हिन्दू जातियों के साथ होना स्वाभाविक था। सामान्यतः ठंडी जलवायु के क्षेत्रों में बसने के कारण इन लोगों का रंग गोरा और गेहुंआ होता था। इनके खानपान में उत्तम पौष्टिक भोजन, मांस, मेवे और फल बहुतायत में होने से शरीर मांसल होता था और खून की ललाई गोरे गेहुंए रंग के कारण कपोलों और होठों में झलकती थी। अच्छी आबोहवा होने के कारण शारीरिक बीमारियां कम लगती थीं। स्वास्थ्य अच्छा रहने से कद काठी का विकास सुन्दर और सुदृढ होता था। इन्हीं शारीरिक गुणों से सम्पन्न भाटी लोग गजनी छोड़कर पंजाब और सिन्ध प्रान्तों में आए । इन्होंने अच्छे खानपान और परिश्रम के कारण अपने अंगों एवं आकृति को बनाए रखा । भाटियों के इन प्रान्तों में बसने के बाद में इनके शादी विवाह स्थानीय राजपूत जातियों के साथ होने लगे । इनमें पंवार, जोइया, खींची, पड़िहार, भुट्टा, लंगा, बलौच, खोखर, दईया आदि जातियां प्रमुख थी। इनके साथ शादियों से आपसी शारीरिक आदान प्रदान हुआ और इनके अनुरूप गुणों वाली सन्तानें हुई। क्योंकि स्थानीय जातियां भी भाटियों जैसे वातावरण में ही पनप रही थीं, इसलिए शारीरिक मिश्रण से उनके गुणों में कुछ उभार आया, क्षति नहीं हुई । इन प्रदेशों की जलवायु शुष्क थी, वर्षा कम होती थी, दोमट मिट्टी थी, इसलिए रंग रूप, स्वास्थ्य अच्छा रहता था। मनुष्य की तरह ही भाटी प्रदेश और पंजाब प्रान्त के पशु भी स्वास्थ्य की दृष्टि से सांगोपांग होते थे।